शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

विचलित होता लोकमन आजादी के संदर्भ में

जन्मदात्री मां और मातृभूमि से हम कभी उऋण नहीं हो सकते।इन दोनों के हम पर इतने उपकार होते हैं कि हम मृत्युपर्यन्त उनके ऋण से मुक्त नहीं हो सकते। इसलिए प्रत्येक विचारवान एवं ज्ञानवान प्राणी में अपनी मां और मातृभूमि के प्रति अपरिमित प्रेम और अपनत्व का भाव रहता है। मानव मात्र में ही नहीं, पक्षियों में भी अपनी जन्मभूमि के प्रति स्नेहभाव रहता है। वे पंखों को फैलाए दिनभर चारों ओर विचरण करते रहते हैं, अपने और अपनी संतानों के लिए भोजन का प्रबंध करते रहते हैं किन्तु जैसे ही भगवान भास्कर अस्ताचल की ओर प्रस्थान करने की तैयारी करते हैं, वे दूर-दूर दिशाओं से पंख फडफडाते हुए अपने नीड़ों की ओर लौट आते हैं। गायें भी शाम होते ही अपने घर के खूंटे को याद करके रम्भाने लगती है। मातृभूमि और स्वदेश के प्रति हममें जो भी श्रृद्धा भाव है, वह यही चाहता है कि हमारी मातृभूमि सदैव सुखद, संपन्न एवं संकट मुक्त रहे।
मातृभूमि पर जब कभी संकट आता है, वह हमें व्यथित करने लगता है। जब मां भारती परतंत्रता की बेडियों में बंधी दुःख के आंसू बहा रही थी, तब सभी देशवासियों ने उसे स्वतंत्र कराने के लिए कुर्बानियां दीं। जिसकी धूलि में लेट-लेट कर हम बड़े हुए, जिसने हमें रहने के लिए अपने अतुल अंक में आवास दिया, उसे कोई बंधन में कैसे देख सकता है। पत्थर ह्दय ही होगा कोई जो इस भांति मातृभूमि को पराधीन देखकर भी निष्ठुर बना रहे। कवि ने सही कहा है-
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं
वह ह्दय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
यह स्वदेश प्रेम ही है, जिसने आजादी के आंदोलन में सभी देशवासियों को संगठित रूप से अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए प्रेरित किया और अंततः अगस्त, 1947 को हम स्वतंत्र हुए, भारत मां ने स्वतंत्रता की खुली सांस ली।
देश की सर्वांगीण उन्नति के लिए देशप्रेम परम आवश्यक है। जिस देश के निवासी अपने देश के कल्याण में अपना कल्याण, अपने देश के अभुदय में अपना अभ्युदय, अपने देश के कष्टों में अपना कष्ट और अपने देश की समृद्धि में अपनी सुख-समृद्धि समझते हैं, वह देश उत्तरोत्तर उन्नतिशील होता है, अन्य देशें के सामने गौरव से अपना मस्तक ऊंचा कर सकता है।
ऐसे देशभक्तों की जनता सच्चे मन से पूजा करती है। राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी ने ऐसे देशभक्तों के प्रति एक मानसिक उद्गारों को इन शब्दों में व्यक्त किया है-
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ में देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक।।
यह देशभक्ति का जज्बा ही है जिसने देश की स्वाधीनता की रक्षा के लिए देशभक्तों को हंसते-हंसते अपने प्राण न्यौछावर करने को तत्पर किया। हमारे भारत वर्ष में देशभक्तों की उज्जवल परंपरा रही है। चंद्रगुप्त मौर्य के समय में सिकन्दर के आक्रमण को रोकने के लिए छोटे-छोटे राजाओं ने जिस वीरता का परिचय दिया, वह भारत के इतिहास में अद्भुत है, उस देश भक्ति का परिणाम यह हुआ कि सिकन्दर व्यास नदी से आगे बढ़ पाने में असमर्थ रहा। चन्द्रगुप्त मौर्य ने उसे इतनी बुरी तरह खदेड़ा कि शताब्दियों तक वे भारत की ओर मुंह करने का दुस्साहस नहीं कर सके। चन्द्रगुप्त के पश्चात् पुष्प मित्र, समुद्रगुप्त, शालिवाहन, विक्रामादित्य आदि राजाओं ने देश को विदेशी आक्रमणकारियों से मुक्त कराने के लिए घोर युद्ध किए और सफलता प्राप्त की मुगल शासन काल में महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, छत्रसाल, गुरूगोविन्दसिंह आदि देशभक्त वीर अत्याचारी शासन के विरूद्ध लड़ते रहे।
अंगे्रजों के शासन काल में सन् 1857 में भारत के लाखों वीरों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर किया और यह क्रम सन् 1947 तक चलता रहा। लोकमान्य तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, पं मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपतराय, महात्मा गाँधी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, पं.जवाहर लाल नेहरू, भगतसिंह आदि न जाने किन-किन देशभक्तों के नाम लें... जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए स्वयं के सुखों का परित्याग किया, अनेकानेक कष्ट सहे, जेलों में रहे, यातनाएं सहीं क्योंकि उनका एकमात्र ध्येय था देश की स्वाधीनता।
आज हम स्वतंत्र हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात सभी क्षेत्रों में हमने उन्नति की है। विश्व समुदाय हमारे सामर्थ्य, हमारी क्षमता का लोहा स्वीकार करने लगा है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था सबकों सम्मोहित करती रही है। हम आज भी बहुजन हिताय बहुजन सुखायं के सिद्धांत को अपनाए हुए हैं। हम ईसा मसीह के इस संदेश को भी आत्मसात किए हुए है कि अपने पड़ोसी को अपनी तरह ही प्यार करो। किन्तु दुःख इस बात का है कि कुछ ऐसे तत्व राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रीय भक्ति में बाधा डालने की असफल चेष्टा मे लगे हैं। वे हैं- साम्प्रदायिकता, अलगाव वादी प्रवृति, प्रांतीयता की भावना, भाषायी उन्माद, संकीर्ण एवं स्वार्थी मनोवृति, पड़ोसी देशों का अशोभनीय व्यवहार आदि।स्वतंत्रता आंदोलन के समय मातृभूमि के प्रति जैसा श्रद्धाभाव, जैसी त्याग और समर्पण भाव था, वैसा अब दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। हम हमारे कर्तव्यों को विस्मृत कर रहे हैं और अधिकारों के प्रति अतिशय सजग नजर आते हैं। राष्ट्रहित से ज्यादा अहमियत अब स्वहित को दी जाने लगी है। इसलिए आज का लोकमन विचलित है। लोक यानी आमजन चाहता है कि देश का सर्वागीण विकास हो, उसके और राष्ट्र के विकास हेतु जो योजनाएं बनी हुई है, उनका पूरा का पूरा लाभ मिले किन्तु स्वार्थी तत्व उन योजनाओं से अपना हित साधन करने की चेष्टा में लगे दिखते हैं। आमजन को यह अहसास ही नहीं हो रहा है कि साल का कोई एक दिन उसका अपना भी है। शायर राजेश रेड्डी के शब्दों में कहें तो

बरसों हम इस इंतजार में कैलेंडर के साथ जिए। जागा इक दिन आएगा कोई एक हमारा दिन

स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी लोगों को भूखा सोने को विवश होना पड़ रहा है। भूख से सताये विचलित लोकमन के भावों को शायर मोहम्मद उस्मान आरिफ ने यूं शब्द दिए हैं- कितनी सदियों में खुदा जाने यह अच्छा होगा भूख का रोग जो सदियों से सताए है मुझे। भूख का रोग उसे इसलिए सताए हैं, क्योंकि ऐसे लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है जिनकी गगनचुम्बी इमारतें बन रही हैं, जो धनबल बाहुबल के समक्ष किसी को कुछ नहीं मानते वे सिर्फ और सिर्फ स्वयं के हितों की पूर्ति में लगे हैं, जिनके लिए राष्ट्रीयता, मानवीय मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं है, ऐसे में आदमी टूटता जा रहा है और विचलित होता जा रहा है। बकौल शायर डॉ शेरजंग गर्ग- मेरे समाज की हालत सही सही मत पूछ।मेरे समाज की हालत सही सही मत पूछ। कहां कहां से गया टूट आदमी मत पूछ

ऐसे हालात में लोकमन में यह विचार उठने लगता है कि अब इस जिंदगानी का क्या मकसद रह गया है। लोकमन मे इस दर्द को शायर दुष्यंत कुमार ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-जिंदगानी का कोई मकसद नहीं है।एक भी कद आज आदमकद नहीं है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लोकमन ने सपने बुने, वह उन सपनों को साकार होते देखना चाहता है किन्तु सपने हैं कि सपने ही बने हुए है, उसके लिए सभी सुख पराए बने हुए हैं और वह दुखी बना हुआ है। जनकवि हरीश भादाणी के शब्दों में कहें-सभी सुख दूर से गुजरेंगुजरते ही चले जाएंमगर पीड़ा उपचारसाथ चलने को उतारू हैं

मित्रों, पीड़ा उपचार साथ नहीं चलेगी । कुछ ही हैं जो आमजन के सपनों को छीनने की कुत्सित चाल में संलग्न है। आमजन में आज भी राष्ट्रभावना कूट कूटकर भरी हुई है, उनमें मानवीय गुणों की कमी नहीं है, वे सबका कल्याण चाहते हैं और यही कामना करने हैं कि हमारा देश उत्तरोत्तर उन्नति के पथ पर चलता रहे, विश्व में उसका परचम लहराए। हमें ऐसे लोगों की भावनाओं का आदर करना है और उनके विचलित मन को आश्वस्त करना है कि समाज और राष्ट्र को नुकसान पहुंचाने वाले स्वार्थी मनोवृति के लोगों का सामूहिक स्तर से सामना करेंगे। लोकमन रूपी दिए में तेल से भीगी हुई बाती मौजूद है, जरूरत उन्हें आत्मबली बनाने के लिए एक चिनगारी लाने की है जैसा कि दुष्यंत कुमार ने कहा है-एक चिनगारी कहीं से ढूंढ़ लाओं दोस्तों। इस दिए में तेल भीगी हुई बाती तो है।।

जहां हाथ रखो वहां दर्द है...

एक बार फिर पीबीएम में हड़ताल है और मरीज परेशान हैं। बड़े डाक्टरों को ड्यूटी पर लगाया गया है क्योंकि रेजीडेंट ने हड़ताल कर रखी है। मरीज व उनके परिजनों को ऐसे हालात का सामना कई बार करना पड़ता है। पीबीएम में दर्द अब उनकी आदत बन गई जिसे सहकर भी वे इलाज कराते हैं। जो मजबूर होते हैं या आर्थिक रूप से ठीकठाक होते हैं वे निजी अस्पतालों की शरण में चले जाते हैं। पर इस बार हड़ताल का ध्येय अलग है। रेजीडेंट डाक्टर्स अपने हक के लिए लड़ रहे हैं, इसे तो एक कॉज माना जा सकता है। अच्छा कॉज हो तो रास्ते भी अच्छे होने चाहिए। रेजीडेंट का इस बार मरीजों से कोई मुकाबला नहीं है वे तो सरकार से लड़ रहे हैं। इस हालत में उनको मरीजों की सेवा का दूसरा तरीका निकालना चाहिए। कारण सरकार बने या रेजीडेंट, भुगतना मरीजों व आम जनता को ही पड़ता है। संभाग के मरीज यहां इलाज के लिए आते हैं उनको बहुत उम्मीद रहती है। इसलिए बीच का रास्ता निकलना चाहिए। दवा देने वाला सेवा का मंदिर यदि दर्द दे तो हाय निकलती है और उसके दूरगामी परिणाम मिलते हैं। जनता व मरीजों की हालत को देखते हुए सरकार को भी जल्दी निर्णय करना चाहिए। बातचीत के जरिये जायज हल समय पर निकले तो ही दर्द के लिए दवा मिलेगी नहीं तो हर जगह दवा का स्थान दर्द ले लेगा।इलाज के रास्ते और भी हैं। बीकानेर संभाग मुख्यालय है जहां पीबीएम के अलावा जिला अस्पताल भी है। इसके अतिरिक्त डिस्पेंसरीज भी है। इन विकल्पों पर राज का ध्यान जाना चाहिए। जब सैटेलाइट के रूप में जिला अस्पताल बना दिया तो वहां दवा देने का काम पूरा होना चाहिए। यहां मरीज है पर पूरा स्टाफ नहीं। जो है वो पूरी शक्ति लगाता है पर उनके हाथ असंतोष ही आता है। लोग नाराज होते हैं और गुस्सा जताते हैं। यदि यही गुस्सा राज के सामने जताकर पूरा हक लिया जाए तो उचित रहेगा। पूरा हक लेने के बाद यदि उसको मरीज तक पहुंचाने में कोई कोताही बरतता है तो फिर उसके खिलाफ आक्रोश भी जायज रहता है। हालत ये हैं कि हमारे जन प्रतिनिधियों को कई विषय बोलने के लिए मिल जाते हैं पर ऐसे महती विषय पर उनका ध्यान भी नहीं जाता। हर चीज में प्राथमिकता तो तय करनी ही पड़ेगी तभी राजनीति की दिशा सही रह सकती है। बिना प्राथमिकता के तो हम अंधी दौड़ के धावक बनेंगे जिसकी सफलता संदिग्ध ही रहती है।
बात करते ही छलकता है दर्द
भास्कर ने वार्ड की समस्याओं के लिए रू-ब-रू आरंभ किया। वार्ड जाकर देखा तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। सड़क, नाली, बिजली, पानी, जल निकासी, बरसात में परेशानी, सफाई, डिस्पेंसरी में दवा नहीं, पता नहीं कितनी समस्याओं से घिरे हैं बाहरी वार्ड। हर आदमी के पास दर्द का एक फसाना है। हालत यह है कि वे सांसद, विधायक व पार्षद के लिए हर बार वोट देते हैं मगर उनकी समस्याएं जस की तस है। एक अखबार के पहुंचते ही उनके फाले फूट पड़े, कहा पहली बार कोई सुनने तो आया। समस्या हल हो या न हो पर सुनवाई तो हुई। पता नहीं राजनीतिक दल, जन प्रतिनिधि इन पीड़ाओं को जानते हैं या नहीं, यदि नहीं तो उनको अपना ही मूल्यांकन करना चाहिए। शहर में यदि समस्याओं की यह दशा है तो पता नहीं तहसीलों और गांवों की क्या दशा होगी.....। समस्याओं से गले तक भर आई जनता यदि उठ खड़ी हुई तो क्या होगा- यह सोचना जिनका काम है उनको जाग जाना चाहिए। कबीर ने कहा भी है-
ज्यों तिल माही तेल है ज्यों चकमक में आग
तेरा सांई तुझमें बस जाग सके तो जाग

बुधवार, 22 जुलाई 2009

दिल का मरहम ना मिला जो मिला सो गर्जी...

छोटी काशी के रूप में पहचाने जाने वाले इस नगर में हदें पार करती हैं तभी शोर उठता है नहीं तो एक संतोष का सन्नाटा यहां पसरा रहता है। सन्नाटे की इस हद पर राज लगातार टंकारे से चोट कर रहा है। दिन में तीन घंटे की घोषित और कई इलाकों में इतनी ही अघोषित बिजली काटी जा रही है। जाहिर है उसका असर पीने के पानी पर भी है। शहर का चार सदस्यों वाला एक छोटा परिवार भी पैसे देकर पानी का टैंकर मंगाने को मजबूर है। गांव में गरीब ही नहीं किसान भी पानी-बिजली से त्राहिमाम है। विधानसभा में 'एट पीएम', बलात्कार, सदस्य की गरिमा, सफाई, आठवीं बोर्ड जैसे मुद्दे तो उठने चाहिए वे उठ रहे हैं। सात विधायक व एक सांसद है। उनको पानी-बिजली पर भी कुछ अलग करना होगा नहीं तो यहां के लोग श्रीगंगानगर की तरह सड़कों पर उतरने लग जाएंगे। शहर में चोरी, चेन छीनना व दुर्घटनाओं का अंबार सा लगने लगा है इस पर भी तो आवाज उठनी चाहिए। इनका हल नहीं निकला तो हालात कितने गंभीर होंगे यह शहरवासी अब महसूस करने लगे हैं। इतनी सारी चीजों से यहां के लोग अब सताए लगते हैं इस हालत में वे हद तोड़ें तो शायद उसको संभालना मुश्किल हो जाएगा।
दुर्बल को सताइए जाकि मोटी हाय
बिना जीव की हाय से लोहा भस्म हो जाय
छंट गया अंधेरा, हमेशा सा था सवेरा
इस बार कहते हैं सदी का सबसे बड़ा सूर्य ग्रहण था। कौमी एकता की इस नगरी में हर धर्म संयम और धैर्य सिखाता है। ग्रहण के अंधविश्वासों को लेकर हर जगह भय का माहौल बना। पर खुशी है इस नगरी को भय छू भी नहीं पाया। धर्म की जड़ें गहरी है तो उसका तात्विक ज्ञान भी यहां की खासियत है। पोथी पढ़ने से यह ज्ञान नहीं आता। यहाँ तो ज्ञान संस्कारों की सरस सरिता से बहकर हर किसी के कानों में पहुंचता है और उसके विवेक का हिस्सा बन जाता है। ग्रहण आया, सब ने प्रार्थना-इबादत की और अंधेरा छंटते ही अपने रोजमर्रा की जिंदगी में व्यस्त हो गए। कहां गया भय, कौन था भयातुर, किसको हुई शंका- कोई तो आकर बताए। इस शहर ने हमेशा ही बड़े झूठ को नकारा है और उसको पस्त किया है। ग्रहण की शंकाओं पर किसी से बात करते हैं तो वो कहता है-
आया था किस काम को तुं सोया चादर तान
सूरत संभाल गाफिल अपना आप पहचान
शान्ति की चादर को संभालें
शान्ति का गहना पहनने वाले इस शहर के लोग पिछले तीन माह से परेशान हैं। कभी दिन दहाड़े लाखों लूट लिए जाते हैं तो कभी चलती महिलाओं का मंगल सूत्र या चेन छीन ली जाती है। पिछले दिनों में हुई आधा दर्जन चोरियां दिन-दहाड़े हुई है। इन करतूतों को अंजाम देने वाले अभी तक पकड़ से बाहर हैं। जनता का गुस्सा बढ़ता जा रहा है। धन, मन चोरी होने या लुटने के साथ विश्वास भी लुटता जा रहा है जिसने आदमी को तोड़ दिया है। पुलिस अपने तरीके से काम कर रही है पर वह पर्याप्त नहीं है। बात काम करने या गश्त बढ़ा देने की नहीं है, जनता का खोया विश्वास लाने की है। शहर के टाइगर रात को हाइवे तक संभालते हैं तो क्या उनके थानों के प्रभारी अपना हलका नहीं संभाल सकते। चलो घटना हो गई पर क्या छोटे से इलाके से अपराधी को नहीं पकड़ सकते। यदि वर्तमान व्यवस्था नाकाफी है तो उसमें बदलाव भी तो उनको ही करना है। साधन सीमित हैं तो जनता से सहयोग तो उनको ही लेना है। हालात यही रहे तो अपराधों का ग्राफ शहर की सूरत और सीरत दोनों बदल देगा जिसके लिए फिर जवाबदेही भी तय होने लगेगी। अभी तो समय है नहीं तो यह समस्या इतनी बड़ी हो जाएगी कि उस पर पार पाना कठिन हो जाएगा। कबीर ने कहा भी है-
दिल का मरहम ना मिला जो मिला सो गर्जी
कह
कबीर आसमान फटा क्योंकर सीवें दर्जी

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

'मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान'

स्वागत है ऋतुराज आज थारौ स्वागत है जैसे गीतों से मानसून और सावन की मनुहार करने वाली इस सांस्कृतिक नगरी में मेहमान को भगवान मानने की परंपरा आज भी शाश्वत है। कई बार भीषण गर्मी के कारण लोग कैसे सावन बीकानेर जैसे सवाल भी प्रकृति से विपरीत जाकर खड़े कर देते हैं। इस शहर में बमभोले के मंदिरों की संख्या अनगिनत है तो बीकानेर में सावन की महिमा अपार होनी ही है। ऐतिहासिक पुरातात्विक महत्त्व की इस नगरी में तालाब-तलैया भी बहुत हैं। बीकानेर में सागर, शिवबाड़ी, संसोलाव, हर्षोलाव, नाल, कोडमदेसर आदि के तालाब ऐसे हैं जहां केवल फ्री स्टाइल की तैराकी होती है अपितु गोठों-पूजा के दौर भी चलते हैं। भू-माफियाओं ने सरकारी जमीन पर कब्जे किएसंरक्षण पा लेने के कारण उनको तोड़ा भी नहीं गया, अवैध बजरी खनन भी तालाबों के पास अधिक हुआ और होता है। इन सबने तालाबों की आगोर को तो लीला ही वरन् इनकी सुंदरता को भी नष्ट कर दिया। तालाब जहां मनोरंजन के साधन हैं वहीं अब मौत के कारण भी बनने लगे हैं। इन तालाबों पर हर उम्र के लोग, खासकर किशोर-युवा अधिक संख्या में जाते हैं। दुर्भाग्य है कि संभागीय मुख्यालय होने के बाद भी यहां किसी तालाब पर प्रशासन ने प्रशिक्षक या गोताखोरों को तैनात नहीं किया हुआ है जिसके कारण हर सावन में तालाब भरने के बाद दुखद हादसे होते हैं। एक दशक में तालाबों में डूबने से हुई मौतों की गणना की जाए तो हर समझदार को शर्मसार होना पड़ेगा। शहर बमभोले का है, यहां के लोग भी भोले हैं इसलिए प्रशासनिक लापरवाही का विरोध नहीं हुआ। नगर निगम है, नगर विकास न्यास है और जिला प्रशासन है। किसी की तरफ से इस बार भी पहल नहीं हो पा रही। यदि आने वाले दिनों में कोई हादसा हुआ तो इन दोनों को तीखे विरोध का सामना करना पड़ेगा। शहर के तेवर तीखे हैंअगर डूबने से अकाल जान गई तो हाहाकर मचेगा, फिर जन-आक्रोश से प्रशासन बचेगा पुलिस। नगर निगम, नगर विकास न्यास और जन प्रतिनिधि बचेंगे। आग लगने के बाद यदि कुआं खोदने की कोशिश हुई तो देर हो जाएगी, विरोध सहन नहीं होगा राज और काज को।
राजनीति वाकई शह और मात का खेल है। होलसेल भंडार में चुनाव को लेकर चली चालें हर किसी को हैरत में डाले हुए हैं। कौन किसका समर्थन कर रहा है और कौन विरोध, समझ में ही नहीं रहा। एक ही टीम के खिलाड़ी आमने-सामने दिख रहे हैं तो कभी विरोधी टीम के साथ भी कुछ खड़े दिख जाते हैं। इस शह और मात के खेल में सहकारिता की मूल भावना गुम हो रही है, इसकी सरकार को चिंता है और ही आला अधिकारियों को।शुद्ध के लिए युद्ध अभियान चल रहा है, सरकार भी खुश है और सरकारी महकमे भी। सरेआम लोग अभियान की कार्रवाई से पहले दुकानें बंद कर लेते हैंये समझने के लिए क्या काफी नहीं है कि मिलावट कहां है। इन सबके बाद भी सरकारी अमला बंद दुकानें देखकर कहीं ओर चल देता है। वाह रे शुद्ध के खिलाफ युद्ध, अभियान चलाने वालों की शुद्धता भी परखी जानी चाहिए। शहर अब नए सोच के साथ तेवर ले रहा है इसे नहीं पहचाना तो नए रंग सामने आने लगेंगे। कबीर ने कहा भी है- जाति पूछो साधु की पूछि लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान

बुधवार, 8 जुलाई 2009

तिनका कबहुं ना निंदिये जो पांव तले होय...

बीकाणे ने हिलमिल हासिल किया एक और विश्वविद्यालय
रियासतों के विलिनीकरण के समय यहां के शासकों ने बीकानेर को शिक्षा की राजधानी बनाने का वादा लिया था। लोकशाही ने उसे आधा-अधूरा ही पूरा किया, कई बार तो कमजोर करने के निर्णय भी लिए। गहरे पानी की पैठ वाले यहां के लोगों ने सहन कर लिया मगर अब यहां के लोगों को राज-काज की छेड़खानी अखरने लगी है। वे हिलमिल गए हैं और अपनी बात को तीखे तेवर के साथ रख रहे हैं। केन्द्रीय विवि की सिफारिश यहां के हिलमिलने का परिणाम रहा। वेटेरनरी विवि की मांग भी यहां के राजनेताओं, वैज्ञानिकों, व्यापारियों, सामाजिक क्षेत्र के लोगों ने सामूहिक रूप से की थी जिसका ख्याल गए राज ने नहीं रखा मगर इस राज ने आज उसकी घोषणा कर दी। यदि घोषणा आज नहीं होती तो शायद बीकानेर संभाग की रंगत कुछ और ही होती जो राज-काज की आंखें खोल देती। खैर, यह सौगात बीकानेर को पसंद आई है क्योंकि यहां ग्रामीण क्षेत्र में पशुपालन बड़ा व्यवसाय है। शहर में पशु सेवा बड़ा धर्म है। व्यवसाय व धर्म की रक्षा हुई तो बीकाण हर्षाया भी है। राज्य के स्वास्थ्य मंत्री पिछले दिनों बीकानेर आए तो लोगों ने अपने गुब्बार निकाले। पीबीएम की साख पूरे उत्तर भारत में है इसलिए यहां की स्वास्थ्य अपेक्षाएं भी काफी है। कैंसर के लिए न सही मगर बजट में ह्रदय रोग विभाग के लिए घोषणा हुई वह भी रास आई है। हालांकि थोड़ा हुआ पर अभी आगे के लिए ज्यादा की गुंजाइश है, यह संकेत तो बीकाणे ने दे दिए हैं। भाजपा नेताओं से मिलने पर यहां के जो लोग स्वास्थ्य मंत्री से थोड़े नाखुश हुए थे उनकी तल्खी बजट घोषणा के बाद कुछ कम हुई है। अभिलेखागार के लिए 1.13 करोड़ की सौगात भी इतिहास को सहेजने की दृष्टि से सुखद है। ले-देकर राज्य स्तरीय कुछ ही कार्यालय तो बीकानेर में है।हां, कुछ नहीं मिला उसके लिए मलाल जताने में भी यहां के लोग कंजूस नहीं है। बीकानेर विवि के विकास के लिए कुछ न होना, रेल बाइ पास, लिंक रोड, डेयरी व फूड साइंस कॉलेज, आठवीं बोर्ड जैसे विषय अछूते रहने से लोग नाराज भी हैं। आर्थिक मंदी की चपेट में आकर अस्तित्व खो रहे बीकानेर के ऊन उद्योग को राहत नहीं मिलना और दाल पर कर की दर की विसंगति को बजट के माध्यम से दूर नहीं करना भी सालता है। ये सब बीकानेर के हक हैं जिनको हासिल करना यहां के लोगों का लक्ष्य है। ऐसा हर किसी को समझना चाहिए नहीं तो हालात बेकाबू हो जाएंगे। अपेक्षाओं का सागर व्यापक है उसमें जितना पानी डाला जाए कम है, बीकानेर तो वैसे भी रेगिस्तानी इलाका है इसलिए यहां पानी की अधिक आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पहचान करने वाला राज और काज ही संवेदनशील माना जाएगा, यही संकेत यहां की हिलमिल राजनीति के हैं। कबीर ने कहा भी है- तिनका कबहुं ना निंदिये जो पांव तले होय, कबहुं उड़ आंखों पड़े पीर घनेरी होय।

बुधवार, 1 जुलाई 2009

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के

प्रयोगधर्मिता एक अच्छी आदत है क्योकि इससे विकास की सीमाओं को विस्तार मिलता है। विज्ञान ने इस सच को साबित भी किया है। रंगमंच निर्देशक . . कारंत कहा करते थे कि वो ही प्रयोग सही उपयोगी है जो नई सोच विकसित करने में सफल हो और स्थायित्व लेने की उसमें क्षमता हो। हमारे राज उसके अधीन के काज ने प्रयोगधर्मिता जैसे गुण वाली बात का अवलंबन तो किया मगर कारंत की बात को नजरअंदाज कर गए। उनको हर नई गलत बात पर भी प्रयोग का ठप्पा लगाने की आदत पड़ गई। शिक्षा सम्मान संवेदना से जुड़ा विषय है पर राज-काज के भाई इसमें भी प्रयोग करने से नहीं चूके। डेढ़ दशक से अधिक समय हो गया प्रदेश में शिक्षा को प्रयोगशाला बनाए हुए। एक अकेला यह विभाग ही ऐसा होगा जहां तबादलों के एक नहीं कई तरीके है। राज्यादेश, समानीकरण, पातेय वेतन, पदोन्नति, एडहोक पदोन्नति, तदर्थ पदोन्नति, शिक्षण व्यवस्था, प्रशासनिक कारण, स्वैच्छिक, एपीओ होना सहित अनेक प्रयोग राज-काज ने तबादलों पर किए। उनके दुष्परिणाम जगजाहिर हैं पर प्रयोगधर्मिता पर बखान जारी है। आश्चर्य तो इस बात का है कि शिक्षकों की लंबरदारी करने वाले संगठन और खुद शिक्षक इसके खिलाफ झंडा बुलंद करने से कतराते हैं।शाला में प्रवेश का आरंभ मई से हो गया, सहन कर लिया। गर्मी के कारण अवकाश के स्थान पर कम समय स्कूल चलाने का फरमान आया तो भी चुप रहे। आए दिन समानीकरण की धमकी को भी चाय की चुस्कियों की तरह पी रहे हैं। बाकी बात छोडि़ए, बीकानेर संभाग से राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान को जयपुर ले जाने की बात पर भी तीखे तेवर संभाग ने नहीं दिखाए। राजनीतिक आवाज कमजोर क्या हुई अब हर कोई इस संभाग पर चाबुक चला रहा है। शायद किसी मसीहा का इंतजार हो रहा है जो आए और दर्द अपने पर लेकर सबको राहत दिला जाए। निष्ठुर राज और काज का मन तो नहीं पसीजेगा। उनको तो गुस्से की आग से पिघलना ही पड़ता है। वो गुस्सा कब आएगा, धैर्य कब टूटेगा इस पर टकटकी है।सरेआम दोपहर में लुटेरों ने लाखों की लूट कर ली पुलिस ने पुख्ता नाकाबंदी की मगर कोई पकड़ में नहीं आया। बीच बाजार चाकूबाजी, गुटों की लड़ाई हो गई पर पुलिस तो सूचना देने के बाद आई। पता नहीं महकमे की मोबाइल टीमें कहां गई, मोटर साइकिलें लेकर वे टीमें कहां घूमती हैंधार्मिक-सांस्कृतिक इस नगरी को छोटी काशी का नाम देने वालों को अब लोग झूठा साबित करने में लगे हैं। अवैध शराब पकड़ी जा रही है मतलब बिकती तो है ही। इतनी घटनाओं के बाद भी राजनीतिक हलके की चुप्पी सोचने को मजबूर करती है। इन सब पर यदि पुलिस ने जनता से अपने स्तर पर मिलकर प्रयास नहीं किए तो संस्कृति की जगह नए रिकार्ड बन जाएंगे जो शर्मसार करने वाले होंगे। इन सबका निदान समूह में निहित है, समूह परेशान और बेचैन भी है। पर इसे राज काज वाले पढ़ नहीं पा रहे रहे हैं, जो उनकी सेहत के लिए अच्छी बात तो नहीं मानी जा सकती। उनको शायद ये पंक्तियां याद नहीं है- ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के...