शनिवार, 1 मई 2010

कुछ लोगों की साजिश है कि कुछ लोग बहल जाएं...
जन प्रतिनिधियों के विकास कोटे को लेकर शाश्वत बहस चलती ही रहती है। इस कोटे के उपयोग को लेकर जहां अनेक अच्छे उदाहरण सामने आए वहीं कुछ ऐसी बातें भी सामने आई जिससे इस कोटे पर बहस चल पड़ी। हर सांसद हर विधायक चाहता है कि उसका क्षेत्र में नाम हो। ऐसे तो बिरले ही एमपी-एमएलए होते हैं जो विकास के लिए मिले बजट का पूरा उपयोग ना करें। सांसद कोटे के उपयोग पर पिछली लोकसभा में काफी बवाल हुआ। मीडिया ने स्टिंग ऑपरेशन किया तो कई नये निर्णय भी हुए। उसके बाद से इस कोटे पर बहस कुछ ज्यादा ही तीखी हो गई।
यह सही है कि इसके उपयोग में पारदर्शिता होनी चाहिए। अनेक ऐसे भी उदाहरण मिले हैं जब इन प्रतिनिधियों ने अपना कोटा कार्यकाल के अंतिम चरण में उपयोग में लिया है, ऐसा क्यूं! यह भी बहस का विषय है। इस क्षेत्र के जानकारों व वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि विकास कोटे पर राजनीति हावी न हो इसके लिए यह तो नियम बनाया ही जा सकता है कि हर जन प्रतिनिधि अपने वार्षिक कोटे का उपयोग उसी वित्तीय वर्ष में करे। इससे यह काम केवल विकास का पर्याय बन जाएगा। राजनेताओं के इर्द-गिर्द घूमने वाले और अक्सर निर्णयों को प्रभावित कर देने वाले केवल वोटरों को बहलाने का बहाना बना विकास कोटे की धारा मोड़ देते हैं। यह कारगुजारी उस जन प्रतिनिधि पर भी भारी पड़ती है। इसलिए उसी वित्तीय वर्ष में खर्च की शर्त पर तो निर्णायक स्थिति पर पहुंचा जा सकता है। क्योंकि सांसद या विधायक बनने के बाद वो पूरे क्षेत्र का प्रतिनिधि होता है और विकास में भी उसे समान भाव रखना पड़ता है। ऐसा नहीं हो कि कुछ लोगों की बातें हावी हो जाए और कुछ लोगों को ही बहलाने का जरिया बन जाए यह पवित्र फंड।
सरपंची पर संकट
एक साल तक टेंडर जारी न करने का नियम और महानरेगा में जिला कलेक्टर को नोडल अधिकारी बना देने से सरपंचों की सरपंची पर संकट खड़ा हो गया है। गांव में उनकी अहमियत कहीं कम न हो जाए इसके लिए सरपंच सड़क पर आए, माननीय न्यायालय तक गए पर अभी तक संतुष्ट नहीं हो सके हैं। कड़े चुनावी मुकाबले में जीतने के बाद यदि ऐसे हालात हो तो सरपंची पर संकट आना लाजिमी है। राजनीति भी इससे तेज हो गई है। आखिरकार ग्रामीण क्षेत्र में वोटों की खातिर बड़े नेताओं को चुनाव के समय इन्हीं की शरण में तो जाना पड़ता है। एक सरपंच ने कहा कि हम निश्चिंत हंै, इनको वोट लेने हैं तो ये भी हमारे ही साथ आएंगे। यह बात भी संकट का अहसास कराती है।
मिल गया राजस्थानी आंदोलन को बल
आठ करोड़ से अधिक राजस्थानियों की भाषा की मान्यता का मसला अब तूल पकड़ गया है। अपने स्तर पर लोगों के आंदोलन चल रहे हैं। मायड़ भाषा के लिए वे जुटे हैं पर राज्य के शिक्षा मंत्री के एक बयान ने बैठे बिठाए राजस्थानी भाषा की मान्यता के आंदोलन को बल दे दिया। मातृभाषा फिलहाल हिन्दी बताई और वो भी राजस्थानी में बोलकर, बस फिर क्या था, हर राजस्थानी का स्वाभिमान जाग गया और वो सक्रिय हो गया। अनिवार्य शिक्षा अधिकार से मान्यता आंदोलन का जुड़ाव हो गया। अब राज्य की हो या केन्द्र की सरकार,अंतिम निर्णय करना ही होगा।