गुरुवार, 27 अगस्त 2009

आइये आंखें मूंद लें ये नजारे अजीब हैं...

बीकानेर के सभी 927 गांवों में अकाल है, अब तो सरकार ने भी मान लिया। खेत में फसल नहीं, खेळी में पानी नहीं, बल्ब में बिजली नहीं, नहर में रेत, हाथ में काम नहीं। इस बात को राज ने भी स्वीकार लिया और जिला अभावग्रस्त घोषित हो गया। चार माह से गांवों के लोग शोर मचा रहे हैं कि नहर में पानी नहीं मिलने से उनकी फसलें चौपट हो गई और बिजली नहीं मिलने से कुओं से पानी बाहर ही नहीं निकला। बिजली की मांग को लेकर जीएसएस से सब स्टेशन तक कब्जा कर विरोध जताया मगर समस्या हल करने के बजाय विरोध के पाळ बांधी गई। मूंगफली की फसल बर्बाद हो गई, बची फसल को पानी मिलता तो चारा हो जाता। बहस, आदेश व निर्देश के बाद तय हुआ कि अकाल है, गांव की आवाज पहले ही सुन ली जाती। अब तक तो केवल अकाल तय हुआ है उसके लिए राहत की बरसात होनी बाकी है। पता नहीं उसमें कितना समय लगेगा। तब तक इससे प्रभावित लोगों की सुध कौन लेगा, इसका जवाब मांगने पर भी नहीं मिलता। नरेगा हाथ में है तो उससे राहत तो दी ही जा सकती है। इंदिरा नहर से जुड़ी जमीनों के प्यासे रहने का मामला पेचीदा है ही इस बार तो बारानी की प्यास भी मानसून ने नहीं बुझाई। किसान को सरकार ने ब्याज माफी का तोहफा तो दिया मगर उसके सामने मूल किस्तें भरने का भी संकट है। काम की तलाश में गांव से लोग शहर की तरफ आए मगर यंहा भी बिजली ने बेबस किया हुआ है।
जन प्रतिनिधि इस मसले पर बोले हैं मगर सीमित दायरे में। अभी अकाल की घोषणा हुई है, फिर निर्णय होगा, सरकारी मुहर लगेगी और अकाल राहत कार्यों को शुरू करने का आदेश राज से काज को मिलेगा। उसके बाद ग्रास रूट पर राहत देने का काम आरंभ होगा। हर किसी को लगता है कि तब तक बहुत देर हो जाएगी। समय को जीतना ही शायद अकाल पर विजय का मूल मंत्र है, यहां तो समय से मुकाबला करने की पहल की प्रतीक्षा है। बंजर जमीन व प्यासे पशु देखकर किसान का मन विचलित हो रहा है। उसे दिलासा कैसे मिले क्योंकि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है। अभी तो हालात स्व. दुष्यंत के शेर की तरह है-
वो निगाहें सलीब है हम बहुत बदनसीब
है, आइये आंखें मूंद लें ये नजारे अजीब है

नहर एक पर निगाहें दो
इंदिरा नहर कहने को तो एक है पर उसके दो चरण है इसीलिए शायद दो निगाहें भी बन गई हैं। इस नहर को मिलने वाले पानी का 60 फीसदी पहले चरण को मिलना चाहिए और शेष 40 फीसदी दूसरे चरण को जिसमें बीकानेर आता है। नहर में पानी की कमी है और उस पर भी निगाहें न्याय नहीं कर रही। किसान बताते हैं और आंकड़े भी बोलते हैं, दूसरे चरण को पानी कम मिल रहा है। राज को सोचना चाहिए यदि इस निगाहों के फर्क को किसान ने पहचान तेवर बदल लिए तो हालात भी बदलते देर नहीं लगेगी। अकाल के इस दौर में किसान हर तरफ से थपेड़े झेल रहा है। इस पानी के मुद्दे पर यदि पलटवार कर दिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे।

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

कौन कहता है आकाश में छेद नहीं हो सकता...

बीकानेर में हाइकोर्ट की बैंच को लेकर एक हो रहे शहर ने पुरानी यादें ताजा कर दी है। अस्मिता के लिए सर्वस्व दांव पर लगा देने वालों के इस शहर ने एक बार फिर अंगड़ाई ली है। अपने हक के लिए समवेत स्वर से आवाज लगाई है। राजनीति, जाति, धर्म, समाज, सम्प्रदाय आदि के भेदों से परे हटकर जिस तरह से लोगों ने अपनी अस्मिता के इस संघर्ष में सहयोग का वादा किया वह यादगार था। हर क्षेत्र का व्यक्ति जोश में था और उसे लग रहा था कि उसका कुछ छीना जा रहा है। पहले शिक्षा में बीकानेर को कमजोर किया गया। रियासत विलिनीकरण के समय बीकानेर को शिक्षा की राजधानी बनाया जाना तय हुआ मगर राजनीतिक तौर पर निर्णय कर धीरे-धीरे यहां से कई कार्यालय जयपुर या अन्यत्र स्थानान्तरित कर दिए गए। केन्द्रीय विवि को लेकर जब तक अंतिम निर्णय हो हर किसी के मन में अकुलाहट है। हाइकोर्ट की बैंच का मुद्दा भी अब बीकानेर संभाग की नाक का सवाल बन गया है। इस हक के लिए संघर्ष के तेवर वाकई अचंभित करने वाले थे। राजनीति जब हाशिये पर जाती है तभी समाज के अन्य वर्गों को संघर्ष के लिए सड़क पर आना पड़ता है, यह बात अनेक वक्ताओं ने कही जो सही भी थी। हाइकोर्ट की बैंच बीकानेर में आने का लाभ वकीलों को नहीं मिलेगा वरन बीकानेर, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़ चूरू के नागरिकों को मिलेगा। यहां के लोगों को न्याय के लिए जोधपुर जाना पड़ता है उसमें समय धन काफी खर्च होता है। यह बात समझ में आने भी लगी है। सत्ता के विकेन्द्रीकरण की बात सही है, इसे प्रमाण की आवश्यकता नहीं रही। जब हम छोटे राज्य जिलों की वकालत करते हैं और उसके अनुसार निर्णय भी करते हैं तो यहां विकेन्द्रीकरण से परहेज नहीं होना चाहिए। सरकार को पश्चिमी सीमा के इस संभाग की आवाज सुननी चाहिए जिसके दूरगामी लाभ मिलेंगे। बार एसोसिएशन ने पहल कर इस मांग को मजबूती दी है उसकी अगुवाई में इसका निदान कराने में हर किसी को भागीरथी सहयोग करना चाहिए। राजनीति से परे हटकर जुड़ने की बात ही नहीं हो वरन वैसा ही व्यवहार भी हो। एक गुणीजन ने बताया कि जब हम अपने इबादत स्थल पर शीश नवाने जाते हैं तो अपनी चरण पादुकाएं बाहर छोड़कर आते हैं। ठीक इसी तरह इबादत की इस मांग और उसके लिए होने वाले संघर्ष में हमें मन भाव के साथ प्रवेश करना है, चरण पादुकाएं बाहर आकर वापस भले ही पहन लें। यदि इस भाव से बार एसोसिएशन के इस यज्ञ में शामिल हुए तो आवाज को दबाने या बात मानने की हिम्मत्त शायद राज करे।लेकिन एक बात है, संघर्ष बीकानेर संभाग का गहना है। अनेक जन आंदोलन इसके गवाह हैं। पर हमें अब अपने स्वभाव में युग के साथ परिवर्तन भी करना होगा। केवल संघर्ष नहीं, उसकी परिणति में अपना हक पाने की आदत भी डालनी होगी। संतोष ठीक है पर पूरा पाने पर ही संतोष करना होगा। यदि खाके-दायरे छोड़कर सभी एक जाजम पर आए हैं तो पूरी ताकत भी दिखानी होगी। ऐसी ही एकजुटता रही तो शायद बीकानेर संभाग अपना हक लेने में सफल होगा, उसे सम्मान देकर हक देना होगा। सोमवार को बार की बैठक में जो लोग वादा कर रहे थे उससे एक आशा बंधी है, बस बात सिरे चढ़ाने की है। बीकानेर की तरफ से उठी आवाज को चूरू, श्रीगंगानगर हनुमानगढ़ में भी समर्थन मिलने लगा है। इससे यह बात साबित होती है कि हरेक के मन में कशक है, बस अंगड़ाई लेकर बात तेवर दिखाने की है। स्व. दुष्यंत कुमार ने कहा भी है-
कौन कहता है आकाश में छेद नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

मैं एक समस्या अनेक


गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं

बलिहारी गुरू आपकी गोविंद दियो बताय

इस परंपरा को जीवन का हिस्सा बनाने वाले पसोपेश में है, गुरु को अब बड़ा कैसे माने। राज और काज ने गोविंद से बड़े गुरु को अब बेचारा बना दिया है। न उसका स्थान निश्चित रहा न काम, न विश्वास कायम रहा ना दाम। एक ही जैसा काम करने के बाद भी उसे अलग-अलग दाम मिलते हैं। विद्यार्थी मित्र, शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, पंचायत राज शिक्षक- पता नहीं शिक्षक के कितने प्रकार हो गए। हर एक अलग ओहदा, अलग काम और अलग दाम। आश्चर्य तो यह है कि समाज राज के इस बुरे व्यवहार को सहन कर रहा है, शिक्षक भी मजबूर है क्योंकि उसे पेट भरना है। शिक्षक के पास अब काम भी केवल पढ़ाने का नहीं रहा। पशुओं की उसे गणना करनी पड़ती है, मतदाता सूची बनानी पड़ती है, पोषाहार पकाना पड़ता है, स्कूल निर्माण कराना पड़ता है, सरकारी आदेशों की पालना में विभिन्न अवसरों पर रैली निकालनी पड़ती है। जनसंख्या वह गिने, चुनाव वह कराए, अकाल राहत कार्यों पर नजर रखे। कोई भी काम हो तो पहले पहल शिक्षक का नाम सरकार लेती है। जितने काम हैं उतने उसके तबादले के तरीके हैं, ऐसे तरीके देश में राजस्थान के अलावा किसी भी प्रदेश में नहीं है।समानीकरण, पातेय वेतन पदोन्नति, एडहोक पदोन्नति, राज्यादेश, वाइसवरसा, राज्य की इच्छा पर, न्यून परिणाम रहने पर, शिक्षण व्यवस्था आदि तरीकों से यहां शिक्षक का तबादला किया जाता है। इसी कारण प्रदेश की शिक्षा प्रयोगशाला बनी हुई है पर ऋणात्मक पहलू है कि प्रयोग नेता कर रहे हैं, परिणाम की कल्पना की जा सकती है। इन दिनों समानीकरण का फंडा चल रहा है। सैकंडरी स्कूल में पांच कक्षाएं तो पांच ही शिक्षक, कोई बताए कि छह विषय पांच शिक्षक कैसे पढ़ाएंगे। प्रशासन कौन चलाएगा, खेल गतिविधियां कौन संचालित करेगा। समानीकरण तब किया जाता है जब कक्षाओं के अनुसार शिक्षकों के पद हों और उससे अधिक शिक्षक स्कूल में हो। प्रदेश की एक भी ऐसी स्कूल नहीं जहां नार्म्स अनुसार शिक्षक पद हों। इसके बावजूद समानीकरण करने का डंडा चलाया जा रहा है। जाहिर है स्कूलों की शिक्षण व्यवस्था चौपट होगी ही, शिक्षक प्रताड़ित होकर संघर्ष की राह दौड़ेगा। राज-काज को यह समझ नहीं आ रहा क्योंकि उसका नुकसान आम आदमी को होगा, उसके बच्चों की पढ़ाई चौपट होगी। शिक्षक लामबंद हो रहे हैं, यदि राज तक विभाग ने यह बात नहीं पहुंचाई तो उसे लेने के देने पड़ेंगे।

कई हैं गुदड़ी के लाल

सांस्कृतिक नगरी बीकानेर ने इस बार चार दशक से नाट्यकर्म कर रहे डॉ. राजानंद भटनागर का सम्मान किया। दो दिन उनके रंगकर्म पर विचार किया। जोधपुर से आए मदन मोहन माथुर ने जब उनके नाटकों का बड़ा आयाम बताया तो आम दर्शक तो दूर रंगकर्मी भी अचंभित रह गए। माथुर के पत्र वाचन से यह निष्कर्ष निकला कि बीकानेर का रंगकर्म राष्ट्रीय फलक पर अपनी बड़ी पहचान लिए हुए है। इस नगरी में कई गुदड़ी के लाल हैं। डॉ. नंदकिशोर आचार्य को दो दिन सुनना यहां के सृजनधर्मियों व रंग प्रेमियों के लिए सुखद रहा। उन्होंने प्रयोग को नए अर्थों में परिभाषित कर रंगकर्म को एक नई दृष्टि दी है जिस पर आने वाले कई नाटकों की दिशा तय होनी निश्चित है। समवेत ने एक शानदार प्रयास किया जिससे नगर की साहित्यिक गतिविधियों को नया आयाम मिला।

अब तो ध्यान धरो प्रभु

बिजली की कटौती को लेकर अब तो हर कोई आजिज है। एक से चार घंटे तक की घोषित व दो घंटे की अघोषित कटौती ने लोगों की दिनचर्या को पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर दिया है। न दिन को चैन न रात को आराम। सरकार है कि बिजली कटौती बंद करने या अवधि कम करने के बजाय बढ़ाने में लगी है। ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ। बुजुर्ग रामलालजी कहते हैं कि इतने लंबे समय तक इतने समय की बिजली कटौती तो पहले कभी नहीं हुई। लोगों ने बिजली महकमे के अभियंताओं को घेरा, जाम लगाए, प्रदर्शन किए पर पार नहीं पड़ी। हारकर चुप हो गए, अब तो प्रभु से ही अरदास कर रहे हैं। हे प्रभु, अब तो ध्यान धरो। ऐसे हालात राज और काज के लिए अच्छे तो नहीं माने जा सकते। यदि यही हालत रही तो ढेर के नीचे सुलग रही चिंगारी कोई बड़ा आंदोलन खड़ा कर देगी।

सोमवार, 17 अगस्त 2009

प्रतीकों के जरिये जनता तक पहुंचते हैं डॉ राजानंद भटनागर

डॉ नेमीचंद्र जैन के एक वाक्य से मैं अपनी बात आरंभ करना चाहूंगा। भोपाल में आल इंडिया स्ट्रीट प्ले वर्कशाप एंड फेस्टिवल में उन्होंने कहा था कि रंगमंच वो निकाय है जिससे गुजरे बिना कोई नाटक पूर्णता प्राप्त नहीं करता। जो मंच पर खेला जा सके वही नाटक है बाकी तो एक साहित्यिक कृति से अधिक कुछ नहीं है। नाटक तभी छपना चाहिए जबकि वह रंगमंच की कसौटी पर मंचन के जरिये परखा जा चुका हो। आधुनिक रंगमंच के उदयकाल को लेकर संशय या मतभेद हो सकते हैं मगर इस रंगमंच ने नाट्य सोच विचार को एक नई दिशा दी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के भारत दुर्दशा अंधेर नगरी को लोग आधुनिक रंगमंच की प्रथम कृतियां मानते हैं, है या नहीं मैं इस विवाद में नहीं जाना चाहता पर इन नाटकों से रंगमंच और नाटक को लेकर एक नई बहस आरंभ हुई। आधुनिक रंगमंच के उदय में एकमात्र दिशा थी नाटककार की अपनी दृष्टि। आधुनिक रंगमंच ने अपने विकसित रंग शिल्प से, प्रस्तुतिकरण कला से यह सिद्ध कर दिया कि नाटक लिखना लेखक की अपनी एकांत कला नहीं है वरन नाट्यलेखन वस्तुतः नाटककार से प्रस्तुतकर्ता, निर्देशक की प्रतिभा की मांग करता है- वह अभिनेता की कला की सहज अपेक्षा करता है ताकि नाटक में निर्देशक अभिनेता को भी नाटककार की ही भांति अपनी-अपनी सृजनात्मक शक्ति की अभिव्यक्ति का अवसर क्षेत्र मिल सके। नाट्यकृति में रंग संभावनाएं इतनी व्यापक हों कि रंगमंच के सभी वर्गों को अपनी कल्पना और प्रतिभा दिखाने का अवसर मिल सके। इसी को हम कहेंगे समाज का रंगमंच, सब एक का रंगमंच। यह भारतीय रंगमंच का शुभ चरण था कि नाटककार अपने रंगमंच में आकर उसका अभिन्न अंग बन, अपनी लेखनकला को ह्दयंगम करने लगा। इससे यह कालजयी लड़ाई भी समाप्त हो गई कि लेखक के नाटक में निर्देशक कितनी छेड़छाड़ कर सकता है। इस विषय में हुए विवादों के किस्से हर रंगकर्मी जानता है। मैं यह सब इसलिए कह रहा हूं कि डा. राजानंदजी की उस नाट्य दृष्टि से आपको परिचित करा सकूं जो उन्होंने अपने रंगकर्म के आरंभ से अंगीकार की। पारसी और यथार्थवादी रंगमंच की खंडित होती इमारत को देखते हुए डा. साब ने अपना रंगकर्म प्रयोधर्मिता से आरंभ किया। ऐसे प्रयोग जो कथानक से लेकर नाट्य शैली तक में थे। मैं नाटक चीख का उल्लेख करना चाहूंगा जिसमें समस्या पारिवारिक थी सामाजिक, नितांत नया कथानक था। उस समय का कथानक था। युवा वर्ग के सामने आई चुनौतियों को इसमें स्वर दिया गया। एक व्यक्ति, एक परिवार, एक समाज की कहानी नहीं थी वरन एक समस्या की कहानी थी। जिसमें समस्या के पहलुओं को जहां खोलकर बताया गया वहीं उसकी परिणिति पर भी कटाक्ष किया गया था। आदर्शवादिता से दूर नग्न यथार्थ दिखाया, जिस पर कईयों ने असहमति भी जताई। मगर यथार्थ तो यथार्थ है, उसे स्वीकारें या उससे आंखें मूंद ले यह तो देखने वाले पर निर्भर करता है। डा. साब ने आंखें नहीं मूंदी वरन कई आंखों तक उस यथार्थ को ले जाने का माध्यम बने। इस प्रयोगधर्मी नाटक का मंचन भी एक नये तरीके का था। मकान की दीवारें थी ना पर्दे, कमरे की सज्जा वाले सामान। बस, इशारों से मंच सज्जा हुई और पूरा जोर अभिनय पर रहा। कथ्य और अभिनय ने मिलकर इस नाटक को बीकानेर की उल्लेखनीय प्रस्तुति बनाया था। मैं इसे बीकानेर की आधुनिक रंगमंच की एक यादगार प्रस्तुति के रूप में आज भी याद रखता हूं, वक्त आने पर इसका उल्लेख भी करता हूं। कथ्य और शिल्प, नाटक के यही तो दो महत्ती पहलू होते हैं, यह बीकानेर रंगमंच में स्थापित हो गया। आडंबर या जिसे नाट्य भाषा में ग्लैमर, तामझाम कहते हैं उससे दूर होने की बीकानेर रंगमंच ने सफल कोशिश की।प्रयोगधर्मिता इसके बाद तो डा. साहब के रंगकर्म का आधार बन गया। बेहिचक प्रयोग के जरिये नाटक लिखना और उनको खेलने का जो सिलसिला आरंभ हुआ वो तीन दशक तक अनवरत चला। इनके प्रयोगधर्मी नाटकों में सबसे बड़ी खासियत थी प्रतीकों के अवलंबन की। प्रतीकों के जरिये पात्रों की संरचना और उनकी दार्शनिकता को अभिव्यक्त करने की कड़ी चुनौती राजानंदजी ने स्वीकारी जिसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे। मैं उनके नाटकों की सूची देकर बात को लंबी नहीं करना चाहूंगा बस इतना भर कहना चाहूंगा कि इनके अधिकांश नाटकों में पात्रों के नाम नहीं है, वे व्यक्ति के रूप में पहचान लेकर दर्शक के सामने आते हैं। वे एक व्यक्ति या नाम का प्रतिनिधित्व करके एक समूह या विचार का प्रतिनिधित्व करते दिखते हैं। नाटक की यह विधा दिखने में जितनी सरल लगती है वास्तव में उससे कहीं अधिक कठिन है। प्रतीक का अपना सौन्दर्यशास्त्र है यदि उसकी पालना की जाए तो नाट्य कृति असफल होते भी देर नहीं लगाती। प्रतीकों के जरिये ही राजनानंदजी ने अपने कथानकों को अधिकांशतः जनता तक पहुंचाने का काम किया है। यहां में नाटक चौकियां कौन तोड़ेगा का जिक्र करना चाहूँगा जिसमें भी पात्रों की पहचान संख्या से है, नामों से नहीं। पर हर एक किसी किसी वर्ग और उसके विचार का प्रतिनिधित्व करता है। चाहे सत्ता हो या समाज, शक्ति हो या अर्थ, सबने अपनी चौकियां बना ली है और उसके लिए ही आम आदमी को हांकना चाहते हैं। अपनी चौकी को बड़ा करने के लिए हर कोई बड़ा गढ्ढा बना मिट्टी एकत्रित करने में लगा रहता है। प्रतिस्पर्धा इतनी है कि थकने के बाद भी काम रोक नहीं रहा। उससे पूछा जाता है तो वह कहता है उसके समीप वाला काम रोके तब मैं रोकूं ना। अंधी प्रतिस्पर्धा अहंकार की प्रतीक चौकियां जीवन के हर पहलू को प्रतीकों के जरिये खोलकर दशर्क के सामने रखती है। ऐसा नहीं है कि नाटक केवल ऋणात्मक सोच का निष्पादन करता है। अंत में चौकियां तोड़ गड्ढ़े को भरने पर भी सहमति होती है क्योंकि उन पर बैठे लोगों को अहसास हो जाता है कि हम तो कठपुतली बनते जा रहे हैं। चौकियां तोड़ने तक की हालत में होने वाली नाटक की समाप्ति इस बात को बल देती है कि समूह यदि एक सोच पर जाए तो हर मुश्किल के रास्ते निकल सकते हैं। प्रतीकों का अवलंबन केवल कथानक में ही नहीं हुआ है, भाषा में भी उनका शानदार उपयोग हुआ है। उस नाटक की एक बानगी देखिए। चौथा चरित्र कहता है जब बाकी तीन अपने काम को रोक फ्रीज हो जाते हैं। वो दर्शकों से मुखातिब होकर अपनी बात रखता है- हो सकता है कि आप भी मेरी तरह दिमाग में शायद या संदेह लेकर जायें। मैं उस कंदील की बात कर रहा हूं जिसको हम सबने दूर लटका देखा। यह भावुकता भी हो सकती है। हम चारों की खामखयाली भी। लेकिन मुझे वह एक प्रचलित कथा याद रही है जिसमें कड़ाके की ठंड में, जिस्म को काटने वाले पानी के बीच, एक व्यक्ति ने महल की दीवार पर जलते दिये को देखते हुए नंगे बदन सारी रात काट दी थी। दिये ने चाहे गर्मी दी हो, लेकिन उसकी एकाग्रता ने, उसे उस कठिन रात से बचा लिया। वक्त की ठंड से क्या हम बच सकेंगे? विकल्प कहां है? एक तरफ जड़ता है, दूसरी तरफ जीते रहने के लिए कोई कन्दील। वो चाहे पहुंच से दूर हो, संवाद के अंत में यही चौथा पात्र कहता है- मैं अब अलग हूं अलग.. आप सोचिये.. अपने को पहचानिये-- पहचानिये.. मैं भी चलूं। उनके साथ। अपने लिए। उनके लिए... एक आशावाद के साथ चौकियां कौन तोड़ेगा का अंत होता है। संवाद की भाषा बताती है कि प्रतीकों के जरिये हालात का खाका खींचा गया वहीं एक राह की तरफ इशारा भी किया गया। नाटक के मंचन का मैं साक्षी रहा हूं इसलिए दावा कर सकता हूं कि हॉल छोड़ने वाला हर दर्शक बाहर निकलकर सोचने के लिए मजबूर था कि उसे चौकियों की सीमा में बंधकर जीना है या अपनी अस्मिता को पहचान देनी है। प्रतीकों के उपयोग का यह राजानंदजी का उत्कृष्ट नाटक माना जाना चाहिए। अपनी पुस्तक आदमी हाजिर है में डा. साब ने स्वयं लिखा है "यह सही है कि मेरी रूचि प्रयोग शैली में नाटक लिखने और प्रस्तुत करने में रही। प्रयोगशीलता का आधार भी यथार्थ होता है। इसकी नींव वास्तविकता मे होती है, सुविधा यह हो जाती है कि हम वर्तमान की जटिल समस्याओं को ना मालूम अन्तः सूत्र में बींधकर सघनता तथा तीखेपन के साथ संख्या प्रेषित कर सकते हैं।" राजानंदजी के गुंगबोंग मर गया, आदमी हाजिर है नाटकों का धरातल भी प्रयोगधर्मिता प्रतीकों का है जिस पर ज्यादा बात करके मैं समय जाया नहीं करना चाहता। मैं उनके नाटक सदियों से सदियों तक पर अपनी बात जरूर कहना चाहूंगा। यह नाटक रोहतक में हुई अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता में पुरस्कृत भी हुआ था। इस नाटक का जिक्र मैं केवल इसलिए करना चाहूंगा कि मैं उसमें एक कलाकार के रूप में भी शामिल था। नाटक की स्क्रिप्ट का वाचन हुआ और मेरी भारी आवाज उसकी डेप्थ के कारण इन्होंने मुझे एक रोल दे दिया। रिहर्सल भी आरंभ हो गई पर सच कह रहा हूं मैं केवल संवाद भाषा के जरिये अपने पात्र को निभा रहा था। नाटक का रोहतक में मंचन हो गया, हजारों दर्शकों की उपस्थिति में वाहवाही भी मिली। सच यह था कि सफल अभिनय करने के बाद भी मैं उस पात्र की दार्शनिकता उसके सभी प्रतीकों को समझ नहीं पाया था। पुस्तक प्रकाशन तक आई तो मैंने अपनी बात में भी यह लिखा जो छपा हुआ भी है। पर मेरे लिखे को देखकर डा. साब ने मुझसे उस नाटक पात्र पर विस्तार से चर्चा की। तब उन्होंने समझाया कि हर युग में दो धाराएं समान रूप से चलती आई है और मगर उनके बीच एक सेतु भी होता है। यह सेतु दोनों युगों के जीवन, दर्शन को जोड़ने का काम करने के साथ नई धारा के लिए प्रोत्साहित भी करता है। यही तुम्हारा पात्र है। सच कहता हूं, उसके बाद ही नाटक मैं मेरा पात्र समझ पाया। अपने आप में यह सवाल हो सकता है कि बिना पात्र समझे मैंने कैसे अच्छा अभिनय कर लिया और मंचन उत्कृष्ट कैसे हो गया। इसके लिए लेखक नहीं निर्देशक डा. राजनांद भटनागर बधाई के पात्र हैं। मंचन मे दिन कम थे इसलिए उन्होंने बतौर निर्देशक मुझे संवादों की गहराई और अभिव्यक्ति के लिए टिप्स दे दिए जिनसे नाटक तो हो लिया। बाद में उन्होंने अपनी चिरपरिचित हंसी में मुझे कहा कि मैं जानता था तुम बिना समझे अभिनय कर रहे हो, इसलिए टिप्स के सहारे में नाटक खींच ले गया। जहां नाटककार की सीमा समाप्त होती है वहां से निर्देशक का कौशल शुरू होता है, इसकी सीख मुझे मिल गई। जो हर रंगकर्मी के लिए जाननी जरूरी होती है। मैं कहना यह चाहता हूं कि उनके नाटकों की सफलता का एक कारण यह भी था कि वे अपने नाटकों के खुद ही निर्देशक होते थे। इससे कलाकारों की कई कमियों का निदान अपने आप हो जाता था।इनके निर्देशकीय पक्ष की बात हो ही गई है तो मैं एक बात और कहना चाहूंगा। मैंने रिहर्सल मंचन दोनों समय इनके निर्देशकीय रूप को देखा है। रिहर्सल के समय वे जितने संयमित कूल होते हैं, मंचन के समय उतने ही व्यग्र और उत्तेजित रहते हैं। इनको देखकर लगता था जैसे इस कलाकार ने अपनी प्रस्तति में अपना सर्वस्व झोंक दिया है। मंचन समाप्त होने के बाद इनके चेहरे पर वापस वही मुस्कुराहट और संतोष के भाव स्वयमेव जाते थे। मंचन के समय की उनकी व्यग्रता का अर्थ मैं आज तक नहीं समझ पाया, मैंने दो दर्जन से अधिक निर्देशकों के साथ अभिनय किया है पर यह कहने में मुझे संकोच नहीं की डा. साहब का अपना एक निराला अंदाज है। शब्द, संवाद या पात्र पर रिहर्सल के दौरान यदि कोई कुछ जानना चाहे तो वे टालते नहीं थे, विस्तार से बताते थे। उनका निर्देशकीय टेम्परामेंट गजब का था, उसमें गुस्सा-आक्रोश या विद्वता से भयाक्रांत करने की वृति नहीं थी। तभी मेरे जैसा जड़ कलाकार भी इनके नाटकों में काम कर गया।प्रतीक प्रयोगशीलता ही इस नाटकाकर का गहना नहीं थे। गणगौर के जरिये लोक रूपों को इन्होंने परिमार्जित किया तो बहादुरशाह जफर अश्वत्थामा के जरिये पौराणिक पात्रों की आधुनिक सन्दर्भों में व्याख्या भी की। रेडियो नाटक नीलकंठी चंदा बसे आकाश के जरिये इन्होंने अलहदा नाट्य शैलियों से रू--रू कराया। काव्य तो अपने आप में प्रतीकों का पर्याय होता है। उग्र साम्यवादियों की तरह नुक्कड़ नाटक से भयाक्रांत करने के बजाय उसी शैली पर इन्होंने स्वाहा-स्वाहा लिखा। उसे चौक नाटक का नाम दिया। शैली नहीं बदली तो कम से कम उसका नाम बदल जड़ प्रतीक का भंजन तो किया ही। डा. साहब के अनगिनत नाटक हैं और हर नाटक पर विस्तार से चर्चा हो सकती है मगर मैंने केवल उनके प्रयोग प्रतीकों के माध्यम पर ही अपनी बात कहने की कोशिश की है। यहां मैं एक बात कहने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूं। वो यह कि इनके अधिकतर नाटकों का निर्देशन इन्होंने स्वयं किया जिसके कारण ही वे रिहर्सल के दौरान उसे परिमार्जित परिष्कृत करते रहे। एक-दो नाटक ही ऐसे ही जिनको दूसरे निर्देशकों ने खेला। कलाकार की यह सीमा मुझे अखरने वाली सदैव लगी है क्योंकि मेरी मान्यता है कि अगर दूसरा निर्देशक इनके नाटक खेलता तो शायद प्रतीकों के नये रूप भी उदघाटित हो सकते थे। ऐसा क्यूं नहीं हुआ यह मैं नहीं जानता मगर इतना जरूर जानता हूं कि यह रंगमंच का दुर्भाग्य है कि ऐसा नहीं हुआ। दूसरी बात भी इसी से जुड़ी है राजानंद जी ने अनगिनत नाटक निर्देशित किए पर अपने किए, दूसरों के क्यों नहीं। यदि ऐसा होता तो शायद कई प्रचलित नाटकों के नये रूप भी उदघाटित होते। इनके रंगकर्म की ये दो सीमाएं मुझे सदा सालती रही है, आज अवसर मिला तो कह रहा हूं। अपनी बात को विराम देने से पहले मैं एक दृश्य बताना चाहूंगा। लोक सभा चुनाव 2009 का समय था। स्थान रामपुरा बस्ती की एक स्कूल जिसमें मतदान केन्द्र बना हुआ था। 7 मई का दिन। अचानक कुछ लोग आए, वोटिंग मशीन से छेड़छाड़ की। पार नहीं पड़ी तो उसे तोड़ने का प्रयास किया जाहिर है वहां तैनात कर्मचारियों से गाली-गलौच भी हो रहा था। थोड़ी देर के लिए भय और आतंक का माहौल हो गया स्कूल परिसर में। पुलिस भी आई, माहौल गर्मा गया। यह सब तेजी से घटित हो रहा था और एक शख्श चुपचाप असहाय मुद्रा में किनारे बैठे लोकतंत्र के महापर्व के इस नाटक को प्रत्यक्ष देख रहा था। जो लोगों को नाटक दिखाता आया उसके सामने यह नाटक देखने भर की मजबूरी थी। तो वह लिख पा रहा था ना निर्देशकीय कौशल से उसे मोड़ दे पा रहा था, दर्शक बनने की मजबूरी थी। वो शख्श डा. राजानंद भटनागर थे। एक आशा है, लोकतंत्र के इस भद्दे प्रत्यक्ष देखे गए नाटक पर भी इनका नाटककार कुछ लिखेगा, अपने कलाकारों से सच को कई आंखों तक पहुंचाएगा।

बुधवार, 12 अगस्त 2009

प्यासे होंठ पर बैठा हुआ क्यों फासला है...

एक पखवाड़े से बीकानेर शहर उसके गांव बिजली के लिए काम-काज छोड़कर सड़क पर हैं। भी गांव के सब स्टेशन पर घेराव होता है तो कभी सड़क पर जाम। बुधवार को तो गांव से आए लोगों ने 220 केवी सब स्टेशन पर ही धावा बोल शहर की बिजली भी कटवा दी। बिजली मिलने से जिंदगी सुस्ताई हुई है तो व्यापार-उद्योग भी मंदा पड़ गया है। गांवों की हालत बदतर है, सिंचाई के अलावा पीने के पानी का जुगाड़ भी नहीं हो रहा। शहर गुस्से में आया तो पता चला कि गांव वालों ने जबरन शहर की बिजली भी बंद कराई है। यहां किसने किसकी बिजली बंद कराई ये बात बड़ी नहीं है बात तो यह है कि किस कारण ऐसा हुआ। बिजली ने करंट शहर गांव, दोनों को दिया है। पैसा देकर बिजली खरीदते हैं मगर वो भी मिलती है उनकी मर्जी से। सरकार जितनी बिजली देगी निगम भी उतनी ही बांटेगा। सरकार मौन रहकर तमाशा देख रही है और मुकाबला शहर-गांव, जनता-निगम कर्मचारी कर रहे हैं। हालात बेकाबू हैं पता नहीं सरकार के कानों तक कारिंदों ने संदेश पहुंचाया भी है या नहीं। बर्बाद होती फसल शहरी जिंदगी की दशा पर कोई पहल नहीं हो रही, ना राज से ना काज से। बुजुर्ग बताते हैं पहली बार ऐसा हुआ है जब इतनी लंबी अवधि तक इतनी लंबी बिजली कटौती झेलनी पड़ रही है। बीकानेर अब बिजली को लेकर आक्रोशित है उनके भीतर संघर्ष की ज्वाला धधक रही है। किसी ने भी इस चिंगारी को हवा की राह पर धकेल दिया तो रोष थामे नहीं थमेगा। मुझे डॉ रामसनेहीलाल शर्मा की पंक्तियां याद रही है-

रेत के इस सिंधु में ही तो कहीं मीठा कुआं है,

किन्तु प्यासे होंठ पर बैठा हुआ क्यों फासला है,

मौन की चादर बिछाए दर्द का ओढ़े कफन,

आदमी के वेश में सोया हुआ इक जलजला है।


मुंह के सामने से छिन रहा है निवाला

सरकार की बनाई प्रो. वी एस व्यास समिति ने बीकानेर में केन्दीय विवि बनाने की सिफारिश सरकार को सौंपी मगर अब बीकानेर के मुंह के सामने से उसका निवाला छीनने की पूरी तैयारी है। राजनीतिक शून्यता के चलते इस शहर ने कई बार मार खाई है मगर इस बार की मार आने वाली पीढ़ियों को दर्द देगी। बीकानेर से इस संस्थान को अन्यत्र ले जाने की कोशिशों की सूचना मिली तो लोगों को अचंभा हुआ। बात निकली तो दूर तलक जाना तय था विरोध की कोशिशे हुई पर कई सूरमा उस अभियान से नदारद दिखे। दर्द किसी के दिल में शायद कम नहीं होगा मगर यह तय है कि जिस जलजले की तरह शहर को तेवर दिखाने चाहिए थे वैसे नहीं दिखाए गए। संघर्षों में पलकर बड़े हुए इस शहर के साथ इतनी बड़ी नाइंसाफी यदि बर्दाश्त कर ली गई तो बीकानेर के इतिहास पर सवालिया निशान लगेंगे। इस शहर ने हर नाइंसाफी के खिलाफ आवाज बुलंद की है। गेहूं निकासी आंदोलन ने तो पूरे राज्य को दिशा दी थी। सरकार यदि सोचती है कि इस सांस्कृतिक नगरी के बाशिंदों को केवल सृजन में विश्वास है तो वो भूल कर रही है, संघर्ष तो यहां के हर कण में रचा-बसा है। पश्चिमी सीमा की इस धरा ने आंदोलन का इतिहास गढ़ा है। संघर्ष की हुंकार भर दी गई है अब तो कारवां जुड़ता रहेगा, जिसे राज-काज ने भांपा तो परेशानी में पड़ जाएंगे। हरीश भादानी ने कहा भी है- जो पहले अपना घर फूंके,
धर मजलां फिर चलना चाहे,
उसको
जनपथ की मनुहारें।

बुधवार, 5 अगस्त 2009

धर्म की धमनियों में बहता है प्रेम

सावन-भादवा पश्चिमी सीमा की इस मरुनगरी के जीवन के रंगों को पूरी तरंग से अभिव्यक्त करते हैं। देश के किसी भी कोने में रहने वाले को यदि इस शहर के बारे में जानना हो तो वह इन महीनों में बीकानेर आए, उसे शहर की तासीर पता चल जाएगी। सावन में जहां शिवालय 'हर-हर महादेवं' के तरानों से गूंजते हैं वहीं गर्मी-सर्दी के संधिकाल का यह समय मुस्लिम धर्मावलंबियों की तकरीरों को भी सही अर्थों में पहचान देता है। रात की ठंडी बयार में जयकारे व तकरीर के मिले-जुले स्वर जोश का संचार करते हैं। दोनों के स्वर मिलकर जिस नए राग को जन्म देते हैं उसे ही बीकाणा कहते हैं। धर्म की राग पूरे शहर को एक सूत्र में पिरोती है और यह साबित करती है कि वतनपरस्ती इस शहर का पहला व अनूठा गहना है। सावन अपनी यात्रा पूरी कर जब भादवे की सीढ़ी चढ़ता है तो लोक देवता बाबा रामदेव की भक्ति में पूरा शहर लीन दिखता है। इस बार तो रोजे भी इसी अवधि में आ रहे हैं। शब्बेरात की अपनी महत्ता है। सद्भाव के इस शहर को देखकर राजनीति का चोला पहनने वाले भी दंग रह जाते हैं तभी तो शायर कहता है-
शंख मंदिर में बजेगा, अजान भी होगी
ज्योति गीता की जलेगी, कुरान भी होगी

मेरे इस देश में कश्मीर से कन्याकुमारी तक

वतन की रक्षा सबका धर्म-ईमान होगी।


लो आया तबादलों का मौसम
पिछली सरकार के समय तबादलों के कारण परेशानी में आए सीएम ने इस बार अब तक शिक्षा महकमे में तबादलों की छूट नहीं दी है। सत्रारंभ के बाद भी छूट न मिलने से नेता परेशान हैं, आश्वासनों को पूरा करने की अकुलाहट है। जून से तबादलों का उद्योग पहले तो शुरु हो जाता था। लेकिन कहते हैं ना कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है, रास्ता निकल ही आता है। विभाग ने तृतीय श्रेणी शिक्षकों की डीपीसी कर द्वितीय श्रेणी शिक्षकों को पोस्टिंग दी। उसे तत्काल निरस्त कर फिर से पोस्टिंग का नाटक चला। कहने को तो यह नई पोस्टिंग है पर इसे तबादले कहें तो वह भी गलत नहीं होगा। जिनके सेवाकाल के दो साल शेष रहे हैं उनको भी दूरस्थ स्थानों पर भेजा गया है। सेवानिवृत्त को पदोन्नति दे दी गई। ऐसी विसंगतियां अनेक हैं जिनको दूर करने के तरीके विधिक तो नहीं होंगे, यह शिक्षक जानता है। शहर में तबादले हो सकें इसके लिए पद भी इस बहाने रिक्त कर लिए गए हैं। रिक्त पद यहां होंगे तभी तो तबादला उद्योग पनपेगा। शिक्षक को सात तरीके से तबादले की मार झेलनी पड़ती है, यह विडंबना है। संगठन लामबंद हो रहे हैं, समानीकरण व तबादलों के विरोध में। इस बार संघर्ष-टकराव दिखता है, सरकार पदचाप नहीं पहचानेगी तो उसे दूरगामी परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
बैरन हो गई बिजली
शहर को ग्रहण लग गया, बिजली बैरन बन गई। शहर हो या गांव, अंधेरे का साम्राज्य हो गया। कहने को तो तीन घंटे की बिजली कटौती होती है मगर इसमें अघोषित समय जोड़ें तो यह समय दुगुने से भी अधिक हो जाता है। बिजली नहीं तो व्यवसाय बंद, खेती नहीं, पीने को पानी नहीं, मशीनें बंद। शहर की इस व्यथा से जनता परेशान है। नेता कहां है जो वोट मांगने आए, इसका जवाब किसी को नहीं मिल रहा। जब जनता ही नेता बन सड़क पर आ जाएगी तो हालात कैसे काबू आएंगे, राज-काज को सोचना चाहिए। शहर में अपराध बढ़े पर उसको लेकर भी कुछ नहीं बोले। जिनकी बात में दम होता है वे मौन साध ले तो फिर मूक लोगों की बात को स्वर कैसे मिलेगा। सरेआम लूट, चोरी, मारपीट, हत्या आदि पता नहीं इस शहर को अभी क्या-क्या देखना बाकी है। पहले जाहं गिने-चुने अपराध होते थे वहीं अब गिने-चुने दिन ही अपराध नहीं होते। इस पर शहर सोया हुआ नहीं है, कोई भूल में ना रहे। वो खुली आंखों से सब देख रहा है। समय पर जवाब भी मांगेगा, तब राज-काज का क्या होगा।