बुधवार, 2 जून 2010

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक...
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक गजलांश के मानिंद ही बीकानेर की आह का कोई असर सरकार पर नजर नहीं आ रहा। बीच सड़क से गुजरती ट्रेन के गुजर जाने का इंतजार करते, कॉलेज में मनमाफिक सब्जेक्ट नहीं मिलने पर यूं ही दूसरा सब्जेक्ट चुनते, सभाओं में हवाई सेवा से लेकर ड्राइपोर्ट तक की घोषणा होने पर तालियां बजाते इन शहरियों ने हर बार सरकार पर विश्वास किया मगर 'वायदों की चूसणी ही मिली। इस चूसणी से जीभ पर पड़े छालों को सालों से सहते हुए शहर सिसकियां भर रहा है मगर साहिल के तमाशायी हर डूबने वाले पर अफसोस तो करते हैं, इमदाद नहीं देते की तर्ज पर महज हमदर्दी ही हासिल हो पाई है, जख्मों पर मरहम नहीं लगा।
अपने समय में बीकानेर को शिक्षा की राजधानी बनाना तय हुआ मगर उस वादे पर किसी भी सरकार ने गौर नहीं किया। प्रदेश में आईआईटी, केन्द्रीय विवि सहित चार बड़े शिक्षण संस्थान खुलने थे। विजयशंकर व्यास समिति ने केन्द्रीय विवि को बीकानेर में खोलने की सिफारिश भी की मगर उसमें से बीकानेर को नजरअंदाज कर दिया गया। शिक्षा का समान विकास हर संभाग में हो, इस नीति वाक्य को भी नजरअंदाज किया गया। इस शहर ने खामोशी से सब सहा है और सीमितताओं में अपने को जिंदा रखा है। इस बार दलीय सीमाएं तोड़कर जन मुद्दों पर एक मंच पर आए पर सुनवाई नहीं हुई।
हवाई सेवा को देरी से मंजूरी मिली। आधे-अधूरे विवि अपनी आंखों से केवल आंसूं बहाते रहते हैं। शिक्षा निदेशालय से कामों को अन्यत्र देने का सिलसिला किसी राज में नहीं थमा। व्यापारी यहां के जागरूक हैं और विकास में भागीदार बनना चाहते हैं। उनकी चाहत पर राज मुस्कुराकर नजर तो डाले, उसका इंतजार ही हो रहा है। यहां का विश्व प्रसिद्ध ऊन उद्योग हिचकोले खाकर सांसें ले रहा है पर उसे प्राणवायु देने तक का काम नहीं किया जा रहा। इसमें कोई दो राय नहीं कि वेटेरनरी विवि की सौगात शहर को मिली पर आज की भागती रफ्तार में एक-दो काम से किसी संभाग मुख्यालय को महत्त्व नहीं मिल सकता।
पानी की तरह गहरे हैं इन्सान
इस मरूधरा में पीने का पानी गहराई पर है जिसने यहां के लोगों को कठोर परिश्रमी बनाया है पर साथ में मानवीय गहराई भी दी है। इसलिए जब तक उसकी अस्मिता पर कोई प्रहार न हो तब तक आंख भी नहीं फेरता। अब तो हदें पार लगती है। अकाल की इस विभीषिका में न चारे का पूरा प्रबंध है न पानी का। बिजली की बेवफाई तो सहन से बाहर है। रवीन्द्र रंगमंच का रुका निर्माण आरंभ हुआ तो राजस्थानी अकादमी से मायड़ भाषा की जो जोत जल रही थी उसे मद्म कर दिया गया। न साहित्य सृजन हो रहा है न साहित्य का सम्मान। साहित्यकारों को सहायता भी नहीं मिल रही। ऐसा लगता है इस शहर की कला-संस्कृति व साहित्य को तो दूसरे पायदान पर धकेल दिया गया है। निगम बनाया पर उसे आर्थिक संबल नहीं दिया, कैसे होगी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी।
शिकायत नहीं चाह है
जन जरूरतें कभी पूरी नहीं होती इसलिए मांग बने रहना ही स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी मानी जाती है। बीकानेर शहर इसी दौर से गुजर रहा है। यह शहर दिए गए सहयोग को भूलता नहीं है पर अपनी चाह बताने में पीछे रहना नहीं चाहता। हर शहरवासी चाहता है कि उसका बीकानेर भी राज्य के अन्य विकसित संभाग मुख्यालयों की तरह प्रथम पंक्ति में रहे। इस चाह को बुरा भी नहीं मानना चाहिए। माटी का मोल समझने वाले उसके लिए बोलने का मादा भी रखते हैं। बीकानेर नगर की स्थापना का दिन पास है शहर अपनी वर्षगांठ मनाने में लगा है। इस बीच यदि सरकार आए तो उसकी चाह को विस्तार मिलना भी स्वाभाविक है। बस चाह को उम्र मिल जाए तो इस मरूनगरी के भाग्य बदल सकते हैं। राम के साथ राज के जुडऩे की जरूरत है, बस।

इस तरफ आती तो हम भी देखते फसले-बहार...
बिजली और पानी, पता नहीं इनको गर्मी में ही क्या होता है। हर बार ऐसा होता है और हर बार इसकी मार सहनी पड़ती है। ऐसा भी नहीं है कि गर्मी में इन दोनों की कमी का राज या काज को पता न हो पर सिवाय सहन करने की दुहाई देने के कुछ भी जतन नहीं होता। पहले जहां शान से हर गांव-ढाणी तक बिजली पहुंचाने की बात मुख्य खबर होती थी वहीं अब कितने घंटे बिजली बंद रहेगी यह मुख्य खबर होती है। करीने से टाइम तय होता है और आजादी के इतने सालों के बाद भी घोषणा की जाती है कि दो से छह घंटे तक क्षेत्रवार बिजली बंद की जाएगी। यह तो होती है घोषणा, बिना घोषणा जो जबरदस्ती होती है वह अलग। बीकानेर तो हर गर्मी में इसका शिकार होता है। यहां के बाशिंदों की मासूमियत तो देखिये, ये नहीं कहते कि बिजली नहीं काटी जाए अपितु यह कहते हैं कि बिजली सुबह काटी जाए। दमदार आवाज में कटौती के खिलाफ आवाज बुलंद भी नहीं करते। ऐसे दयावानों की हालत को सुधारने की जेहमत भी नहीं उठाई जाती।
गांवों की हालत तो और भी खराब है। वहां तो पूरे दिन बिजली रूठे भगवान की तरह दर्शन ही नहीं देती। ग्रामीणों की आवाज भी नहीं सुनी जाती। कारखानों के चक्के जाम हो तो हों, व्यापारी का व्यापार बंद हो तो हो। बिजली तो काटी ही जाएगी। बिजली आम आदमी की तो बैरन बनी हुई है। उसे तो अपने फाल्ट ठीक कराने में भी पसीना आ जाता है। समाज का शायद ही कोई ऐसा वर्ग होगा जो बिजली की इस बदइंतजामी से बेहाल न हो। अब तो पूरा जीवन भौतिक युग में बिजली केन्द्रित हो गया है उसमें तो सब कुछ बदहाल होना ही है। व्यापारी, उद्यमी, किसान, आम आदमी, मरीज, कर्मचारी हर कोई हर गर्मी में बिजली के कारण परेशान होते हैं। कभी भी इस शाश्वत समस्या के समाधान पर ठोस प्रयास होता दिखता नहीं। केवल लाचारी व मजबूरी बताकर जनता को सहने के लिए ही मार्मिक निवेदन किया जाता है। राज तो कई आए और गए पर इस बैरन बिजली से जनता का पिंड किसी ने नहीं छुड़ाया। जनता की बेबसी पर स्व. दुष्यंत का शेर याद आता है-
रोज अखबारों में पढ़कर यह ख्याल आया हमें, इस तरफ आती तो हम भी देखते फसले-बहार, मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं, बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार।
जल बिन नहीं है कल
बिजली के बाद सबसे ज्यादा बीकानेर में हालात खराब हैं तो वो पानी के हैं। गांवों की बात तो करना ही बेमानी है जब शहर में ही पेयजल के लिए लाले पड़ते हों। बिजली व बदइंतजामी के कारण जल उत्पादन कम होता है तो जाहिर है उसकी आपूर्ति भी कम ही होती है। गांवों में तो जल संग्रहण को लेकर इतने वर्षों में भी कोई नीति नहीं बनी। डिग्गियां बना तो दी गई मगर उनकी सफाई और भराई की याद गर्मी आने पर आती है। नहरों में पानी तो चलता हैै, पर उतना नहीं चलता है, उस पर तो पंजाब से पानी न मिलने की दुहाई दे दी जाती है। नहरों के किनारे वाटर पाइंट बनाए गए पर वे जल विहीन ही रहते हैं। हालत यह है कि निजी तौर पर पानी खरीदना पड़ता है जिसके दाम भी सुरसा की तरह बढ़े हैं। 100 रुपए में मिलने वाला टैंकर गांवों में कई बार तो अब 1000 तक में लेना पड़ता है। पानी और बिजली की बदइंतजामी हर गर्मी में क्यूं होती है, क्या यह सवाल राज के मन में नहीं आता। जिनके जिम्मे यह काम है उनकी जवाबदेही तय क्यूं नहीं की जाती। यदि उनकी आवश्यकताएं हैं तो उनकी पूर्ति क्यूं नही की जाती। यदि यही हालात रहे तो जल के बिना कल गर्म हो जाएगा। जिस पर लगाम लगाना फिर मुश्किल हो जाएगा। अभी तो मौसम की शुरुआत हुई है, बात संभाली जा सकती है। ध्यान नहीं दिया तो आने वाला समय राज और काज का चैन छीन लेगा।

शनिवार, 1 मई 2010

कुछ लोगों की साजिश है कि कुछ लोग बहल जाएं...
जन प्रतिनिधियों के विकास कोटे को लेकर शाश्वत बहस चलती ही रहती है। इस कोटे के उपयोग को लेकर जहां अनेक अच्छे उदाहरण सामने आए वहीं कुछ ऐसी बातें भी सामने आई जिससे इस कोटे पर बहस चल पड़ी। हर सांसद हर विधायक चाहता है कि उसका क्षेत्र में नाम हो। ऐसे तो बिरले ही एमपी-एमएलए होते हैं जो विकास के लिए मिले बजट का पूरा उपयोग ना करें। सांसद कोटे के उपयोग पर पिछली लोकसभा में काफी बवाल हुआ। मीडिया ने स्टिंग ऑपरेशन किया तो कई नये निर्णय भी हुए। उसके बाद से इस कोटे पर बहस कुछ ज्यादा ही तीखी हो गई।
यह सही है कि इसके उपयोग में पारदर्शिता होनी चाहिए। अनेक ऐसे भी उदाहरण मिले हैं जब इन प्रतिनिधियों ने अपना कोटा कार्यकाल के अंतिम चरण में उपयोग में लिया है, ऐसा क्यूं! यह भी बहस का विषय है। इस क्षेत्र के जानकारों व वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि विकास कोटे पर राजनीति हावी न हो इसके लिए यह तो नियम बनाया ही जा सकता है कि हर जन प्रतिनिधि अपने वार्षिक कोटे का उपयोग उसी वित्तीय वर्ष में करे। इससे यह काम केवल विकास का पर्याय बन जाएगा। राजनेताओं के इर्द-गिर्द घूमने वाले और अक्सर निर्णयों को प्रभावित कर देने वाले केवल वोटरों को बहलाने का बहाना बना विकास कोटे की धारा मोड़ देते हैं। यह कारगुजारी उस जन प्रतिनिधि पर भी भारी पड़ती है। इसलिए उसी वित्तीय वर्ष में खर्च की शर्त पर तो निर्णायक स्थिति पर पहुंचा जा सकता है। क्योंकि सांसद या विधायक बनने के बाद वो पूरे क्षेत्र का प्रतिनिधि होता है और विकास में भी उसे समान भाव रखना पड़ता है। ऐसा नहीं हो कि कुछ लोगों की बातें हावी हो जाए और कुछ लोगों को ही बहलाने का जरिया बन जाए यह पवित्र फंड।
सरपंची पर संकट
एक साल तक टेंडर जारी न करने का नियम और महानरेगा में जिला कलेक्टर को नोडल अधिकारी बना देने से सरपंचों की सरपंची पर संकट खड़ा हो गया है। गांव में उनकी अहमियत कहीं कम न हो जाए इसके लिए सरपंच सड़क पर आए, माननीय न्यायालय तक गए पर अभी तक संतुष्ट नहीं हो सके हैं। कड़े चुनावी मुकाबले में जीतने के बाद यदि ऐसे हालात हो तो सरपंची पर संकट आना लाजिमी है। राजनीति भी इससे तेज हो गई है। आखिरकार ग्रामीण क्षेत्र में वोटों की खातिर बड़े नेताओं को चुनाव के समय इन्हीं की शरण में तो जाना पड़ता है। एक सरपंच ने कहा कि हम निश्चिंत हंै, इनको वोट लेने हैं तो ये भी हमारे ही साथ आएंगे। यह बात भी संकट का अहसास कराती है।
मिल गया राजस्थानी आंदोलन को बल
आठ करोड़ से अधिक राजस्थानियों की भाषा की मान्यता का मसला अब तूल पकड़ गया है। अपने स्तर पर लोगों के आंदोलन चल रहे हैं। मायड़ भाषा के लिए वे जुटे हैं पर राज्य के शिक्षा मंत्री के एक बयान ने बैठे बिठाए राजस्थानी भाषा की मान्यता के आंदोलन को बल दे दिया। मातृभाषा फिलहाल हिन्दी बताई और वो भी राजस्थानी में बोलकर, बस फिर क्या था, हर राजस्थानी का स्वाभिमान जाग गया और वो सक्रिय हो गया। अनिवार्य शिक्षा अधिकार से मान्यता आंदोलन का जुड़ाव हो गया। अब राज्य की हो या केन्द्र की सरकार,अंतिम निर्णय करना ही होगा।

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा...
प्रदेश में शिक्षा के बाद यदि दूसरी कोई बड़ी प्रयोगशाला बनी है तो वह है इंदिरा गांधी नहर परियोजना। थार मरुस्थल की इस भाग्य रेखा ने एक तरफ जहां रेगिस्तान में हरियाली फैलाई वहीं दूसरी तरफ पानी के स्वाभाविक माफिया भी पनपाए। नहर के आने से पश्चिमी राजस्थान के लोगों का जीवन स्तर तो बदला पर साथ में कुछ बुराईयों ने भी यहां घेरा डाला। पानी के साथ बाहर के लोग भी यहां आए और जमीनों पर काबिज हो गए। पर यह सही है, नहर ने इस इलाके को खुशहाली दी, सरकार को आय दी। इतना होने के बाद भी इसी परियोजना को राजनेताओं ने अपना अखाड़ा बनाया। जो मंत्री आया उसने अपने इलाके में नहर का पानी ले जाने की योजना बना मूल रूप को ही बदल डाला जिसके कारण विश्व की यह सबसे बड़ी मानव जनित परियोजना तय समय में पूरी नहीं हो सकी।
अपने जीवन को जोखिम में डाल जिन नहर कर्मचारियों, श्रमिकों व अभियंताओं ने बस्ती से दूर बीहड़ में रहकर नहर बनाई अब उनको ही नजरअंदाज किया जा रहा है। पिछले डेढ़ दशक में नहर का ताना बाना ही तोड़ दिया गया है। नहर है, पानी चल रहा है, किसान उम्मीद में खेत बो रहा है पर उसकी परवाह न करते हुए सरकार नहर चलाने वालों के पद तोड़ती जा रही है। सिंचाई के लिए बनी नहर अब लोगों की प्यास बुझाने का बड़ा साधन बन गई है, इसके बावजूद अविवेकी तरीके से इसके तंत्र को मनोनुकूल बदला जा रहा है। यदि यही हालात रहे तो नहर राजनीति का अखाड़ा बन जाएगी और जमीन और लोगों की प्यास कहीं पीछे छूट जाएगी। इस परियोजना से संवेदना के साथ जुड़े लोगों से बात करते हैं तो वे दुष्यंत कुमार का शेर गुनगुना देते हैं-
यहां आते-आते सूख जाती है कई नदियां, मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा, कई फाके बिता कर मर गया जो उसके बारे में, वो सब कहते हैं अब-ऐसा नहीं-ऐसा हुआ होगा।
बेलिबास हूं.....
बीकानेर पंचायत समिति में मंगलवार को जलसा हुआ। अवसर था साधारण सभा की बैठक और जन प्रतिनिधियों के सम्मान का। गांव की सरकार बनने के बाद बीकानेर पंचायत समिति के तहत आने वाले सरपंच, जिला परिषद सदस्य, पंचायत समिति सदस्यों को पहली बार गर्मी के इस मौसम में बिजली-पानी-रोजगार-शिक्षा की तंगी पर अपनी बात कहने का अवसर मिला। पर हाय री किस्मत, लंबरदारों की मर्जी। सभा का पूरा समय स्वागत सत्कार में ही बीत गया। गांवों में पानी नहीं है पर उस पर बात करना दूसरे पायदान पर है। अभी तो जाजम बिछानी है, मोहरे सजाने हैं, दोनों तरफ खुद ही खेलें ऐसे हालात बनाने हैं-उसमें पानी की क्या बिसात। शायर अजीज आजाद ने कहा भी है- जिस्मों के इस हुजूम में मेरा वजूद क्या, पहचानता है कौन मुझको इस लिबास में।
कैसे भूले मायड़ भाषा?
अनिवार्य शिक्षा कानून को लागू करने की जल्दबाजी में राज्य के शिक्षा मंत्री ने मायड़ भाषा को लेकर जो बयान दिया उसने पूरे साहित्यिक जगत को तो नाराज किया ही है पर साथ में करोड़ो राजस्थानियों की भावना को भी आहत किया है। मातृभाषा के साथ फिलहाल शब्द के उनके उपयोग पर लोगों की नाराजगी है क्योंकि इससे राजस्थानियों की अस्मिता पर चोट पहुंची है। हर समय राज की भाषा बोलकर लोग अपना रूप बेमानी बनकर क्यूं बदलते हैं, यह शाश्वत सवाल बन गया है। यदि ऐसा ही होता रहा तो मंत्रियों पर जो रहा सहा विश्वास है लोगों का, वह भी उठ जाएगा।

रविवार, 4 अप्रैल 2010

सहरा की प्यास है ये बुझाएं तो किस तरह...
राजधानी में पानी-बिजली पर बहस हुई। आश्वासन मिले, योजनाओं की बात हुई। सब कुछ पहले जैसा था। प्यास की असली पहचान तो दूर तक की ढाणी में बैठे उन लोगों को है जिनके सामने नहर है पर उसमें रेत है। डिग्गी है पर उसमें पानी नहीं है। पानी के लिए इंतजार करना पड़ता है उस टेंकर का जो सरकारी महकमा भेजता है। कोलायत विधायक ने भी ऐसे ही लोगों की पानी की जरूरत को स्वर दिया था। हर गर्मी में यह सूचना मिलती है कि पानी के टैंकर इन-इन गांवों में भेजे जाएंगे। जबकि अनेक गांव ऐसे हैं जहां पेयजल के लिए स्त्रोत बने हुए हैं। अगर रिकार्ड खंगाला जाए तो यह आश्चर्यजनक तथ्य सामने आएगा कि अनेकों में तो कभी पानी की एक बूंद भी नहीं पड़ी।
कुओं, परंपरागत जल स्रोतों, वाटर पाइंट, नहर, डिग्गियां, जल योजनाएं होने के बाद भी जल की आपूर्ति टैंकरों से क्यों। इससे भी बड़ी बात यह कि आजादी के इतने सालों के बाद भी पीने के पानी का प्रबंध क्यों नहीं। नहरों में जब पानी चलता है तब जल स्त्रोतों को लबालब क्यूं नहीं किया जाता। आदमी तो आदमी बेजुबान पशुओं को भी हर वर्ष गर्मी में पानी के लिए तरसना पड़ता है। अनेक जल योजनाओं को बिजली नहीं मिलती, कारण चाहे बिल अदा न करने का ही क्यूं न हो। गांवों की जल योजनाओं का एक बार पूरा परीक्षण व संरक्षण हो जाए तो पानी की यह किल्लत गर्मी में न उठानी पड़े। पानी की तरह यहां के लोग भी गहरे हैं इसीलिए शांत है मगर जिस दिन उनमें जज्बा आ गया तो उफान आते भी देर नहीं लगेगी। युवा शायर मोहम्मद इरशाद का शेर- सहरा की प्यास है ये बुझाएं तो किस तरह, बादल तो आवारा थे गरजते चले गए। यहां की प्रकृति और पानी की जरूरत को बयां करता है। कम वर्षा से तालाब, बावडिय़ां, कुंड भरते नहीं इस हाल में राज का ही सहारा तो रहता है, उसे तो सर्दी में ही गर्मी का सोच लेना चाहिए। स्थायी हल के रास्ते भी इतने मुश्किल नहीं है उन पर भी काम करना चाहिए।
सब कुछ इसी माह क्यों!
मार्च का महीना कुछ के लिए बड़ा खास होता है। 31 मार्च तक इस वित्तीय वर्ष का बजट खर्च करना होता है ताकि अगले साल लेप्स न हो। पहले तो यह काम स्थानीय निकायों, सानिवि जैसे उन विभागों में होता था जहां निर्माण के नाम पर बड़ा बजट होता है, अब तो अनेक सरकारी महकमे मार्च के फीवर की गिरफत में आ गए हैं। अंतिम दो दिनों में बकाया जमा कराओ तो छूट, काम हुआ या न हुआ हो बजट लेप्स से बचने के लिए भुगतान। ऐसे अनेक मामले हैं। इस बार शिक्षा विभाग में भी निर्माण का बजट अंतिम चरण में आया। चार दिन में पैसा लो और निर्माण कराओ। सरकार को चाहिए कि वो मार्च के केवल अंतिम सप्ताह का एक जायजा ले। रोचक तथ्य सामने आएंगे निर्माण होने और भुगतान होने के। भौतिक सत्यापन किया जाएगा तो कई कहानियां बन जाएगी। पर मार्च है, प्रेशर है, सब चलता है।
अधूरा सपना पूरा होने की राह पर
बीकानेर के कलाकार तीन दशक से रवीन्द्र रंगमंच के लिए संघर्ष कर रहे थे पर राज और काज मान ही नहीं रहे थे। आखिरकार इस साल इसका निर्माण शुरू हुआ है तो आशाएं एक बार फिर बलवती हुई है। एक तरफ जहां खुशियां हैं वहीं दूसरी तरफ कलाकार आराध्य की पूजा में भी लगे हैं। कारण, कहीं इस बार ग्रहण न लगे, काम न रुके।

गुरुवार, 25 मार्च 2010

दो दिन मेरे शहर में ठहर कर तो देखो...
धर्म धरा बीकानेर को छोटी काशी इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां हर किसी के दिल में संवेदनाओं का संसार बसा है। मानव या किसी भी जीव के प्रति प्रेम का सागर हिलोरे लेता रहता है। ऐसी धरा पर यदि मानव जीवन के मोल को नजरअंदाज किया जाए तो बात चिंता की है। जीवन के मोल को आदि से अब तक कभी तोला नहीं जा सका है उसे तो केवल महसूस किया जा सकता है। बीकानेर की बजरी का कोई मुकाबला नहीं और इससे अनेकों का पेट भी पलता है। शहर ने विस्तार लिया तो बजरी की खानें रिहायशी इलाकों के बीच आ गई। खनन भी इतना हो गया कि अब खानें भयावह हो गई है। शहर के लोग और जन प्रतिनिधि इस समस्या को अनेक बार उठा चुके हैं और जन हित के वाद भी सम्माननीय न्यायालयों में दायर हुए हैं। राजस्थान की बड़ी पंचायत विधानसभा में भी यह मसला गूंजा है।
आला अधिकारियों और खान विभाग को चाहिए कि इस समस्या से निजात दिलाए तथा जिन लोगों की इससे रोटी-रोजी जुड़ी है उनका भी प्रबंध करें। वैकल्पिक प्रबंध से किसी का नुकसान नहीं होगा और मानव जीवन भी रक्षित होगा। इस समस्या से निजात अब पहली आवश्यकता बना हुआ है जिसे अधिक नजरअंदाज किया गया तो परिणाम बुरे निकलेंगे। अवैध बजरी खनन की समस्या से अब शहर को छुटकारा मिलना चाहिए। वैकल्पिक प्रबंध इसलिए हो ताकि जान जोखिम में डालकर न तो कोई खनन करे और संभावित मानवीय क्षति भी रुके।
भगवान भरोसे ना रहे ट्रैफिक
बीकानेर के बारे में मशहूर है कि यहां का यातायात भगवान भरोसे चलता है। कुछ कमी प्रबंधन की है तो कुछ लोगों की फितरत आड़े आती है। ऐसा नहीं है कि पुलिस ने इसको सुधारने के कभी प्रयास नहीं किए। प्रयास कुछ तो आधे अधूरे रहे और कुछ लोगों का सहयोग नहीं मिला। नफरी भी इतनी कम है कि लोगों पर रोकटोक नहीं लग पाती। बीकानेर पश्चिम के विधायक ने विधानसभा में यहां यातायात पुलिस अधीक्षक की मांग उठाकर दुखती रग पर हाथ रखा है। यदि यह पद यहां होगा तो जाहिर है नफरी की भी कमी नहीं रहेगी। इस मायने में मांग वाजिब है। आए दिन होने वाली दुर्घटनाएं यही कहती है कि अब तो समस्या का निराकरण करो। कुछ लोगों को बदलना होगा तो कुछ यातायात पुलिस को भी अपनी पुरानी आदतें छोडऩी होगी। यह भी कम महत्त्व वाला मुद्दा नहीं है क्योंकि इससे भी सीधे-सीधे मानव जीवन जुड़ा है।
हर सांस हर शब्द में बोलता है मानव
मरहूम कवि और शायर अजीज आजाद की जयंती पर दो दिन बीकानेर में साहित्यधारा अविरल बही। उसने सबको डुबोया। मेरे घर में यदि सांपों का बसेरा होगा, ये हिंसा ही सही उनको कुचलना होगा, जैसी जांबाज भावना वाले इस शायर ने बीकानेर की माटी की गंध को अपनी रचनाओं में सुशोभित किया। यहां के लोगों की तहजीब, सलीके और संवेदना के तारों को अपनी रचनाओं में पिरोया। मेरा दावा है कि सारा जहर उतर जाएगा, तुम दो दिन मेरे शहर में ठहर कर तो देखो। सद्भाव, भाईचारे व इंसानियत के उंचे मानदंडों को भाव देने वाले इस शायर की याद दिलों में आज भी रची बसी है। हरीश भादानी, मो. सदीक और अजीज आजाद, साहित्य की इस त्रिवेणी के मन और रचनाकर्म में यहां का इंसान और इंसानियत ही बसी थी। उनकी याद जहां गौरवान्वित करती हैं वहीं बिछुडऩे के दर्द का अहसास भी कराती है।

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

हालात ए जहां और भी खराब...
प्रशासन शहरों की ओर क्या गया जैसे किसी ने बरसों से बने घाव को छेड़ दिया। यह शहर तंग गलियों में तंग साधनों के बीच जीने का आदी हो गया है क्योंकि यहां बसने वालों का दिल तंग नहीं है। कहने को तो सभी समस्याओं के मौके पर निदान का नारा लेकर सभी सरकारी महकमे लोगों के बीच गए हैं मगर हर शिविर की समाप्ति पर उसका तलपट देखा जाए तो नतीजा सिफर ही मिलता है। वर्षों से जिन समस्याओं के बीच लोग रहते आए हैं यदि उनको दूर करने का माद्दा नहीं है तो झूठी दिलासा देकर उनको बेदर्दी याद क्यूं दिलाई जाती है। न नियमन होता है न किसी नये निर्माण की स्वीकृति, फिर काहे का शिविर। लोग आते हैं आस से पर जाते हैं तो उनके पास निराशा के अलावा कुछ नहीं होता।
विरोध करने वाले भी अपना धर्म निभाते हैं वे भी विरोध के नारे लगा चले जाते हैं। दोनों तरफ से रस्म अदायगी हो रही है। हर जिले से मिल रही खबरों से यही लगता है कि सभी जगह एक ही ढर्रा है। पता नहीं इस तरह की दशा होने के बाद भी सरकार या उसके अधिकारी अपनी समीक्षा क्यूं नहीं करते। उनके जेहन में केवल कागजों में शिविर लगा देने की बात ही क्यूं है। आम आदमी या उसकी समस्याएं क्यूं नहीं है। बीकानेर की दशा तो इस मायने में बहुत ही खराब है। शिविर में आला अफसर तो जाना मुनासिब ही नहीं समझते जबकि सरकार के सामने कागजों में सफलता दिखा वाहवाही लूटने का काम करने से नहीं चूकते। अनेक बार हालात बिगड़े हैं और जनता व विभाग के कर्मचारी आमने-सामने हुए हैं इसके बाद भी शिविरों की गंभीरता को नहीं समझा गया है। यदि समस्याओं की फेहरिस्त वार्डवार बनाई जाए तो महकमों को एक साल का काम मिल जाएगा। लेकिन इतनी जहमत जब बड़े अधिकारी ही नहीं उठाते तो दूसरा क्यों ध्यान दे। प्रशासन शहरों के संग का अभियान कागजी ही बनाने की यदि सरकारी महकमों की मंशा थी तो उन्हें नाटक के मंच बनाने की भी क्या जरूरत थी। मंच बनाने में भी तो जनता का ही धन जाया होता है। अब भी देर नहीं हुई है, शिविरों की गंभीरता की समीक्षा होनी चाहिए। यदि यह काम सरकारी महकमे नहीं करते हैं तो जन प्रतिनिधियों को तो पहल कर एक निर्णय तक पहुंचना चाहिए। उनका भी पहला ध्येय पब्लिक ही है, उसे यूं अकेले छोडऩा सही तो नहीं है।
फिर दिखा शहर एक
मरहूम शायर अजीज आजाद ने कहा है- मेरा दावा है सारा जहर उतर जाएगा, दो दिन मेरे शहर में ठहर कर तो देखो। इसी तरह दिवंगत कवि मोहम्मद सदीक ने भी लिखा- आपको सलाम मेरा सबको राम राम, रे अब तो बोल आदमी का आदमी है नाम। इस बार ईद मिलादुन्नबी और होली की समीपता ने फिर दिखाया कि यहां का बाशिंदा अपनी परंपरा और संस्कृति को नहीं भूला है। उस पर नाज करता है और मौका मिलने पर उसका इजहार भी करने से नहीं चूकता। दोनों त्योहारों पर दिखा सोहार्द्र व जोश कहने को मजबूर करता है कि शहर एक है।
जाना मखमूर सईदी का
उर्दू अदब का बड़ा नाम है मखमूर सईदी। बीकानेर के अनेक मुशायरों और कवि सम्मेलनों में वे आए और अपने उर्दू अदब से उन्होंने प्रभावित किया। उनके शेर व गजलें जीवन के गहरे अनुभवों से दो-चार कराते हैं। बीकानेर में उर्दू शायरी का माहौल है जिसने इस शायर को पूरा मान दिया। उनका जाना एक बड़ी दुर्घटना है। उर्दू शायरी की बड़ी क्षति है।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

अबकी बारी सरकार की
नगर निगम साधारण सभा की दूसरी बैठक भी बुधवार को बिना किसी शोरगुल के विकास के नाम पर एक राय से हो गई। पहली बैठक की तरह इसमें भी विपक्षी पार्षद दल ने मेयर को अपना सहयोग विकास के नाम पर दिया। आमतौर पर समितियों के गठन में महत्त्वाकांक्षी पार्षद अपने नाम की चाह को लेकर कभी एक राय नहीं बनाते। प्रदेश में बीकानेर एकमात्र ऐसा उदाहरण है जहां निगम के निर्णय इस बार सर्वसम्मति से हो रहे हैं। भाजपा पार्षद उम्मेदसिंह व मेयर भवानीशंकर शर्मा की बात अपने में कई मायने रखती है। इन दोनों का कहना था कि सभी पार्षद जनादेश का सम्मान कर एक राय बना रहे हैं जो स्वस्थ लोकतन्त्र का संकेत है। बीकानेर की जनता, दोनों दलों के पार्षद व निगम के कर्मचारियों ने पहल कर विकास के प्रति अपना समर्पण दिखा दिया, अब बारी सरकार की है। सारी बात उसके पाले में है।
निगम की आर्थिक दशा बदतर है जिससे विकास रुका हुआ है। केन्द्र प्रवर्तित योजनाओं की धनराशि के उपयोग के लिए निगम ने ऋण लेने का साहसी निर्णय किया जिसमें विपक्ष ने भी सहमति व प्रतिबद्धता जताई। ये बात अपनी जगह है पर इस निर्णय का सरकार को भी सम्मान करना चाहिए। राज्यों, समाजों, क्षेत्रीय जरूरतों को वरीयता देते हुए विशेष आर्थिक पैकेज देने की परंपरा देश के लोकतन्त्र का हिस्सा है उसका उपयोग राज्य सरकार को भी करना चाहिए। जिन निगमों की दशा खराब है उनको एकबारगी विशेष पैकेज देकर आर्थिक रूप से संबल किया जाना चाहिए ताकि वे बाद का रास्ता अपने बूते तय कर सकें। सरकार ने यदि अपनेपन व बड़प्पन का भाव नहीं दिखाया तो बीकानेर में बनी एकता तीखे तेवर भी दिखा सकती है। शहर के विकास पर जब आमजन एक हो जाए तो सरकारों को संभल जाना चाहिए और जन अपेक्षाओं को नज़रअन्दाज करने की वृत्ती भी छोड़नी चाहिए। निगम पार्षदों ने एक राय बना अपनी चाह दर्शा दी है अब उसे अमलीजामा पहनाने की जिम्मेवारी सरकार की है।
एक सपना तो हुआ पूरा
बीकानेर में वेटेरनरी विवि खोलने की घोषणा को अमलीजामा पहनाने की प्रक्रिया शुरू होना यहां के लिए एक बड़ी सौगात है। इस विवि का सपना लोगों ने एक दशक पहले देखा था क्योंकि कृषि के बाद यहां का जनजीवन सबसे ज्यादा पशुपालन पर केन्द्रित है। कैबीनेट ने इस पर मुहर लगा इस संभाग का एक सपना पूरा किया है जिसके सार्थक परिणाम प्रदेश के पशुपालकों को मिलेंगे। बस ख्याल इस बात का रखा जाना आवश्यक है कि विवि को साधनों की कमी नहीं होनी चाहिए। महाराजा गंगासिंह विवि की तरह साधनो की तंगी न रखे सरकार। इस विवि के खुलने की बात के साथ यहां की जनता की एक टीस अभी बाकी है जो उसे साल रही है, वह है केन्द्रीय विवि की। व्यास समिति की सिफारिश के अनुसार उसकी स्थापना यहां का बड़ा सपना है जिससे छेड़छाड़ सहन नहीं होगी।
नारे तो करें सार्थक
लंबी प्रतीक्षा के बाद आखिरकार प्रशासन शहरों के संग अभियान आरम्भ हुआ मगर लालफीताशाही ने सारे अरमानों पर पानी फेर दिया। न नियमन हो रहा है, न निर्माण की स्वीकृति, न अधिकारी बात सुन रहे हैं न मिल रहे हैं। केवल खानापूर्ति कर हर दिन की प्रगति रिपोर्ट जारी कर दी जाती है। शिविर के नाम पर जो काम हो रहे हैं वे तो आम दिनों में भी आसानी से हो सकते हैं। सरकार अपने कारिन्दों की रिपोर्ट पर भरोसा करने के बजाय ग्राउण्ड रिपोर्ट का पता करे तो उसे अभियान शुरू करने के निर्णय पर पछतावे के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

नरेगा से आगे भी है पंचायती राज
शहर के बाद गांव की सरकार भी बन गई। जीवन से जुड़े मुद्दों को दरकिनार करके लोगों ने एक बार राज की कड़ी से कड़ी जोड़ी है। लोक सभा से लेकर अब तक ग्रामीण मतदाता को लुभाने के लिए नरेगा का लाभ उठाया गया है पर गांव का विकास इसी तक सीमित नहीं है। नरेगा से आगे भी जाने की जरूरत है।
गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन व संचार का वो विकास नहीं हो सका है जिसकी हर ग्रामीण को दरकार है। स्कूलों में बच्चे रहते हैं पर शिक्षक नहीं, बीमारी हरेक को आती है पर भागकर शहर आना पड़ता है। कई गांव ऐसे है जहां दिन में एक बार बस जाती है और एक बार ही वापस शहर की तरफ आती है। सूचना तन्त्र तो पूरी तरह गड़बड़ाया हुआ है। सामारिक दृष्टि से बीकानेर अति संवेदनशील है जहां ग्रामीण सेना के साथी बनने का काम करते हैं। इसलिए बीएडीपी की यहां बड़ी जरूरत है जिसके लिए विशेष योजना बननी समय की आवश्यकता है। गांव की सरकार से इस बार वहां के लोगों ने आस अधिक लगाई है इसलिए उसे केवल नरेगा तक ही सीमित मान लिया गया तो असन्तोष को कोई रोक नहीं सकेगा।
इसके अलावा ग्रामीण सबसे अधिक परेशान भ्रष्टाचार से है, हर कहीं उसे इसका शिकार होना पड़ता है। नरेगा के भ्रष्टाचार की कहानी तो अब सार्वजनिक होने लगी है। कालिख से निकलकर रोजगार की गारंटी पूरी करने वाला मुखिया ही आशाओं को पूरा कर सकेगा। आधी से अधिक आबादी गांवों की है इसलिए इस सरकार की जिम्मेवारी भी ज्यादा है। पंचायती राज को शिक्षा के अधिक अधिकार इसलिए दिए गए ताकि साक्षरता का प्रतिशत बढ़े पर इतिहास गवाह है कि गांव की सरकार ने इसका पूरा लाभ नहीं उठाया। राजनीतिक आधार पर तबादले के डण्डे से शिक्षकों को प्रताड़ित करने का ही काम किया गया। हालत यह हो गई कि शिक्षक अब गांवों में लगने से कतराने लगे हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य को पूरी तरह राजनीति से मुक्त रखने का सरकार का दायित्व है क्योंकि इनका सीधा जुड़ाव जनता से है, इस परिपाटी को सुधारने की आस इस बार जगी है जिसे मुखियाओं को पूरा
करना चाहिए।
बीकानेर में बनी गांव की सरकार ने इस बार कई राजनीतिक उलटफेर किए हैं जिसको इस अर्थ में लिया जाना चाहिए कि कुछ नया चाहा गया है, यदि इसे पहचाना नहीं गया तो यही वोटर आने वाले समय में दूसरा रंग दिखा सकता है। एक तरफ जहां गांव की सरकार ने नई संभावनाओं के द्वार खोले हैं वहीं कांटों का ताज भी पहनाया है, इसके बीच रास्ता कैसे निकलता है यह देखने की बात है।
चलेगा क्या गोडा एक्ट?
पंचायत राज में जहां सरकार के बनाए अपने एक्ट हैं और उनसे काम भी चलता है मगर बीकानेर में एक मोखिक एक्ट भी है, गोडा एक्ट। इस एक्ट के बारे में वे ही मुखिया जानते हैं जो गांव की सरकार से वर्षों से जुड़े है। इस बार जब उनसे इस मौखिक एक्ट के बारे में पूछा गया तो वे बोले, भाया जद सरकारी बाबू अर अफसर काबू नहीं आवे- काम करण में आनाकानी करे तो फेर गोडा एक्ट रो उपयोग तो करणों ही पड़े। जनता री भलाई खातर ओ ऐकट तो हमेशा ही चालसी-चालणो भी चाइजे। जय हो पंचायत राज री।
म्हारा बेली समपटपाट .......
राजस्थानी कवि मोहम्मद ने अर्से पहले कविता लिखी थी- म्हारा बेली समपटपाट, म्हें थनै चाटूं तूं म्हने चाट। प्रशासन शहरों के संग अभियान में आजकल वैसा ही हो रहा है। सरकार व उसका अमला एक दूसरे को अभियान की प्रगति के कागज देकर वाह-वाह, वाह कर रहे हैं। आम आदमी अब तक तो इस अभियान से जुड़ ही नहीं पाया है। केवल नगर निगम तक अभियान को सीमित कर पूरा दिन बिता दिया जाता है। विधवा पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन, बिजली कनेक्शन आदि के काम तो सुने ही नहीं जाते। नियमन की बातें तो वर्षों से शिविरों के बजाय बन्द कमरों में ही होती है। जिस ध्येय से यह अभियान आरम्भ किया गया वो तो अंश मात्र भी पूरा होता नहीं दिखता। इस अभियान की समीक्षा समय की मांग है नहीं तो यह भी केवल सरकारी नारा बनकर रह जाएगा जिसकी केवल इबारतें ही दिखेगी धरातल पर तो नजारा कुछ अलग ही होगा।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

आओ मिलकर फिर हम करें रस्म अदायगी!
एक बार फिर कागजी जोशो-खरोश से जनता की समस्याओं के निराकरण के लिए प्रशासन शहरों के संग अभियान शुरू हुआ है। पहले की ही तरह दावा किया गया है कि आधारभूत समस्याओं का अधिकारी मौके पर ही समाधान करेंगे। रस्मी तरीके से मन्त्रीजी ने उद्घाटन किया, तंबू लगे, कर्मचारी बैठे और समय मिला तो कुछ देर अधिकारी भी बैठ गए। रस्म की तरह चल रहा है अभियान, राहत कितनी मिली इस सवाल का जवाब पूछना मना है। अभियान के बाद कागज जारी कर बता दिया जाएगा कि किस विभाग ने कितनी उपलब्ध हासिल की। जनता भी इस रस्म अदायगी को समझ गई है इसलिए अपना वक्त जाया नहीं करती। जिनको विरोध करना होता है वे जाते हैं और अपना काम कर चल देते हैं। जिस सरकारी महकमे को इस नाम पर जो काम करना होता है उसको कर देते हैं, कोई रोकता नहीं क्योंकि अभियान का बहाना जो है।
वही शहर है, वही लोग हैं, वही समस्याएं हैं- फिर जनता के संग जाने की जरूरत कैसे हुई। मतलब ये कि आम दिनों में इनका संग जनता को नहीं मिलता। रोजमर्रा में जनता की आम समस्याएं हल भी नहीं होती तभी तो अभियान चलाया जाता है। वही अधिकारी व कर्मचारी हैं जो ऑफिसों में रहते हैं और काम को लटकाते हैं उनसे यह उम्मीद कैसे करें कि वे अभियान के एक दिन में समस्याओं से निजात दिला देंगे। सरकार के पास तो केवल कागज जाना है जिस पर उसे इतरने का अवसर मिल जाएगा। जनता को तो हर बार की तरह ठगे हुए ही रहना पड़ेगा। इस अभियान के अब तक के शिविरों में आला अधिकारी तो न के बराबर उपस्थित रहे हैं इस हालत में यह कैसे उम्मीद करें कि जटिल समस्याओं का हल निकल रहा है। आलीशान कमरा, रूम हीटर, कर्मचारियों की हाजिरी इन सबको छोड़कर अधिकारी किसी सामुदायिक भवन या स्कूल के साधारण से हॉल में जाएं तो भी कैसे जाएं। यदि सरकारी महकमे के लंबरदार संवेदनशील रहकर हर दिन की समस्याओं का निदान मेरिट पर करते रहें तो शायद ऐसे शिविरों की रस्म अदायगी करनी ही न पड़े।
हमें तो केवल वोट देना है
पिछले सप्ताह बीकानेर में सरकार के मुखिया और विपक्ष के मुखिया आए, ठहराव दोनों का ही 24 घंटे का भी नहीं था। हर बार की तरह बीकानेर के प्रति प्रेम, अनुराग, स्नेह बोलने में जताया पर देने के नाम पर कुछ नहीं। सरकार के मुखिया ने विपक्षी दल की बात सुनने के बजाय उनको नसीहत दे डाली। केन्द्रीय विवि के मुद्दे पर इस बात का जवाब नहीं दिया कि व्यास समिति की सिफारिश बीकानेर के लिए क्यों नहीं मानी गई उलटे यहां के सांसद को कह दिया कि आप यह मुद्दा संसद में उठाइए। दूसरी तरफ विपक्ष की मुखिया ने सूरसागर के नाम पर हल्ला मचाकर वोट तो बटोरे पर राज नहीं आया तो अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ लिया। जब उनसे इस समस्या के बारे में कहा गया तो उनका जवाब था यह काम तो सरकार का है। जनता सोचने को मजबूर है कि वोट देना ही उसका काम है क्या, जो वोट लेते हैं उनकी कोई जिम्मेवारी नहीं बनती क्या। हां यह हो सकता है कि राज और विपक्ष के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं पर वोटर के लिए उनकी जिम्मेवारी तो बनती ही है।
सपना साकार तो हो
16 साल बाद एक बार फिर कलाधर्मियों के सपने को धरातल पर उतरने का अवसर मिला है। अधूरे पड़े रवीन्द्र रंगमंच को बनाने की प्रक्रिया आरम्भ हुई है। शहर की पहचान का यह मुद्दा राजनीतिज्ञों के लिए कितना गौण रहा इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसका निर्माण बन्द होने या अधूरा पड़े रहने का मलाल किसी को नहीं था। राजनीति या व्यक्ति बिना संस्कृति-साहित्य के कोई आकार ही नहीं लेता उसके बावजूद इसी को हाशिये पर रखना एक आदत सी बन गई है। राज के सारे काम राज बदलने के बाद लाइन पर आ गए, यार्ड में खड़ी है तो केवल साहित्य-कला-संस्कृति की गाड़ी। इसको हरी झण्डी दिखाने की फुरसत शायद मिल नहीं रही।
भूखे पेट भजन न होय गोपाला
यह पुरानी कहावत है। सरकार ने निगम बना दिए और महापौर का चुनाव भी सीधे वोटों से करा दिया। खरीद-फरोत का बाजार बन्द हो गया। इस हालत में जनता की अपेक्षाएं भी बढ़ गई जिनको पूरा करने के लिए धन चाहिए। निगम की डोलती आर्थिक स्थिति को सुधारने की पहल भी सरकार को करनी चाहिए। इसमें महापौर या पार्षदों का भला नहीं है, शहर का भला है। निगम को राजनीति व राज का पहला पायदान माना जाता है यदि उसके प्रति ही सरकार संवेदनशील नहीं हुई तो फिर तेवर तीखे होने स्वाभाविक है। शहर निगम की हालत जानता है इसलिए गेन्द सरकार के पाले में है उसे यह भूलना नहीं चाहिए।

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

आते-जाते रहेंगे या ठहरेंगे भी वीआईपी
मरूभूमि की यह छोटी काशी आजादी के 62 साल बाद भी आशाभरी निगाहों से वीआईपी के आने-जाने को देख रही है। अनेक आए, वादे किए और आश्वासन दिए मगर इस धरती की बात नहीं सुनी। जो कहा वो किया या नहीं, इसका भी मूल्यांकन नहीं किया। एक बार फिर राज बुधवार रात बीकानेर आया, शहर फिर अपने हक, अपनी अस्मिता, अपने वजूद पर बहुत कुछ कहना-जानना चाहता है। बात अवसर की है, शायद इस बार भी जनता को वो नहीं मिले। उत्तर भारत का नायाब हार्ट सेंटर गुरुवार को आरम्भ होगा जिसका श्रेय राज भले ही ले मगर स्थानीय उद्यमी परिवार का उसमें पहला व बड़ा योगदान है। इस सेंटर से शहर की साख बढ़ेगी जो सुविधा के साथ पहचान दिलाएगी इसमें कोई सन्देह नहीं।
शहर अब भी हाइकोर्ट बेंच, केन्द्रीय विवि, ओवर ब्रिज, शहर को दो भागों में बांट रहे रेलवे फाटकों, रवीन्द्र रंगमंच, महाराजा गंगासिंह विवि की सुदृढ़ता, वेटेरनरी विवि की शुरुआत जैसे अनेक मसलों पर राज की राय और नीयत जानना चाहता है। यहां पानी जितना गहरा है उतने ही यहां के लोग भी गहरे हैं पर उनके सब्र का पैमाना अब छलकने लगा है। व्यास समिति की सिफारिश के बाद भी केन्द्रीय विवि पर बना असंशय शहर को सहन नहीं हो रहा। विकास के सन्तुलन की बात तो कही जाती है पर हर बार बीकानेर संभाग को क्यों नज़रअन्दाज किया जाता है, यह मलाल हरेक के मन में है जो अब तीखे तेवर में बदलने लगा है। शहर क्या पूरा संभाग अपने हक के लिए दलीय सीमाएं तोड़कर एक मंच पर आया फिर भी उपेक्षा मिली उससे तिलमिलाहट होना स्वाभाविक है। एक बार फिर सरकार के मुखिया बीकानेर में है तो आशाएँ बलवती हुई है यदि उन पर गौर नहीं हुआ तो पनप रही विरोध की चिंगारी को हवा मिल जाएगी। संभाग के लोग एक सुर में आजकल गाने लग गए हैं-
हम होंगे कामयाब,
मन में है विश्वास पूरा है विश्वास।
इसके मायने समझ लिए जाने जरूरी है।

निगाहें दूसरे वीआईपी पर भी है
गुरुवार को दूसरी वीआईपी राज्य की पूर्व मुखिया भी शहर में रहेंगी। ऐसा नहीं है कि इस पर जनता की नज़र नहीं है यहां भी उसके दिमाग में सवाल है जो उत्तर तलाशेंगे उनके दौरे से। एक साल बीत गया चुनाव हुए, शहर या शहर के लोगों की कितनी सुध ली गई इसका लेखा-जोखा शायद जनता के पास ज्यादा है। सूरसागर झील, चौड़ी सड़कें, नई रोशनाई सहित कई काम हुए पर उनकी सुध ली गई या नहीं यह भी यहां के लोग जानते हैं। राजनीतिक दुराग्रह-पूर्वाग्रह नेताओं व दलों के बीच का पावर गेम है पर उसमें जनता को नज़रअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए। यह भी गफलत नहीं होनी चाहिए कि इससे आम नागरिक अन्जान रहता है। उसकी पैनी निगाह सब देखती है, सब जानती है। तभी तो कहा है- ये पब्लिक है ये सब जानती है।
ये कैसी संवेदनशीलता
गणतन्त्र दिवस पर साहित्य-कला-संस्कृति-समाज सेवा जैसे क्षेत्रों के लोगों को सम्मानित करने का मसला इस बार फजीहत बन गया। आश्चर्य इस बात का है कि यह काम इस बार प्रशासनिक हलके से हुआ। न्यास की पुरस्कार समितियों में क्षेत्र के सम्मानितों के साथ प्रशासनिक लोगों को शामिल करना न तो संवेदनशीलता का परिचायक है नहीं पारदर्शिता का। दुख तो इस बात का हुआ कि प्रशासनिक गीत गाने वाले लोगों के एक समूह ने इस अविवेकी निर्णय की पैरवी भी शह पर शुरू की, शेम। इन क्षेत्रों में दखलअन्दाजी की कोशिश का यह पहला नमूना था जो कोई भी शालीन नागरिक सही नहीं मानता। राज्य के मुखियाजी के संवेदनशील व पारदर्शी शासन की बात की ताईद भी नहीं करता। इस विवाद से सृजनधर्मी समाज आहत हुआ है जिसके बुरे परिणाम तो आने वाले समय में मिलेंगे। शायर नदीम ने कहा भी है-
शहर में हरसू तेरे ही चर्चे है जालिम, कोई तो बताए कौन किस दाम बिका है।

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

आज अपने बाजुओं को देख, पतवारें न देख...
साझा चूल्हा, साझी सीर और साझा सपना जैसी बातें पतनशील राजनीति में सोचना भी पाप है मगर नगर निगम की साधारण सभा की बुधवार को हुई बैठक ने इस सोच को गलत सिद्ध कर दिया। उपभोक्तावादी संस्कृति में जहां मानवीय मूल्य अस्मिता के लिए झूझ रहे हैं वहां राजनीतिक मूल्यों का ऐसा जानदार नजारा मिले तो आश्चर्य तो होता ही है। जनता से पहली बार सीधे महापौर चुने गए, लगा सरकार का निर्णय सही है। महापौर व पार्षदों के मध्य का ऐसा रिश्ता एक मिसाल है जिसे कोटा, जयपुर व जोधपुर के निगम को बताया जाना चाहिए। किसी काम में झगड़ा नहीं- केवल विचार मन्थन, विरोध की जगह विकास की बात, पक्ष विपक्ष की पारंपरिक राजनीतिक दूरियां नहीं, पता नहीं ऐसे कितने ही रिकार्ड आज की निगम साधारण सभा में बने। साझी राजनीति की एक नई डगर पर जाने की शहर ने कोशिश की है जो भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है। जिन लोगों ने अपने पार्षद व महापौर को चुना उनको भी पहली बार एक नए शुकुन का अहसास हुआ है, नई आशा बंधी है।
मूलभूत आवश्यकताओं के लिए जदोजहद करने की आदत से आहत लोगों को लगा है कि अब शहर की सरकार उनके द्वार तक अपने आप पहुंचेगी। इस माहौल का जितना श्रेय नए महापौर व उनके दल को दिया जाना चाहिए उससे कहीं अधिक श्रेय विपक्षी दल के पार्षदों को दिया जाना चाहिए। जिन्होंने सच्चे मन से महापौर को अपने परिवार का मुखिया मान उसमें विश्वास जताया। निगम नेतृत्व की इससे जिम्मेवारी बढ़ गई है क्योंकि पार्षद के साथ आम लोगों का विश्वास भी उनसे जुड़ा है। मामला विश्वास का है इसलिए रिश्ता नाजुक बन गया है अब यदि संवेदना के तार में कहीं चोट पहुंची तो मन टूटेगा। जो शायद कोई नहीं चाहता होगा।
निगम में नए पार्षदों ने जिस परिपक्वता को दर्शाया वो कल्पना से परे था। संभागीय मुख्यालय होने के बाद भी यह शहर अभी विकास से कोसों दूर है। दो सड़कें चौड़ी होने पर ही यहां का बाशिन्दा इतना प्रफुलिल्त हो जाता है तो सोचिए पूरा शहर वैसा हो जाएगा तो उसकी खुशी का ठिकाना भी नहीं रहेगा। बोर्ड का संकल्प स्व. दुष्यन्त की इन पंक्तियों की याद दिलाता है- एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख। अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह, यह हकीकत देख मगर खौफ के मारे न देख। वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे, कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।
अब सरकार की बारी
शहर की सरकार के मुखिया और उसके पार्षदों ने विकास के लिए कर्ज लेकर उसे चुकाने का मादा दिखा दिया अब तो बारी राज्य सरकार की है। पक्ष विपक्ष ने जताया कि वे विकास चाहते हैं, इसके लिए जो कर्ज लेंगे उसे चुकाने का मादा भी उनमें है। ऐसी सोच पहली बार सामने आई है। सरकारों की तरफ से हाशिये पर रखे जाने वाले बीकानेर ने एक नई अंगड़ाई ली है इसलिए अब राज का रवैया बदलने की चाह भी जगी है। आर्थिक रूप से कमजोर बीकानेर नगर निगम के लिए विशेष पैकेज अब बोर्ड नहीं यहां की जनता की मांग है जिसे माना ही जाना आवश्यक है। सरकार को समझना चाहिए कि यह शहर की बात है किसी दल या बोर्ड की नहीं। यदि इतनी साझी सीर के बाद भी नज़रअन्दाजी रही तो सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती है। बीकानेर के बारे में कहा भी गया है कि यहां जितना गहरा पानी है उतने ही गहरे यहां के लोग हैं इसलिए उनकी अस्मिता से कोई छेड़खानी नहीं होनी चाहिए। शहर विकास के लिए एक राह पर चला है तो सरकार को भी आगे बढ़कर हाथ थामना चाहिए तभी एक सुर निकलेगा और विकास की सरगम बजेगी। जय हो- नारा भी सार्थक होगा।

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

संदूक से वो खत तो निकालो यारों...
करोड़ों की सरकारी नजूल संपतियां को लेकर फाइलों का कारोबार अर्से से चल रहा है पर सम्पतियों का निस्तारण आज भी नहीं हुआ। जनता की गाढ़ी कमाई वाली ये इमारतें ग्रामीण इलाकों में है जिनको बेचकर करोड़ों कमाए जा सकते हैं और साथ में संभावित दुघटनाओं को भी रोका जा सकता है। सरकार में कहते हैं फाइल नौ दिन में अढ़ाई कोस चलती है जिसके कारण ही वांछित को न तो लाभ मिल पाता है और न ही शहर, प्रदेश का भला होता है। अनेक सरकारी योजनाएं इस कारण फलीभूत नहीं होती क्योंकि उनकी जानकारी आम आदमी तक को देने की जहमत सरकारी अमला नहीं उठाता। समाज कल्याण विभाग की योजनाएं तो केवल फाइलों में ही दम तोड़ देती है। सानिवि एक ऐसा महकमा है जहां जन संपतियां दर-दर की ठोकरें खाती है। इस विभाग का एक हिस्सा ऐसा है जहां मशीनें है और उनका किराया निजी मशीनों से कम है फिर भी ठेकेदार उनका उपयोग नहीं करते। लाखों की तनख्वाह वाले कार्मिक यहां काम करते हैं पर आमदनी सैकड़ों में भी नहीं होती। यह जिजीविषा की कमी का नतीजा ही है। शिक्षा विभाग महीनों से अपनी बेकार पड़ी सम्पतियों को बेचने की बात ही कर रहा है। नहर, जलदाय, वन आदि विभागों में भी बेकार पड़ी सम्पतियों की यही हालत है। जितनी तीव्रता वेतनमान पाने, अवकाश पाने में होती है उससे आधी ही यदि इन कामों को करने में हो जाए तो जनता के अरबों रुपए विकास में लग सकते है। कमजोर कानून और अधिकारियों पर लगाम न होने के कारण ही ऐसे हालात बने हैं। सुधार की कहीं से तो शुरुआत करनी ही होगी, किसी न किसी की जिम्मेवारी तय करनी पड़ेगी ताकि दंड विधान जो बने हुए हैं उनको लागू किया जा सके। जनता फरियादी की तरह अभी तो देख रही है जिस दिन उसने नजरें बदल ली तो राज और काज दोनों को भारी पड़ेगा। स्व। दुष्यंत का शेर हालात का सही बयां करता है- आज सीवन को उधेड़ो तो जरा देखेंगे, आज संदूक से वो खत तो निकालो यारों। रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया, इस बहकती दुनिया को संभालो यारों।
नहर कैसे बुझाएगी धरती व लोगों की प्यास
दुनिया की सबसे बड़ी मानव निर्मित परियोजना इंदिरा गांधी नहर का ध्येय थार मरूस्थल की प्यास बुझाना था पर अविवेकी निर्णयों से अब उस पर संकट खड़ा होने लग गया है। हर साल की तरह इस बार भी बीएफसी में नहर अभियंताओं व कार्मिकों के पद बड़ी संख्या में तोड़े गए हैं। नहर बन गई और सिंचित क्षेत्र खोलकर लोगों की उम्मीदें भी जगा दी गई। दूसरी तरफ पंजाब से पानी कम मिल रहा है जाहिर है इससे पानी के लिए किसानों में मारामारी है। पानी चोरी के जहां मुकदमें अधिक हो रहे हैं वहीं टेल के किसान की जमीन तो बिल्कुल प्यासी रह रही है। इस विषम स्थिति में सही जल वितरण कोई कर सकता है तो वो नहरकर्मी है पर दुर्भाग्य है कि हर बार इनकी संख्या ही कम की जा रही है। पूंजीवादी व्यवस्था की तरह असंतुलन बनाया जा रहा है। नहर को बजट कम और कर्मचारी भी कम, कैसे बुझेगी धरती और लोगों की प्यास।
केवल छुट्टी की परवाह
कड़ाके की ठंड ने लोगों का जीना मुहाल किया तो मजबूरी में स्कूल जाने वाले बच्चों की छुट्टियाँ की गई। छुट्टी के शौकीन शिक्षकों को यह कैसे सहन होता उन्होंने भी आवाज उठा अपने लिए यह लाभ ले लिया। कोई इनसे पूछे कि बच्चे तो रोज स्कूल आते हैं और पढ़ते भी हैं,वे ऐसा करते हैं क्या? कोई नेता मरे तो सरकारी कर्मचारी का दूसरे से पहला सवाल होता है, छुट्टी रहेगी क्या? सोचना होगा उनको जो ऐसा करते हैं।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

उनकी खता भी तुम्हारी नजर में खता नहीं...
एक बार फिर बीकानेर संभाग अपना हक पाने से वंचित रहेगा यह तय लगता है। व्यास समिति ने बीकानेर में केन्द्रीय विवि खोलने की सिफारिश की थी मगर उसे नजरअंदाज किया जा रहा है। इसी समिति ने जोधपुर में आईआईटी व उदयपुर में आईआईएम की सिफारिश की जिसे मान लिया गया। आश्चर्य है पद्म भूषण से सम्मानित अर्थशास्त्री की आधी सिफारिशें सही और आधी नहीं, किस पैमाने से उसको नापा गया। आदमी आधा सही और आधा गलत हो, यह कैसे संभव है। जाहिर है बात दूसरी है, खता कोई और है जिसकी सजा इस संभाग को मिल गई। राजनीतिक हैसियत और ताकत के बूते पर यदि शिक्षण संस्थान खोलने का निर्णय होता है तो फिर समितियां, सर्वे, आश्वासन जैसे अधूरे नाटक क्यूं खेले जाते हैं। भावनाओं और संवेदनाओं का मजाक क्यों बनाया जाता है। इस संभाग के लोगों के मन में व्यास समिति के जरिये एक भाव पैदा किया जिसने दलीय व जातीय सीमाएं तोड़कर सबके मनों को मिला दिया। उसके बाद भी बिना खता सजा देने की बात क्यूं हुई। क्या इस दर्द का कोई मरहम है, इस घाव का निशान कोई मिटा सकता है क्या। सत्ता के पैरोकार क्या आजादी के 62 साल बाद भी संकीर्ण क्षेत्रवाद की राजनीति के चक्रव्यूह में रहकर ही विकास के निर्णय करेंगे, यह यक्ष प्रश्न है। यदि इसका जवाब सत्ता के बाजीगरों ने नहीं दिया तो यहां के लोग उनको वक्त आने पर बिना खता की मिली सजा को याद दिलाने से नहीं चूकेंगे। समय का पहिया कभी स्थिर नहीं रहता, उसे तो ऊपर-नीचे होना ही पड़ता है। संभाग के लोगों के मन में एक दावानल है, सब्र का प्याला छलकने को तैयार है। समय आने पर शायद संवेदना अपनी अभिव्यक्ति देने में भी कोताही नहीं बरतेगी। केन्द्रीय विवि का सवाल इस संभाग की अस्मिता से जुड़ गया था, यह जानकर भी अन्जान बनने वाले पता नहीं किस गफलत में है। यहां के लोग गहराई से निकला पानी पीते हैं इसलिए शालीनता की परिधि में रहकर वो जवाब देते हैं, उनके चेहरों के भावों से इस बात का अंदाजा होता है कि इस सजा को वे खुद को दी गई चुनौती मान रहे हैं। अपनी सामर्थ्य से चुनौतियों का जवाब देना हर इंसान को आता है फिर ये तो पूरे संभाग के बाशिंदों की बात है। शायर नदीम की बात में जहां शराफत है वहां चुनौती का जवाब देने का जज्बा भी है-
रम्ज़ तुम्हारी भी नहीं समझा हूं मेरे दोस्त- फेंकते हो पत्थर शीशे के घर में रहते हो, उनकी खता भी तुम्हारी नजर में खता नहीं-मेरी मजबूरियों पर भी तुम सजा देते हो।
गरीब की रोटी का सवाल
एक बार फिर सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने गरीब की रोटी पर सवाल खड़े कर दिए हैं। आटे-दाल के वितरण के लिए डिपो थे और उसको पाने के लिए राशन कार्ड। महंगाई ने गरीब की थाली में सामान कम तो किया ही मगर उसको पाने के लिए भी लालायित कर दिया। राज्य में पहली बार दाल-आटा डेयरी के बूथों के जरिये बांटा जा रहा है जिन पर न तो रसद विभाग का नियंत्रण है न उपभोक्ता का। यदि खुले बाजार की प्रक्रिया को अपनाना ही है तो दो छोर क्यूं, राशन की दुकानें बनाए रखने का क्या औचित्य। उनके जरिये भी तो आम उपभोक्ता तक रसद का वितरण किया जा सकता है। यदि वे नाकारा हैं तो उनको इतने दिनों तक चलने क्यूं दिया गया। रसद विभाग की दोहरी नीति ने चीजों की उपलब्धता को मुश्किल किया है पर साथ ही कालाबाजारी के कई रास्ते भी खोले हैं। एक बार फिर सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर विचार की जरूरत हो गई है। यदि खुले बाजार को अपनाया गया तो चीजों के दाम बढ़ेंगे और कालाबाजारियों को मुनाफा होगा, इस हालत में गरीब को तो सस्ता रसद नहीं मिलेगा। यदि सच स्वीकारें तो पिछले पांच साल में घर-घर में गैस कनेक्शन हो गया फिर भी घरेलू केरोसिन की मात्रा बढ़ी है। कोई सोचता है कि इतनी खपत कैसे, कहां होती है। जाहिर है इसके लिए काला बाजार ही पनाहगाह है। उसे रोककर वितरण प्रणाली को सुदृढ़ करने की कोशिश क्यों नहीं होती। जानकारों का मानना है कि उपभोक्ता की जगह जब मुनाफे और बाजार को केन्द्र में रखा जाएगा तो यही परिणाम सामने आएंगे। हालात विकट हैं यदि इनकी आहट राज और काज ने नहीं सुनी तो आने वाला समय उनको कई बड़ी चुनौतियां देगा।