शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

वो सब के सब परीशां हैं वहां क्या हुआ होगा...
आग लगने पर कुआं खोदने की कहावत बहुत पुरानी है मगर शाश्वत है। जयपुर में तेल डिपो की आग लगी तो पूरा प्रदेश हिल गया। देश की इस सबसे बड़ी आग ने हर किसी को झकझोरा। इस बार केवल हादसे की संवेदना ही लोगों के मन में नहीं थी अपितु मानवीय चिंता भी केन्द्र में थी। देश-प्रदेश के साथ बीकानेर के लोगों के मन में भी चिंता की लकीर खींच गई। यहां के लोगों को अपने हालात का जायजा लेने की बात याद आई। शहर के बीचोंबीच बने पेट्रोल पंप या आबादी के पास बने गैस गोदामों का अक्स यकायक उनके सामने खिंच गया और भय की रेखा ने झकझोर दिया। जयपुर की घटना से उपजी सहानुभूति ने एक आशंका भी जगा दी। जिनको तथ्य पता नहीं थे उन्होंने जुटाने शुरू कर दिए। सच्चाई यह है कि बीकानेरवासी भी खतरे के मुहाने पर हैं, ईश्वर ने अब तक रक्षा की है इससे तसल्ली है। आने वाले समय में खतरा कितना नुकसान कर सकता है इसका अंदाजा हर कोई लगाने में लग गया है। जाहिर है प्रशासन के दिमाग पर भी सलवटें आई है। पुलिस ने आज ही सीओ और एसएचओ को अपने इलाके के पेट्रोल पंपों व गैस गोदामों के हालात बताने का आदेश दिया वहीं प्रशासन ने भी अपने स्तर पर रिपोर्ट तैयार करने की जल्दबाजी दिखाई है। पर यह सब आज ही क्यों, पहले ऐसा क्यों नहीं। यदि पहले ऐसा किया जाता तो शायद आग लगने पर कुआं खोदने की कहावत झूठी साबित हो जाती ना।
ऐसा नहीं है कि छोटे मोटे हादसों से यह शहर अछूता रहा है। आयुध डिपो में लगी आग ने पूरे शहर को दहशत में ला दिया था और हरेक प्रभावित हुआ। उसके बाद सेना ने अपने स्तर पर गोपनीयता रखते हुए नीतिगत निर्णय भी किया। मीडिया समय-समय पर गैस गोदामों व पेट्रोल पंपों की हालत की पड़ताल करता रहा है मगर प्रशासन ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। ऐसा नहीं है कि लोगों को इस व्यवसाय से कोई एतराज है। पर प्रशासन चाहे तो सुरक्षा के आधार पर शहर व घनी आबादी के मध्य आए इन स्थानों को दूरस्थ जगह जमीन आबंटित कर सकता है। बड़ी दुघüटना के बाद ऐसा करेंगे इससे तो बेहतर है पहले ही ऐसा सोच लिया जाता। इस व्यवसाय से जुड़े लोग भी प्रस्ताव मिलता तो शायद हामी ही भरते। जिस समय इनको बनाया गया उस समय इतनी आबादी नहीं थी ये विस्तार तो बाद की देन है। शहर व आबादी का विस्तार कोई प्रशासन से छिपा नहीं होता। उनको जब जमीनों का आबंटन करने में इंट्रेस्ट दिखाया जाता है तो ऐसे रिस्की व्यवसायों के लिए जमीनों का प्रावधान क्यों नहीं किया जाता।
प्रशासन ने अपने स्तर पर कभी भी इन स्थानों की सुरक्षा व्यवस्थाओं का जायजा नहीं लिया। इन व्यवसायियों से पहल करके कोई बात नहीं की। जो खामियां रही उसकी सजा तो आम जनता को भुगतनी होगी इस पर ध्यान कौन देगा। एक बार फिर जयपुर हादसे ने सोचने को मजबूर किया है। अब भी चेतने का समय है यदि इस बार भी केवल जबानी जमाखर्च हुआ तो आने वाली पीढ़ियां और समय आज को माफ नहीं करेगा। जनता को अपने हक के लिए जागने की आवश्यकता है तो जन प्रतिनिधियों को भी अपने दायित्त्व को पूरा करने का अवसर है, इसमें चूक सही नहीं हो सकती। स्व. दुष्यंत ने कहा भी है- गजब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते, वो सब के सब परीशां हैं वहां क्या हुआ होगा।

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा...
बीकानेर संभाग इन दिनों पानी पर संघर्ष कर रहा है। घड़साना से खाजूवाला तक महापड़ाव या महापंचायत के जरिये किसान अपनी बात कह रहा है। दूसरी तरफ सरकार नहर में पानी की स्तिथि के बारे में हर दिन अपना पक्ष रख रही है। पिछली सरकार के समय पानी की लड़ाई में जानें गई थी इसका अहसास सरकार को है इसलिए मामले को पहले दिन से ही गंभीरता से लिया जा रहा है। मूल समस्या को लेकर दोनों पक्ष अब भी गंभीर नहीं है। राजस्थान को पानी पंजाब से मिलता है। पानी हमेशा पंजाब-राजस्थान व केन्द्र के बीच राजनीति का विषय रहा है। पानी के समझौते की पालना को लेकर कभी भी बिना राजनीति बात नहीं होती। किसान यदि अन्न पैदा करता है तो वो किसी एक राज्य का अधिकार नहीं होता अपितु समूचे देश का उस पर अधिकार होता है। नहर के पहले व दूसरे चरण के मध्य भी पानी को लेकर अपनी तरह की राजनीति चलती है। सरकार के पास पानी नहीं है और किसान बिना पानी जी नहीं सकता, दोनों अपनी जगह सही हैं। इस बार कुदरत ने भी साथ नहीं दिया। बरसात औसत से काफी कम हुई। किसान सही है या सरकार, इस बहस में जाना नहीं चाहता। सोचने का विषय तो यह है कि जब पानी की सीमितता है तो सिंचित क्षेत्र खोलने और जमीनें बेचने का काम एकबारगी रोका क्यों नहीं जाता। जितना पानी है उसी का सही बंटवारा तभी संभव है नहीं तो ऐसे आंदोलन स्वाभाविक है। इस मसले पर नीतिगत निर्णय आवश्यक है। एक तरफ वामपंथी पानी को लेकर रंग दिखा रहे हैं तो दूसरी तरफ भाजपा व बसपा के रास्ते छोड़कर अकेले ही लड़ रहे गोविंद मेघवाल ने भी आंदोलन का बिगुल बजाया हुआ है। उनका मांग पत्र लंबा है पर वो भी पानी के रंग में अवश्य रंगा हुआ है। पानी रंग दिखा रहा है जिस पर सरकार को हल निकालना ही होगा नहीं तो विषम हालात बन जाएंगे जिसकी सजा आम लोगों को भी भुगतनी पड़ेगी। कहा भी है- रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
वार्ड एमएलए बनने की ललक
नगर निगम के वाडो का परिसीमन हो गया जिसके साथ ही राजनीतिक दलों की चौसर बिछनी भी शुरू हो गई। कई दिग्गजों के वार्ड प्रभावित हुए उनको नए ठोर की तलाश है। लेकिन इस बार वार्ड एमएलए बनने की ललक पिछली बार से ज्यादा है लोगों में। जब से निगम में ठेकेदारी के व्यवसाय का राजनीतिकरण हुआ है तब से वार्ड एमएलए बनने की लिप्सा ज्यादा जगी है। सभी तो नहीं पर बड़ी संख्या में निर्वाचित हुए पार्षद ठेकेदार बन गए। राजनीति का ककहरा सिखाने वाला यह स्थानीय निकाय सेवा का केन्द्र बनने के स्थान पर व्यवसाय का केन्द्र बनने लगा है, यह चिंता का विषय है। एक तरफ राजनीति और दूसरी तरफ व्यवसाय, कहां जाएगा निगम।
जाना एक जनकवि का
रोटी नाम सत है.. जैसे जनगीत का रचयिता लाड़ला कवि हरीश भादानी चला गया। जिसने शब्दों को नए अर्थ दिए, भावों को नए तेवर दिए। उनके जाने का मलाल पूरे साहित्य जगत को रहा। साहित्य का ऐसा सम्मान ही समाज के संस्कारित होने प्रमाण है। साहित्य के सामाजिक सरोकार की बात जब भी उठेगी तब भादानी को अवश्य याद किया जाएगा। भादानी का रचनाकर्म एक आयामी नहीं था अपितु जीवन का ऐसा कोई रस नहीं था जिस पर उन्होंने न लिखा हो। एक सांचे में ढालकर उनके साहित्य का मूल्यांकन ही नहीं किया जा सकता। डॉ. नंदकिशोर आचार्य से उनकी हुईअंतिम बात इस बात की साक्षी है कि वे मुकम्मिल इंसान थे और शब्द उनका जीवन था। उसको विचारों के सरमायेदारों ने कभी प्रभावित नहीं किया। विचार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता शायद इसी कारण मजबूत थी क्योंकि वे इंसानियत से उसे जोड़ते थे। ऐसे जनकवि कभी-कभार ही बनते हैं। साहित्य को फिर एक जनकवि की तलाश रहेगी जो सड़क, चौपाल को अपना मंच माने और लोगों की जबान में उनकी बात कहे।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

जनरंजन

अतीत के गौरव से हो वर्तमान का आकलन

इंदिरा गांधी नहर की उम्र ५१ साल हो गई। थार मरूस्थल की इस जीवन रेखा ने बीकानेर, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, झुंझनूं व नागौर जिलों को वरदान दिया है। दो बूंद पानी को तरसने वाले इन इलाकों की प्यास बुझाने के साथ अन्न का उत्पादन भी किया है।१९५८ में जब इस रेगिस्तान में नहर लाने की परियोजना बनी तो लोगों को विश्वास नहीं हुआ पर इससे जुड़े अभियंताओं व कार्मिकों ने सपने को साकार किया। विषम हालात में रहकर नहर का निर्माण किया। इस गौरवशाली अतीत को नमन करते हैं तो वर्तमान की तस्वीर भी सामने आती है। अहसास होता है कि अतीत से जिस इमारत की उमीद थी वो ऐसी तो नहीं थी। आज नहर क्षेत्र में किसान का आक्रोश चरम पर है इसका कोई तो कारण होगा। नहर दिवस पर ऐसे ही ज्वलंत विषयों पर चिंतन समय की आवश्यकता है।
नहरी क्षेत्र है फिर भी अकाल, ऐसा कैसे। जाहिर है नीतियों में कहीं न कहीं कमी रही। नहर किनारे चरागाह विकसित किए जाने थे पर नहीं हुए इसी कारण ऐसे हालात बने। फसलें सूख जाती है, पानी पर स्थायी फैसला क्यों नहीं होता। केन्द्र व राज्य में एक ही दल की सरकार है पर पंजाब से 0.5 एमएएफ पानी पर फैसला नहीं हो रहा, क्यों। यदि पंजाब से यह पानी मिल जाए तो अधूरी छह लिफ्टों को पूरा पानी मिल सकता है। कंवरसेन व हनुमानगढ़ में उपजी सेम समस्या का हल भी नहीं खोजा जा सका है। कहने को दो चरण हो गए इस नहर के इसलिए भी कई समस्याएं पैदा हुई। एक नहर तो नजरिया भी एक होना चाहिए। जल वितरण को लेकर ही ज्यादा बवाल होता है, जाहिर है राजनीति जहां प्रवेश करेगी वहां यह सब तो होगा, इससे परियोजना का ध्येय तो नष्ट होगा ही। इसी कारण किसान वरदान का प्रसाद लेने के बजाय हक के लिए लड़ता ही रहता है। फव्वारा सिस्टम को लेकर हो रही राजनीति भी ठोस हल की तरफ खेती को ले जाने से रोक रही है, किसान व परियोजना अभियंताओं के बीच संवाद ही इसका हल है। पानी की वर्तमान दशा को देखते हुए इस सिस्टम को अपनाना अब समय की मांग है। इस यथार्थ को हम नहीं नकार सकते कि राजनेता ने जिस तरफ चाहा नहर को मोड़ा। जब पानी सीमित है तो सिंचाई का क्षेत्र भी सीमित होना चाहिए, पर उसे निरंतर विस्तार दिया जा रहा है। यह यथार्थ की अनदेखी है। नहर दिवस के मायने तभी हैं जब हम इसको बनाते-बनाते शहीद हुए अभियंताओं व मजदूरों की कुर्बानी का ध्येय पहचानें। स्वार्थ के पेटे स्वरूप को न बिगड़ने दें। सरकारें भी सस्ती लोकप्रियता के बजाय तकनीकी कारणों का परीक्षण कर निर्णय करे। सबसे बड़ी मानव श्रम की इस परियोजना पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाला समय कई नई चुनौतियां खड़ी कर देगा।
कोई तो आए सामने
बीकानेर में हाइकोर्ट की बैंच को लेकर वकील व आम आदमी लंगे अर्से से आंदोलनरत है। अदालतों में काम ठप है फिर भी कोई बात करने के लिए सामने नहीं आ रहा। सरकार है, सिस्टम है-कोई पहल तो करे। हर बात पक्ष में है फिर भी बीकानेर संभाग की अस्मिता की रक्षा के लिए चल रहे इस आंदोलन से कोई सरोकार नहीं दिखा रहा। राजनीतिक सीमाओं को तोड़कर यहां के नेताओं ने एक जाजम पर आने का काम किया फिर भी बात नहीं सुनी जा रही। वकीलों के साथ आम आदमी के मन में पनप रहे आक्रोश को पहचानने में अब देरी हुई तो अच्छे परिणाम नहीं आएंगे।

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

हरीश भादानी को नमन
शब्द ढूंढेंगे संस्कार का जरिया
शब्द से पहले खुद को संस्कारित होना पड़ता है। उसके बाद उस शब्द को संस्कारित करना होता है फिर वो अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है। लोगों के दिल तक पहुंचता है। आजीवन शब्द की साधना करने वाले शब्द शिल्पी हरीश भादानी ने इसी धारणा पर हिन्दी व राजस्थानी को कई नए शब्द गढ़कर दिए। शब्द उनकी जुबान या कलम पर आते ही अपनी पहचान, भाव व संवेदना पाता था। सीधी जुबान में आम आदमी तक गहरी बात पहुंचाने का कवि के पास जरिया केवल शब्द होते हैं और भादानी के पास यही सबसे बड़ा शस्त्र था। आज के बाद कई शब्द संस्कार पाने को भटकेंगे। शब्दों का ऐसा चितेरा कहां मिलेगा जिसके पास शब्दों व भावों को एकमऐक करने की बळतं हो।
शब्दों के इस शिल्पकार की इसी खासियत के कारण कुछ उन्हें गीतकार कहते थे तो कुछ कवि। कुछ नाटककार कहते थे तो कुछ कहानीकार। शब्दों की इसी कारीगरी के कारण वे राजनीतिक विचारक बने। अपने साहित्य में जहां उन्होंने विचार को धरातल दिया वहीं उसके कलात्मक पक्ष को कभी कमजोर नहीं होने दिया। कथ्य व शिल्प का सही मिलाप उनकी हर रचना में था। नई पीढ़ी के वे संवाहक थे इसीलिए शहर का नव साहित्य अपने बचपन में ही जवान नजर आता है। शब्द की बाजीगिरी तो कई दिखाते हैं मगर शब्द को जीने वाले बिरले ही होते हैं। विचार उनके लिए जीने का तरीका था तो शब्द उनकी सांसें। साहितियक गोष्ठियों, परिचर्चाओं व मंचीय कवि सम्मेलनों को ऊर्जा देने वाले इस इंसान की याद तो कभी नहीं मिटेगी। सड़कवासी राम के इस रचयिता को मिले सभी पुरस्कार उनके सामने बौने थे। उनको तो सड़क, चौक, चौपाल पर कविता पढ़ने में आनंद आता था। गांवों की चौपाल में घरबीती रामायण सुनाते वे समाजशास्त्री बन जाते थे तो नष्टोमोह उनको मनीषी साबित करा देती थी। जीवन जीया पर एक जैसा कभी उसे परिस्थिति के अनुसार नहीं बदला। उन्होंने एक कविता में कहा भी है अब बदलो तो गुनहगार हो हरीश, वहीं रंगत, वहीं ख्याल, वहीं राह है हरीश...। बदला तो परिवेश, हालात और उनके आसपास के लोग, भादानी कभी नहीं बदले। अंतिम सांस तक भी कुछ कहने की बळत बताती है कि शायद वे मौत को भी नया संस्कार देने की जिद रखते हैं। तभी तो देह का दान किया पंचतत्व में विलीन करने की इच्छा त्यागी। शब्द के संस्कारी का जाना एक साहितियक युग का अंत होने के समान है जिसकी भरपाई होनी मुश्किल है, यह सत्य है सिर्फ कहने की बात नहीं है।