मातृभूमि पर जब कभी संकट आता है, वह हमें व्यथित करने लगता है। जब मां भारती परतंत्रता की बेडियों में बंधी दुःख के आंसू बहा रही थी, तब सभी देशवासियों ने उसे स्वतंत्र कराने के लिए कुर्बानियां दीं। जिसकी धूलि में लेट-लेट कर हम बड़े हुए, जिसने हमें रहने के लिए अपने अतुल अंक में आवास दिया, उसे कोई बंधन में कैसे देख सकता है। पत्थर ह्दय ही होगा कोई जो इस भांति मातृभूमि को पराधीन देखकर भी निष्ठुर बना रहे। कवि ने सही कहा है-
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं
वह ह्दय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
यह स्वदेश प्रेम ही है, जिसने आजादी के आंदोलन में सभी देशवासियों को संगठित रूप से अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए प्रेरित किया और अंततः अगस्त, 1947 को हम स्वतंत्र हुए, भारत मां ने स्वतंत्रता की खुली सांस ली।
देश की सर्वांगीण उन्नति के लिए देशप्रेम परम आवश्यक है। जिस देश के निवासी अपने देश के कल्याण में अपना कल्याण, अपने देश के अभुदय में अपना अभ्युदय, अपने देश के कष्टों में अपना कष्ट और अपने देश की समृद्धि में अपनी सुख-समृद्धि समझते हैं, वह देश उत्तरोत्तर उन्नतिशील होता है, अन्य देशें के सामने गौरव से अपना मस्तक ऊंचा कर सकता है।
ऐसे देशभक्तों की जनता सच्चे मन से पूजा करती है। राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी ने ऐसे देशभक्तों के प्रति एक मानसिक उद्गारों को इन शब्दों में व्यक्त किया है-
मुझे तोड़ लेना ओ वनमाली, उस पथ में देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक।।
यह देशभक्ति का जज्बा ही है जिसने देश की स्वाधीनता की रक्षा के लिए देशभक्तों को हंसते-हंसते अपने प्राण न्यौछावर करने को तत्पर किया। हमारे भारत वर्ष में देशभक्तों की उज्जवल परंपरा रही है। चंद्रगुप्त मौर्य के समय में सिकन्दर के आक्रमण को रोकने के लिए छोटे-छोटे राजाओं ने जिस वीरता का परिचय दिया, वह भारत के इतिहास में अद्भुत है, उस देश भक्ति का परिणाम यह हुआ कि सिकन्दर व्यास नदी से आगे बढ़ पाने में असमर्थ रहा। चन्द्रगुप्त मौर्य ने उसे इतनी बुरी तरह खदेड़ा कि शताब्दियों तक वे भारत की ओर मुंह करने का दुस्साहस नहीं कर सके। चन्द्रगुप्त के पश्चात् पुष्प मित्र, समुद्रगुप्त, शालिवाहन, विक्रामादित्य आदि राजाओं ने देश को विदेशी आक्रमणकारियों से मुक्त कराने के लिए घोर युद्ध किए और सफलता प्राप्त की मुगल शासन काल में महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, छत्रसाल, गुरूगोविन्दसिंह आदि देशभक्त वीर अत्याचारी शासन के विरूद्ध लड़ते रहे।
अंगे्रजों के शासन काल में सन् 1857 में भारत के लाखों वीरों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर किया और यह क्रम सन् 1947 तक चलता रहा। लोकमान्य तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, पं मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपतराय, महात्मा गाँधी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, पं.जवाहर लाल नेहरू, भगतसिंह आदि न जाने किन-किन देशभक्तों के नाम लें... जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए स्वयं के सुखों का परित्याग किया, अनेकानेक कष्ट सहे, जेलों में रहे, यातनाएं सहीं क्योंकि उनका एकमात्र ध्येय था देश की स्वाधीनता।
आज हम स्वतंत्र हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात सभी क्षेत्रों में हमने उन्नति की है। विश्व समुदाय हमारे सामर्थ्य, हमारी क्षमता का लोहा स्वीकार करने लगा है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था सबकों सम्मोहित करती रही है। हम आज भी बहुजन हिताय बहुजन सुखायं के सिद्धांत को अपनाए हुए हैं। हम ईसा मसीह के इस संदेश को भी आत्मसात किए हुए है कि अपने पड़ोसी को अपनी तरह ही प्यार करो। किन्तु दुःख इस बात का है कि कुछ ऐसे तत्व राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रीय भक्ति में बाधा डालने की असफल चेष्टा मे लगे हैं। वे हैं- साम्प्रदायिकता, अलगाव वादी प्रवृति, प्रांतीयता की भावना, भाषायी उन्माद, संकीर्ण एवं स्वार्थी मनोवृति, पड़ोसी देशों का अशोभनीय व्यवहार आदि।स्वतंत्रता आंदोलन के समय मातृभूमि के प्रति जैसा श्रद्धाभाव, जैसी त्याग और समर्पण भाव था, वैसा अब दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। हम हमारे कर्तव्यों को विस्मृत कर रहे हैं और अधिकारों के प्रति अतिशय सजग नजर आते हैं। राष्ट्रहित से ज्यादा अहमियत अब स्वहित को दी जाने लगी है। इसलिए आज का लोकमन विचलित है। लोक यानी आमजन चाहता है कि देश का सर्वागीण विकास हो, उसके और राष्ट्र के विकास हेतु जो योजनाएं बनी हुई है, उनका पूरा का पूरा लाभ मिले किन्तु स्वार्थी तत्व उन योजनाओं से अपना हित साधन करने की चेष्टा में लगे दिखते हैं। आमजन को यह अहसास ही नहीं हो रहा है कि साल का कोई एक दिन उसका अपना भी है। शायर राजेश रेड्डी के शब्दों में कहें तो
बरसों हम इस इंतजार में कैलेंडर के साथ जिए। जागा इक दिन आएगा कोई एक हमारा दिन
स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी लोगों को भूखा सोने को विवश होना पड़ रहा है। भूख से सताये विचलित लोकमन के भावों को शायर मोहम्मद उस्मान आरिफ ने यूं शब्द दिए हैं- कितनी सदियों में खुदा जाने यह अच्छा होगा भूख का रोग जो सदियों से सताए है मुझे। भूख का रोग उसे इसलिए सताए हैं, क्योंकि ऐसे लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है जिनकी गगनचुम्बी इमारतें बन रही हैं, जो धनबल बाहुबल के समक्ष किसी को कुछ नहीं मानते वे सिर्फ और सिर्फ स्वयं के हितों की पूर्ति में लगे हैं, जिनके लिए राष्ट्रीयता, मानवीय मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं है, ऐसे में आदमी टूटता जा रहा है और विचलित होता जा रहा है। बकौल शायर डॉ शेरजंग गर्ग- मेरे समाज की हालत सही सही मत पूछ।मेरे समाज की हालत सही सही मत पूछ। कहां कहां से गया टूट आदमी मत पूछ
ऐसे हालात में लोकमन में यह विचार उठने लगता है कि अब इस जिंदगानी का क्या मकसद रह गया है। लोकमन मे इस दर्द को शायर दुष्यंत कुमार ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-जिंदगानी का कोई मकसद नहीं है।एक भी कद आज आदमकद नहीं है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लोकमन ने सपने बुने, वह उन सपनों को साकार होते देखना चाहता है किन्तु सपने हैं कि सपने ही बने हुए है, उसके लिए सभी सुख पराए बने हुए हैं और वह दुखी बना हुआ है। जनकवि हरीश भादाणी के शब्दों में कहें-सभी सुख दूर से गुजरेंगुजरते ही चले जाएंमगर पीड़ा उपचारसाथ चलने को उतारू हैं
मित्रों, पीड़ा उपचार साथ नहीं चलेगी । कुछ ही हैं जो आमजन के सपनों को छीनने की कुत्सित चाल में संलग्न है। आमजन में आज भी राष्ट्रभावना कूट कूटकर भरी हुई है, उनमें मानवीय गुणों की कमी नहीं है, वे सबका कल्याण चाहते हैं और यही कामना करने हैं कि हमारा देश उत्तरोत्तर उन्नति के पथ पर चलता रहे, विश्व में उसका परचम लहराए। हमें ऐसे लोगों की भावनाओं का आदर करना है और उनके विचलित मन को आश्वस्त करना है कि समाज और राष्ट्र को नुकसान पहुंचाने वाले स्वार्थी मनोवृति के लोगों का सामूहिक स्तर से सामना करेंगे। लोकमन रूपी दिए में तेल से भीगी हुई बाती मौजूद है, जरूरत उन्हें आत्मबली बनाने के लिए एक चिनगारी लाने की है जैसा कि दुष्यंत कुमार ने कहा है-एक चिनगारी कहीं से ढूंढ़ लाओं दोस्तों। इस दिए में तेल भीगी हुई बाती तो है।।
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