शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

आते-जाते रहेंगे या ठहरेंगे भी वीआईपी
मरूभूमि की यह छोटी काशी आजादी के 62 साल बाद भी आशाभरी निगाहों से वीआईपी के आने-जाने को देख रही है। अनेक आए, वादे किए और आश्वासन दिए मगर इस धरती की बात नहीं सुनी। जो कहा वो किया या नहीं, इसका भी मूल्यांकन नहीं किया। एक बार फिर राज बुधवार रात बीकानेर आया, शहर फिर अपने हक, अपनी अस्मिता, अपने वजूद पर बहुत कुछ कहना-जानना चाहता है। बात अवसर की है, शायद इस बार भी जनता को वो नहीं मिले। उत्तर भारत का नायाब हार्ट सेंटर गुरुवार को आरम्भ होगा जिसका श्रेय राज भले ही ले मगर स्थानीय उद्यमी परिवार का उसमें पहला व बड़ा योगदान है। इस सेंटर से शहर की साख बढ़ेगी जो सुविधा के साथ पहचान दिलाएगी इसमें कोई सन्देह नहीं।
शहर अब भी हाइकोर्ट बेंच, केन्द्रीय विवि, ओवर ब्रिज, शहर को दो भागों में बांट रहे रेलवे फाटकों, रवीन्द्र रंगमंच, महाराजा गंगासिंह विवि की सुदृढ़ता, वेटेरनरी विवि की शुरुआत जैसे अनेक मसलों पर राज की राय और नीयत जानना चाहता है। यहां पानी जितना गहरा है उतने ही यहां के लोग भी गहरे हैं पर उनके सब्र का पैमाना अब छलकने लगा है। व्यास समिति की सिफारिश के बाद भी केन्द्रीय विवि पर बना असंशय शहर को सहन नहीं हो रहा। विकास के सन्तुलन की बात तो कही जाती है पर हर बार बीकानेर संभाग को क्यों नज़रअन्दाज किया जाता है, यह मलाल हरेक के मन में है जो अब तीखे तेवर में बदलने लगा है। शहर क्या पूरा संभाग अपने हक के लिए दलीय सीमाएं तोड़कर एक मंच पर आया फिर भी उपेक्षा मिली उससे तिलमिलाहट होना स्वाभाविक है। एक बार फिर सरकार के मुखिया बीकानेर में है तो आशाएँ बलवती हुई है यदि उन पर गौर नहीं हुआ तो पनप रही विरोध की चिंगारी को हवा मिल जाएगी। संभाग के लोग एक सुर में आजकल गाने लग गए हैं-
हम होंगे कामयाब,
मन में है विश्वास पूरा है विश्वास।
इसके मायने समझ लिए जाने जरूरी है।

निगाहें दूसरे वीआईपी पर भी है
गुरुवार को दूसरी वीआईपी राज्य की पूर्व मुखिया भी शहर में रहेंगी। ऐसा नहीं है कि इस पर जनता की नज़र नहीं है यहां भी उसके दिमाग में सवाल है जो उत्तर तलाशेंगे उनके दौरे से। एक साल बीत गया चुनाव हुए, शहर या शहर के लोगों की कितनी सुध ली गई इसका लेखा-जोखा शायद जनता के पास ज्यादा है। सूरसागर झील, चौड़ी सड़कें, नई रोशनाई सहित कई काम हुए पर उनकी सुध ली गई या नहीं यह भी यहां के लोग जानते हैं। राजनीतिक दुराग्रह-पूर्वाग्रह नेताओं व दलों के बीच का पावर गेम है पर उसमें जनता को नज़रअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए। यह भी गफलत नहीं होनी चाहिए कि इससे आम नागरिक अन्जान रहता है। उसकी पैनी निगाह सब देखती है, सब जानती है। तभी तो कहा है- ये पब्लिक है ये सब जानती है।
ये कैसी संवेदनशीलता
गणतन्त्र दिवस पर साहित्य-कला-संस्कृति-समाज सेवा जैसे क्षेत्रों के लोगों को सम्मानित करने का मसला इस बार फजीहत बन गया। आश्चर्य इस बात का है कि यह काम इस बार प्रशासनिक हलके से हुआ। न्यास की पुरस्कार समितियों में क्षेत्र के सम्मानितों के साथ प्रशासनिक लोगों को शामिल करना न तो संवेदनशीलता का परिचायक है नहीं पारदर्शिता का। दुख तो इस बात का हुआ कि प्रशासनिक गीत गाने वाले लोगों के एक समूह ने इस अविवेकी निर्णय की पैरवी भी शह पर शुरू की, शेम। इन क्षेत्रों में दखलअन्दाजी की कोशिश का यह पहला नमूना था जो कोई भी शालीन नागरिक सही नहीं मानता। राज्य के मुखियाजी के संवेदनशील व पारदर्शी शासन की बात की ताईद भी नहीं करता। इस विवाद से सृजनधर्मी समाज आहत हुआ है जिसके बुरे परिणाम तो आने वाले समय में मिलेंगे। शायर नदीम ने कहा भी है-
शहर में हरसू तेरे ही चर्चे है जालिम, कोई तो बताए कौन किस दाम बिका है।

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

आज अपने बाजुओं को देख, पतवारें न देख...
साझा चूल्हा, साझी सीर और साझा सपना जैसी बातें पतनशील राजनीति में सोचना भी पाप है मगर नगर निगम की साधारण सभा की बुधवार को हुई बैठक ने इस सोच को गलत सिद्ध कर दिया। उपभोक्तावादी संस्कृति में जहां मानवीय मूल्य अस्मिता के लिए झूझ रहे हैं वहां राजनीतिक मूल्यों का ऐसा जानदार नजारा मिले तो आश्चर्य तो होता ही है। जनता से पहली बार सीधे महापौर चुने गए, लगा सरकार का निर्णय सही है। महापौर व पार्षदों के मध्य का ऐसा रिश्ता एक मिसाल है जिसे कोटा, जयपुर व जोधपुर के निगम को बताया जाना चाहिए। किसी काम में झगड़ा नहीं- केवल विचार मन्थन, विरोध की जगह विकास की बात, पक्ष विपक्ष की पारंपरिक राजनीतिक दूरियां नहीं, पता नहीं ऐसे कितने ही रिकार्ड आज की निगम साधारण सभा में बने। साझी राजनीति की एक नई डगर पर जाने की शहर ने कोशिश की है जो भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है। जिन लोगों ने अपने पार्षद व महापौर को चुना उनको भी पहली बार एक नए शुकुन का अहसास हुआ है, नई आशा बंधी है।
मूलभूत आवश्यकताओं के लिए जदोजहद करने की आदत से आहत लोगों को लगा है कि अब शहर की सरकार उनके द्वार तक अपने आप पहुंचेगी। इस माहौल का जितना श्रेय नए महापौर व उनके दल को दिया जाना चाहिए उससे कहीं अधिक श्रेय विपक्षी दल के पार्षदों को दिया जाना चाहिए। जिन्होंने सच्चे मन से महापौर को अपने परिवार का मुखिया मान उसमें विश्वास जताया। निगम नेतृत्व की इससे जिम्मेवारी बढ़ गई है क्योंकि पार्षद के साथ आम लोगों का विश्वास भी उनसे जुड़ा है। मामला विश्वास का है इसलिए रिश्ता नाजुक बन गया है अब यदि संवेदना के तार में कहीं चोट पहुंची तो मन टूटेगा। जो शायद कोई नहीं चाहता होगा।
निगम में नए पार्षदों ने जिस परिपक्वता को दर्शाया वो कल्पना से परे था। संभागीय मुख्यालय होने के बाद भी यह शहर अभी विकास से कोसों दूर है। दो सड़कें चौड़ी होने पर ही यहां का बाशिन्दा इतना प्रफुलिल्त हो जाता है तो सोचिए पूरा शहर वैसा हो जाएगा तो उसकी खुशी का ठिकाना भी नहीं रहेगा। बोर्ड का संकल्प स्व. दुष्यन्त की इन पंक्तियों की याद दिलाता है- एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख। अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह, यह हकीकत देख मगर खौफ के मारे न देख। वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे, कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।
अब सरकार की बारी
शहर की सरकार के मुखिया और उसके पार्षदों ने विकास के लिए कर्ज लेकर उसे चुकाने का मादा दिखा दिया अब तो बारी राज्य सरकार की है। पक्ष विपक्ष ने जताया कि वे विकास चाहते हैं, इसके लिए जो कर्ज लेंगे उसे चुकाने का मादा भी उनमें है। ऐसी सोच पहली बार सामने आई है। सरकारों की तरफ से हाशिये पर रखे जाने वाले बीकानेर ने एक नई अंगड़ाई ली है इसलिए अब राज का रवैया बदलने की चाह भी जगी है। आर्थिक रूप से कमजोर बीकानेर नगर निगम के लिए विशेष पैकेज अब बोर्ड नहीं यहां की जनता की मांग है जिसे माना ही जाना आवश्यक है। सरकार को समझना चाहिए कि यह शहर की बात है किसी दल या बोर्ड की नहीं। यदि इतनी साझी सीर के बाद भी नज़रअन्दाजी रही तो सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती है। बीकानेर के बारे में कहा भी गया है कि यहां जितना गहरा पानी है उतने ही गहरे यहां के लोग हैं इसलिए उनकी अस्मिता से कोई छेड़खानी नहीं होनी चाहिए। शहर विकास के लिए एक राह पर चला है तो सरकार को भी आगे बढ़कर हाथ थामना चाहिए तभी एक सुर निकलेगा और विकास की सरगम बजेगी। जय हो- नारा भी सार्थक होगा।

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

संदूक से वो खत तो निकालो यारों...
करोड़ों की सरकारी नजूल संपतियां को लेकर फाइलों का कारोबार अर्से से चल रहा है पर सम्पतियों का निस्तारण आज भी नहीं हुआ। जनता की गाढ़ी कमाई वाली ये इमारतें ग्रामीण इलाकों में है जिनको बेचकर करोड़ों कमाए जा सकते हैं और साथ में संभावित दुघटनाओं को भी रोका जा सकता है। सरकार में कहते हैं फाइल नौ दिन में अढ़ाई कोस चलती है जिसके कारण ही वांछित को न तो लाभ मिल पाता है और न ही शहर, प्रदेश का भला होता है। अनेक सरकारी योजनाएं इस कारण फलीभूत नहीं होती क्योंकि उनकी जानकारी आम आदमी तक को देने की जहमत सरकारी अमला नहीं उठाता। समाज कल्याण विभाग की योजनाएं तो केवल फाइलों में ही दम तोड़ देती है। सानिवि एक ऐसा महकमा है जहां जन संपतियां दर-दर की ठोकरें खाती है। इस विभाग का एक हिस्सा ऐसा है जहां मशीनें है और उनका किराया निजी मशीनों से कम है फिर भी ठेकेदार उनका उपयोग नहीं करते। लाखों की तनख्वाह वाले कार्मिक यहां काम करते हैं पर आमदनी सैकड़ों में भी नहीं होती। यह जिजीविषा की कमी का नतीजा ही है। शिक्षा विभाग महीनों से अपनी बेकार पड़ी सम्पतियों को बेचने की बात ही कर रहा है। नहर, जलदाय, वन आदि विभागों में भी बेकार पड़ी सम्पतियों की यही हालत है। जितनी तीव्रता वेतनमान पाने, अवकाश पाने में होती है उससे आधी ही यदि इन कामों को करने में हो जाए तो जनता के अरबों रुपए विकास में लग सकते है। कमजोर कानून और अधिकारियों पर लगाम न होने के कारण ही ऐसे हालात बने हैं। सुधार की कहीं से तो शुरुआत करनी ही होगी, किसी न किसी की जिम्मेवारी तय करनी पड़ेगी ताकि दंड विधान जो बने हुए हैं उनको लागू किया जा सके। जनता फरियादी की तरह अभी तो देख रही है जिस दिन उसने नजरें बदल ली तो राज और काज दोनों को भारी पड़ेगा। स्व। दुष्यंत का शेर हालात का सही बयां करता है- आज सीवन को उधेड़ो तो जरा देखेंगे, आज संदूक से वो खत तो निकालो यारों। रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया, इस बहकती दुनिया को संभालो यारों।
नहर कैसे बुझाएगी धरती व लोगों की प्यास
दुनिया की सबसे बड़ी मानव निर्मित परियोजना इंदिरा गांधी नहर का ध्येय थार मरूस्थल की प्यास बुझाना था पर अविवेकी निर्णयों से अब उस पर संकट खड़ा होने लग गया है। हर साल की तरह इस बार भी बीएफसी में नहर अभियंताओं व कार्मिकों के पद बड़ी संख्या में तोड़े गए हैं। नहर बन गई और सिंचित क्षेत्र खोलकर लोगों की उम्मीदें भी जगा दी गई। दूसरी तरफ पंजाब से पानी कम मिल रहा है जाहिर है इससे पानी के लिए किसानों में मारामारी है। पानी चोरी के जहां मुकदमें अधिक हो रहे हैं वहीं टेल के किसान की जमीन तो बिल्कुल प्यासी रह रही है। इस विषम स्थिति में सही जल वितरण कोई कर सकता है तो वो नहरकर्मी है पर दुर्भाग्य है कि हर बार इनकी संख्या ही कम की जा रही है। पूंजीवादी व्यवस्था की तरह असंतुलन बनाया जा रहा है। नहर को बजट कम और कर्मचारी भी कम, कैसे बुझेगी धरती और लोगों की प्यास।
केवल छुट्टी की परवाह
कड़ाके की ठंड ने लोगों का जीना मुहाल किया तो मजबूरी में स्कूल जाने वाले बच्चों की छुट्टियाँ की गई। छुट्टी के शौकीन शिक्षकों को यह कैसे सहन होता उन्होंने भी आवाज उठा अपने लिए यह लाभ ले लिया। कोई इनसे पूछे कि बच्चे तो रोज स्कूल आते हैं और पढ़ते भी हैं,वे ऐसा करते हैं क्या? कोई नेता मरे तो सरकारी कर्मचारी का दूसरे से पहला सवाल होता है, छुट्टी रहेगी क्या? सोचना होगा उनको जो ऐसा करते हैं।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

उनकी खता भी तुम्हारी नजर में खता नहीं...
एक बार फिर बीकानेर संभाग अपना हक पाने से वंचित रहेगा यह तय लगता है। व्यास समिति ने बीकानेर में केन्द्रीय विवि खोलने की सिफारिश की थी मगर उसे नजरअंदाज किया जा रहा है। इसी समिति ने जोधपुर में आईआईटी व उदयपुर में आईआईएम की सिफारिश की जिसे मान लिया गया। आश्चर्य है पद्म भूषण से सम्मानित अर्थशास्त्री की आधी सिफारिशें सही और आधी नहीं, किस पैमाने से उसको नापा गया। आदमी आधा सही और आधा गलत हो, यह कैसे संभव है। जाहिर है बात दूसरी है, खता कोई और है जिसकी सजा इस संभाग को मिल गई। राजनीतिक हैसियत और ताकत के बूते पर यदि शिक्षण संस्थान खोलने का निर्णय होता है तो फिर समितियां, सर्वे, आश्वासन जैसे अधूरे नाटक क्यूं खेले जाते हैं। भावनाओं और संवेदनाओं का मजाक क्यों बनाया जाता है। इस संभाग के लोगों के मन में व्यास समिति के जरिये एक भाव पैदा किया जिसने दलीय व जातीय सीमाएं तोड़कर सबके मनों को मिला दिया। उसके बाद भी बिना खता सजा देने की बात क्यूं हुई। क्या इस दर्द का कोई मरहम है, इस घाव का निशान कोई मिटा सकता है क्या। सत्ता के पैरोकार क्या आजादी के 62 साल बाद भी संकीर्ण क्षेत्रवाद की राजनीति के चक्रव्यूह में रहकर ही विकास के निर्णय करेंगे, यह यक्ष प्रश्न है। यदि इसका जवाब सत्ता के बाजीगरों ने नहीं दिया तो यहां के लोग उनको वक्त आने पर बिना खता की मिली सजा को याद दिलाने से नहीं चूकेंगे। समय का पहिया कभी स्थिर नहीं रहता, उसे तो ऊपर-नीचे होना ही पड़ता है। संभाग के लोगों के मन में एक दावानल है, सब्र का प्याला छलकने को तैयार है। समय आने पर शायद संवेदना अपनी अभिव्यक्ति देने में भी कोताही नहीं बरतेगी। केन्द्रीय विवि का सवाल इस संभाग की अस्मिता से जुड़ गया था, यह जानकर भी अन्जान बनने वाले पता नहीं किस गफलत में है। यहां के लोग गहराई से निकला पानी पीते हैं इसलिए शालीनता की परिधि में रहकर वो जवाब देते हैं, उनके चेहरों के भावों से इस बात का अंदाजा होता है कि इस सजा को वे खुद को दी गई चुनौती मान रहे हैं। अपनी सामर्थ्य से चुनौतियों का जवाब देना हर इंसान को आता है फिर ये तो पूरे संभाग के बाशिंदों की बात है। शायर नदीम की बात में जहां शराफत है वहां चुनौती का जवाब देने का जज्बा भी है-
रम्ज़ तुम्हारी भी नहीं समझा हूं मेरे दोस्त- फेंकते हो पत्थर शीशे के घर में रहते हो, उनकी खता भी तुम्हारी नजर में खता नहीं-मेरी मजबूरियों पर भी तुम सजा देते हो।
गरीब की रोटी का सवाल
एक बार फिर सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने गरीब की रोटी पर सवाल खड़े कर दिए हैं। आटे-दाल के वितरण के लिए डिपो थे और उसको पाने के लिए राशन कार्ड। महंगाई ने गरीब की थाली में सामान कम तो किया ही मगर उसको पाने के लिए भी लालायित कर दिया। राज्य में पहली बार दाल-आटा डेयरी के बूथों के जरिये बांटा जा रहा है जिन पर न तो रसद विभाग का नियंत्रण है न उपभोक्ता का। यदि खुले बाजार की प्रक्रिया को अपनाना ही है तो दो छोर क्यूं, राशन की दुकानें बनाए रखने का क्या औचित्य। उनके जरिये भी तो आम उपभोक्ता तक रसद का वितरण किया जा सकता है। यदि वे नाकारा हैं तो उनको इतने दिनों तक चलने क्यूं दिया गया। रसद विभाग की दोहरी नीति ने चीजों की उपलब्धता को मुश्किल किया है पर साथ ही कालाबाजारी के कई रास्ते भी खोले हैं। एक बार फिर सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर विचार की जरूरत हो गई है। यदि खुले बाजार को अपनाया गया तो चीजों के दाम बढ़ेंगे और कालाबाजारियों को मुनाफा होगा, इस हालत में गरीब को तो सस्ता रसद नहीं मिलेगा। यदि सच स्वीकारें तो पिछले पांच साल में घर-घर में गैस कनेक्शन हो गया फिर भी घरेलू केरोसिन की मात्रा बढ़ी है। कोई सोचता है कि इतनी खपत कैसे, कहां होती है। जाहिर है इसके लिए काला बाजार ही पनाहगाह है। उसे रोककर वितरण प्रणाली को सुदृढ़ करने की कोशिश क्यों नहीं होती। जानकारों का मानना है कि उपभोक्ता की जगह जब मुनाफे और बाजार को केन्द्र में रखा जाएगा तो यही परिणाम सामने आएंगे। हालात विकट हैं यदि इनकी आहट राज और काज ने नहीं सुनी तो आने वाला समय उनको कई बड़ी चुनौतियां देगा।