गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

अबकी बारी सरकार की
नगर निगम साधारण सभा की दूसरी बैठक भी बुधवार को बिना किसी शोरगुल के विकास के नाम पर एक राय से हो गई। पहली बैठक की तरह इसमें भी विपक्षी पार्षद दल ने मेयर को अपना सहयोग विकास के नाम पर दिया। आमतौर पर समितियों के गठन में महत्त्वाकांक्षी पार्षद अपने नाम की चाह को लेकर कभी एक राय नहीं बनाते। प्रदेश में बीकानेर एकमात्र ऐसा उदाहरण है जहां निगम के निर्णय इस बार सर्वसम्मति से हो रहे हैं। भाजपा पार्षद उम्मेदसिंह व मेयर भवानीशंकर शर्मा की बात अपने में कई मायने रखती है। इन दोनों का कहना था कि सभी पार्षद जनादेश का सम्मान कर एक राय बना रहे हैं जो स्वस्थ लोकतन्त्र का संकेत है। बीकानेर की जनता, दोनों दलों के पार्षद व निगम के कर्मचारियों ने पहल कर विकास के प्रति अपना समर्पण दिखा दिया, अब बारी सरकार की है। सारी बात उसके पाले में है।
निगम की आर्थिक दशा बदतर है जिससे विकास रुका हुआ है। केन्द्र प्रवर्तित योजनाओं की धनराशि के उपयोग के लिए निगम ने ऋण लेने का साहसी निर्णय किया जिसमें विपक्ष ने भी सहमति व प्रतिबद्धता जताई। ये बात अपनी जगह है पर इस निर्णय का सरकार को भी सम्मान करना चाहिए। राज्यों, समाजों, क्षेत्रीय जरूरतों को वरीयता देते हुए विशेष आर्थिक पैकेज देने की परंपरा देश के लोकतन्त्र का हिस्सा है उसका उपयोग राज्य सरकार को भी करना चाहिए। जिन निगमों की दशा खराब है उनको एकबारगी विशेष पैकेज देकर आर्थिक रूप से संबल किया जाना चाहिए ताकि वे बाद का रास्ता अपने बूते तय कर सकें। सरकार ने यदि अपनेपन व बड़प्पन का भाव नहीं दिखाया तो बीकानेर में बनी एकता तीखे तेवर भी दिखा सकती है। शहर के विकास पर जब आमजन एक हो जाए तो सरकारों को संभल जाना चाहिए और जन अपेक्षाओं को नज़रअन्दाज करने की वृत्ती भी छोड़नी चाहिए। निगम पार्षदों ने एक राय बना अपनी चाह दर्शा दी है अब उसे अमलीजामा पहनाने की जिम्मेवारी सरकार की है।
एक सपना तो हुआ पूरा
बीकानेर में वेटेरनरी विवि खोलने की घोषणा को अमलीजामा पहनाने की प्रक्रिया शुरू होना यहां के लिए एक बड़ी सौगात है। इस विवि का सपना लोगों ने एक दशक पहले देखा था क्योंकि कृषि के बाद यहां का जनजीवन सबसे ज्यादा पशुपालन पर केन्द्रित है। कैबीनेट ने इस पर मुहर लगा इस संभाग का एक सपना पूरा किया है जिसके सार्थक परिणाम प्रदेश के पशुपालकों को मिलेंगे। बस ख्याल इस बात का रखा जाना आवश्यक है कि विवि को साधनों की कमी नहीं होनी चाहिए। महाराजा गंगासिंह विवि की तरह साधनो की तंगी न रखे सरकार। इस विवि के खुलने की बात के साथ यहां की जनता की एक टीस अभी बाकी है जो उसे साल रही है, वह है केन्द्रीय विवि की। व्यास समिति की सिफारिश के अनुसार उसकी स्थापना यहां का बड़ा सपना है जिससे छेड़छाड़ सहन नहीं होगी।
नारे तो करें सार्थक
लंबी प्रतीक्षा के बाद आखिरकार प्रशासन शहरों के संग अभियान आरम्भ हुआ मगर लालफीताशाही ने सारे अरमानों पर पानी फेर दिया। न नियमन हो रहा है, न निर्माण की स्वीकृति, न अधिकारी बात सुन रहे हैं न मिल रहे हैं। केवल खानापूर्ति कर हर दिन की प्रगति रिपोर्ट जारी कर दी जाती है। शिविर के नाम पर जो काम हो रहे हैं वे तो आम दिनों में भी आसानी से हो सकते हैं। सरकार अपने कारिन्दों की रिपोर्ट पर भरोसा करने के बजाय ग्राउण्ड रिपोर्ट का पता करे तो उसे अभियान शुरू करने के निर्णय पर पछतावे के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

नरेगा से आगे भी है पंचायती राज
शहर के बाद गांव की सरकार भी बन गई। जीवन से जुड़े मुद्दों को दरकिनार करके लोगों ने एक बार राज की कड़ी से कड़ी जोड़ी है। लोक सभा से लेकर अब तक ग्रामीण मतदाता को लुभाने के लिए नरेगा का लाभ उठाया गया है पर गांव का विकास इसी तक सीमित नहीं है। नरेगा से आगे भी जाने की जरूरत है।
गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन व संचार का वो विकास नहीं हो सका है जिसकी हर ग्रामीण को दरकार है। स्कूलों में बच्चे रहते हैं पर शिक्षक नहीं, बीमारी हरेक को आती है पर भागकर शहर आना पड़ता है। कई गांव ऐसे है जहां दिन में एक बार बस जाती है और एक बार ही वापस शहर की तरफ आती है। सूचना तन्त्र तो पूरी तरह गड़बड़ाया हुआ है। सामारिक दृष्टि से बीकानेर अति संवेदनशील है जहां ग्रामीण सेना के साथी बनने का काम करते हैं। इसलिए बीएडीपी की यहां बड़ी जरूरत है जिसके लिए विशेष योजना बननी समय की आवश्यकता है। गांव की सरकार से इस बार वहां के लोगों ने आस अधिक लगाई है इसलिए उसे केवल नरेगा तक ही सीमित मान लिया गया तो असन्तोष को कोई रोक नहीं सकेगा।
इसके अलावा ग्रामीण सबसे अधिक परेशान भ्रष्टाचार से है, हर कहीं उसे इसका शिकार होना पड़ता है। नरेगा के भ्रष्टाचार की कहानी तो अब सार्वजनिक होने लगी है। कालिख से निकलकर रोजगार की गारंटी पूरी करने वाला मुखिया ही आशाओं को पूरा कर सकेगा। आधी से अधिक आबादी गांवों की है इसलिए इस सरकार की जिम्मेवारी भी ज्यादा है। पंचायती राज को शिक्षा के अधिक अधिकार इसलिए दिए गए ताकि साक्षरता का प्रतिशत बढ़े पर इतिहास गवाह है कि गांव की सरकार ने इसका पूरा लाभ नहीं उठाया। राजनीतिक आधार पर तबादले के डण्डे से शिक्षकों को प्रताड़ित करने का ही काम किया गया। हालत यह हो गई कि शिक्षक अब गांवों में लगने से कतराने लगे हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य को पूरी तरह राजनीति से मुक्त रखने का सरकार का दायित्व है क्योंकि इनका सीधा जुड़ाव जनता से है, इस परिपाटी को सुधारने की आस इस बार जगी है जिसे मुखियाओं को पूरा
करना चाहिए।
बीकानेर में बनी गांव की सरकार ने इस बार कई राजनीतिक उलटफेर किए हैं जिसको इस अर्थ में लिया जाना चाहिए कि कुछ नया चाहा गया है, यदि इसे पहचाना नहीं गया तो यही वोटर आने वाले समय में दूसरा रंग दिखा सकता है। एक तरफ जहां गांव की सरकार ने नई संभावनाओं के द्वार खोले हैं वहीं कांटों का ताज भी पहनाया है, इसके बीच रास्ता कैसे निकलता है यह देखने की बात है।
चलेगा क्या गोडा एक्ट?
पंचायत राज में जहां सरकार के बनाए अपने एक्ट हैं और उनसे काम भी चलता है मगर बीकानेर में एक मोखिक एक्ट भी है, गोडा एक्ट। इस एक्ट के बारे में वे ही मुखिया जानते हैं जो गांव की सरकार से वर्षों से जुड़े है। इस बार जब उनसे इस मौखिक एक्ट के बारे में पूछा गया तो वे बोले, भाया जद सरकारी बाबू अर अफसर काबू नहीं आवे- काम करण में आनाकानी करे तो फेर गोडा एक्ट रो उपयोग तो करणों ही पड़े। जनता री भलाई खातर ओ ऐकट तो हमेशा ही चालसी-चालणो भी चाइजे। जय हो पंचायत राज री।
म्हारा बेली समपटपाट .......
राजस्थानी कवि मोहम्मद ने अर्से पहले कविता लिखी थी- म्हारा बेली समपटपाट, म्हें थनै चाटूं तूं म्हने चाट। प्रशासन शहरों के संग अभियान में आजकल वैसा ही हो रहा है। सरकार व उसका अमला एक दूसरे को अभियान की प्रगति के कागज देकर वाह-वाह, वाह कर रहे हैं। आम आदमी अब तक तो इस अभियान से जुड़ ही नहीं पाया है। केवल नगर निगम तक अभियान को सीमित कर पूरा दिन बिता दिया जाता है। विधवा पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन, बिजली कनेक्शन आदि के काम तो सुने ही नहीं जाते। नियमन की बातें तो वर्षों से शिविरों के बजाय बन्द कमरों में ही होती है। जिस ध्येय से यह अभियान आरम्भ किया गया वो तो अंश मात्र भी पूरा होता नहीं दिखता। इस अभियान की समीक्षा समय की मांग है नहीं तो यह भी केवल सरकारी नारा बनकर रह जाएगा जिसकी केवल इबारतें ही दिखेगी धरातल पर तो नजारा कुछ अलग ही होगा।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

आओ मिलकर फिर हम करें रस्म अदायगी!
एक बार फिर कागजी जोशो-खरोश से जनता की समस्याओं के निराकरण के लिए प्रशासन शहरों के संग अभियान शुरू हुआ है। पहले की ही तरह दावा किया गया है कि आधारभूत समस्याओं का अधिकारी मौके पर ही समाधान करेंगे। रस्मी तरीके से मन्त्रीजी ने उद्घाटन किया, तंबू लगे, कर्मचारी बैठे और समय मिला तो कुछ देर अधिकारी भी बैठ गए। रस्म की तरह चल रहा है अभियान, राहत कितनी मिली इस सवाल का जवाब पूछना मना है। अभियान के बाद कागज जारी कर बता दिया जाएगा कि किस विभाग ने कितनी उपलब्ध हासिल की। जनता भी इस रस्म अदायगी को समझ गई है इसलिए अपना वक्त जाया नहीं करती। जिनको विरोध करना होता है वे जाते हैं और अपना काम कर चल देते हैं। जिस सरकारी महकमे को इस नाम पर जो काम करना होता है उसको कर देते हैं, कोई रोकता नहीं क्योंकि अभियान का बहाना जो है।
वही शहर है, वही लोग हैं, वही समस्याएं हैं- फिर जनता के संग जाने की जरूरत कैसे हुई। मतलब ये कि आम दिनों में इनका संग जनता को नहीं मिलता। रोजमर्रा में जनता की आम समस्याएं हल भी नहीं होती तभी तो अभियान चलाया जाता है। वही अधिकारी व कर्मचारी हैं जो ऑफिसों में रहते हैं और काम को लटकाते हैं उनसे यह उम्मीद कैसे करें कि वे अभियान के एक दिन में समस्याओं से निजात दिला देंगे। सरकार के पास तो केवल कागज जाना है जिस पर उसे इतरने का अवसर मिल जाएगा। जनता को तो हर बार की तरह ठगे हुए ही रहना पड़ेगा। इस अभियान के अब तक के शिविरों में आला अधिकारी तो न के बराबर उपस्थित रहे हैं इस हालत में यह कैसे उम्मीद करें कि जटिल समस्याओं का हल निकल रहा है। आलीशान कमरा, रूम हीटर, कर्मचारियों की हाजिरी इन सबको छोड़कर अधिकारी किसी सामुदायिक भवन या स्कूल के साधारण से हॉल में जाएं तो भी कैसे जाएं। यदि सरकारी महकमे के लंबरदार संवेदनशील रहकर हर दिन की समस्याओं का निदान मेरिट पर करते रहें तो शायद ऐसे शिविरों की रस्म अदायगी करनी ही न पड़े।
हमें तो केवल वोट देना है
पिछले सप्ताह बीकानेर में सरकार के मुखिया और विपक्ष के मुखिया आए, ठहराव दोनों का ही 24 घंटे का भी नहीं था। हर बार की तरह बीकानेर के प्रति प्रेम, अनुराग, स्नेह बोलने में जताया पर देने के नाम पर कुछ नहीं। सरकार के मुखिया ने विपक्षी दल की बात सुनने के बजाय उनको नसीहत दे डाली। केन्द्रीय विवि के मुद्दे पर इस बात का जवाब नहीं दिया कि व्यास समिति की सिफारिश बीकानेर के लिए क्यों नहीं मानी गई उलटे यहां के सांसद को कह दिया कि आप यह मुद्दा संसद में उठाइए। दूसरी तरफ विपक्ष की मुखिया ने सूरसागर के नाम पर हल्ला मचाकर वोट तो बटोरे पर राज नहीं आया तो अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ लिया। जब उनसे इस समस्या के बारे में कहा गया तो उनका जवाब था यह काम तो सरकार का है। जनता सोचने को मजबूर है कि वोट देना ही उसका काम है क्या, जो वोट लेते हैं उनकी कोई जिम्मेवारी नहीं बनती क्या। हां यह हो सकता है कि राज और विपक्ष के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं पर वोटर के लिए उनकी जिम्मेवारी तो बनती ही है।
सपना साकार तो हो
16 साल बाद एक बार फिर कलाधर्मियों के सपने को धरातल पर उतरने का अवसर मिला है। अधूरे पड़े रवीन्द्र रंगमंच को बनाने की प्रक्रिया आरम्भ हुई है। शहर की पहचान का यह मुद्दा राजनीतिज्ञों के लिए कितना गौण रहा इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसका निर्माण बन्द होने या अधूरा पड़े रहने का मलाल किसी को नहीं था। राजनीति या व्यक्ति बिना संस्कृति-साहित्य के कोई आकार ही नहीं लेता उसके बावजूद इसी को हाशिये पर रखना एक आदत सी बन गई है। राज के सारे काम राज बदलने के बाद लाइन पर आ गए, यार्ड में खड़ी है तो केवल साहित्य-कला-संस्कृति की गाड़ी। इसको हरी झण्डी दिखाने की फुरसत शायद मिल नहीं रही।
भूखे पेट भजन न होय गोपाला
यह पुरानी कहावत है। सरकार ने निगम बना दिए और महापौर का चुनाव भी सीधे वोटों से करा दिया। खरीद-फरोत का बाजार बन्द हो गया। इस हालत में जनता की अपेक्षाएं भी बढ़ गई जिनको पूरा करने के लिए धन चाहिए। निगम की डोलती आर्थिक स्थिति को सुधारने की पहल भी सरकार को करनी चाहिए। इसमें महापौर या पार्षदों का भला नहीं है, शहर का भला है। निगम को राजनीति व राज का पहला पायदान माना जाता है यदि उसके प्रति ही सरकार संवेदनशील नहीं हुई तो फिर तेवर तीखे होने स्वाभाविक है। शहर निगम की हालत जानता है इसलिए गेन्द सरकार के पाले में है उसे यह भूलना नहीं चाहिए।