शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

तेरी सहर हो मेरा आफताब हो जाए
बीकानेर के बारे में कहा जाता है कि यहां जितनी गहराई में पानी मिलता है, उतने ही गहरे इस इलाके के लोग हैं। छोटी-मोटी समस्याओं को चुपचाप सह लेते हैं, उफ तक नहीं करते। गुहार नहीं लगाते, इमदाद की फरियाद नहीं करते। धैर्य की बानगी यह है कि सालों से शहर की छाती को चीरती हुई रेल की पटरियां गुज रही हैं और दो हिस्सों में बंटा शहर फाटक खुलने का इंतजार कर रहा है। सरकार ने सहानुभूति दिखाई। रेलबाइपास और ओवरब्रिज की 'हाँ' कर दी। अब चुपचाप बैठे सालों से कागजों में दबे बाइपास से उम्मीद लगाए हैं और "नौ दिन चले ढाई कोसं" की रफ्तार से बन रहे पुल को ताक रहे हैं। कहते हैं आदमी के धैर्य की इतनी भी परीक्षा नहीं लेनी चाहिए कि जब उसका धीरज टूटे तो बवाल आ जाए। शहर में पहुंची सरकार से गुहार है, हाईकोर्ट बैंच के लिए चला आंदोलन भी यहां के लोगों ने पूरे धैर्य से किया है तो केन्द्रीय विश्वविद्यालय के लिए भी अब तक मन में धीरज है। वेटेरनरी यूनिवर्सटी घोषित होने के बाद भी खुलने के संकेत नहीं दिख रहे तब भी सहन कर रहे हैं और शहर की छाती को चीरती हुई पटरियां इसे दो भागों में बांट रही है तब दोनों किनारों पर खड़े बीकानेरी फाटक खुलने का इंतजार कर रहे है। हवाई सेवा की बातें अब भी हवा में हैं और ड्राइपोर्ट चालू होने पर भी सवालिया निशान लग रहे हैं। सड़कों की बेनूरी और सफाईकर्मियों की कमी से बदहाल हो रही सफाई व्यवस्था से जूझना तो रोजमर्रा की बात हो ही गई है, चिकित्सकों और कर्मचारियों की कमी के चलते पीबीएम अस्पताल में घट रही सेवा की गुणवत्ता के चलते आए दिन बवाल होना भी आम बात है।
सरकार के मुखिया एक बार फिर बीकानेर में हैं और शहर उनसे अपनी जरूरते मांग रहा है। जो मांगा जा रहा है वह अनुचित या गैर जायज नहीं। न्यायिक व्यवस्था के विकेन्द्रीकरण की बात जहां खुद सुप्रीम कोर्ट कह चुकी है वहीं व्यास कमेटी इस शहर को सेंट्रल यूनिवर्सटी के योग्य ठहरा चुकी है। रेलमंत्री सी.के.जाफर शरीफ के समय से ही रेलबाइपास की जरूरत केन्द्र ने मानी और राज्य के साथ एमओयू का सिलसिला चला जो चलता गया। यह सरकार दूसरी बार बनी है पर अधूरे रवीन्द्र रंगमंच की दशा नहीं सुधरी। 16 साल से कलाकर्मियों का सपना अधूरा है। समय पर रंगमंच पूरा होता तो इस पर केवल एक करोड़ ही खर्च होता मगर अब तो यह राशि आठ गुना तक पहुंच गई। कला-साहित्य-संस्कृति हमेशा सत्ताओं के दूसरे पायदान की चीजें है यह कई बार साबित होता रहा है। पिछली सरकार ने साहित्य, संस्कृति, नाटक, ललित कला आदि की अकादमियों पर अपने कार्यकाल के अंतिम साल में ध्यान दिया। इस सरकार को भी एक साल हो गया मगर सुध नहीं ली गई। बीकानेर की राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी तो केवल एक सरकारी महकमा बन कर रह गई है। अध्यक्ष नहीं तो सब काम ठप।
जाहिर है, पग-पग पर सहनशीलता का इम्तहान हो रहा है। गनीमत यह है कि यहां का आदमी अब तक ऐसे हर इम्तिहान में पास होता आ रहा है। सरकार को चाहिए कि अब इन इम्तिहानों के नतीजे जारी करे क्योंकि अब सब्र का प्याला भरने लगा है। युवा वकीलों ने हाईकोर्ट बैंच के लिए आंदोलन स्थगित करने के मुद्दे पर अपनी नाराजगी जता कर इसका संकेत दे दिया है वहीं स्टूडेंट्स सहित शहर के हर वर्ग का प्रतिनिधि केन्द्रीय विवि के मुद्दे पर एकजुट हो गया है। विनय में यहां के लोग कहते दिखते हैं- अगर खुदा न करे सच ये ख्वाब हो जाएं, तेरी सहर हो मेरा आफताब हो जाए। यह तो सच है कि यदि सब्र का प्याला भरता ही जाए तो एक दिन छलकना उसकी मजबूरी हो जाता है, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

परदे लिहाफ बदलकर भी कुछ नहीं बदला...
साल बीत रहा है। सरकार का भी एक साल बीत गया। इस शहर की उम्र भी एक साल बढ़ गई। साल बीतने की आजकल खुशी मनाई जाती है बिल्कुल उसी तरह जैसे नया साल आने की। एक साल इस शहर को कई नए रंग दिखा गया। इसे आमतौर पर चुनावी साल कहा जाता है क्योंकि तीन चुनाव हुए है इसमें। जाहिर है चुनाव हो तो बाकी काम बंद, चुनाव आचार संहिता के नाम पर ऐसा होता है। एक बार इसकी पड़ताल भी की गई पर पता नहीं चला कि आचार संहिता के नाम पर बेवजह जनहित के कई काम क्यों रोके जाते हैं। यह सवाल इस बार भी उत्तरहीन रहा है।
साल 2009 ने केन्द्रीय विवि, हाइकोर्ट की बैंच, पूरा रवीन्द्र रंगमंच, रेलवे बाइपास, रिंग रोड़ सहित अनेक आशाएं जगाई थी मगर यहां के लोग इन मामलों में केवल हाथ मल रहे हैं। केवल हालात के नाम पर खंडित हुए सपनों का दर्द व्यक्त कर रहे हैं। हर किसी के जेहन में सवाल है कि इन सबके लिए हम काबिल थे फिर भी हमें वंचित क्यूं रखा गया। सवाल तो है मगर किससे किया जाए और कौन उत्तर देगा, इसका पता नहीं है। ये सवाल अब हरेक की अçस्मता से जुड़ गए हैं इसे राज और काज समझ नहीं रहे हैं। काबिल आदमी अपनी नाकामी को अधिक दिन तक सहन नहीं कर सकता और अस्मिता के मामले में तो वह हदें पार करने से भी परहेज नहीं करता।जाता साल संकेत दे रहा है कि आने वाला साल स्थानीय मुद्दों के आंदोलन का साल हो सकता है। समय रहते इन पर ठोस बात नहीं हुई तो हालात फिर काबू में नहीं रह पाएंगे।
आशाओं ने पंख फैलाए हैं
शहर की सरकार इस बार सीधे मतदान से बनी है तो लोगों की आशाओं ने भी विस्तार लिया है। पहले की तरह महापौर पार्षदों के दबाव में नहीं रहेंगे, राजनीति के कमजोर समझौते भी नहीं करने पड़ेंगे। निगम की माली हालत खराब है, सफाई कर्मचारियों की भर्ती नहीं हो रही, बजट के अभाव में निर्माण के काम शुरू नहीं हो रहे, कच्ची बस्तियों की केन्द्रीय योजनाएं लागू नहीं हो पा रही। इन सबसे निदान की जिम्मेवारी नए बोर्ड पर है। जाहिर है राज्य सरकार से बीकानेर के लिए विशेष पैकेज मिलने पर ही आर्थिक दशा में सुधार संभव है। नये महापौर ने सकारात्मक संकेत तो दिए हैं पर उनकी जल्द परिणिति भी आवश्यक है।
जाना एक रंगकर्मी का
बीकानेर रंगमंच पर अपनी हाजिर जवाबी व मसखरे अंदाज से खास पहचान बनाने वाले कलाकार बी आर व्यास पंचतत्व मे विलीन हो गए। नाटक और सुगम संगीत की दुनिया में शहर उनका नाम आदर से लेता है क्योंकि पूरी तरह अव्यावसायिक रहकर इस कलाकार ने पूरा जीवन रंगकर्म को दिया। दमदार आवाज और आंगिक अभिनय में बेजोड़ था यह रंगकर्मी। संकल्प, नट संस्थान के अलावा शहर की हर संस्था को निस्वार्थ सहयोग देने वाले इस कलाकार का साल के अंत में जाना कला जगत को बड़ी क्षति है।भूमिका, इंसपेक्टर मातादीन चांद पर, पोस्टर, फितरती चोर, तीड़ोराव, हत्यारे सहित मंचीय नाटकों के अलावा इस कलाकार ने नुक्र्ड नाटकों में भी अभिनय किया। इस कलाकार की चाह भी रवीन्द्र रंगमंच को पूर्ण देखने की थी पर वो अधूरी ही रह गई। डॉ. प्रभा दीक्षित की पंक्तियां याद आती है-
परेद लिहाफ बदलकर भी कुछ नहीं बदला, अपने को कर बहाल नया साल आ रहा। दिल की उदासियों को भी आंचल में छिपाकर, नाचेगा नया काल नया साल आ रहा।

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है...
बीकानेर एक बार फिर टकटकी लगाए केन्द्र व राज्य सरकार की तरफ देख रहा है। समान सरकारों के कारण इस राज्य में आईआईटी, आईआईएम, केन्द्रीय विवि खुलने की पहल हुई। राज्य सरकार ने विजय शंकर व्यास समिति का गठन कर इनके स्थान तय करने का जिम्मा सौंपा। समिति ने अपनी रिपोर्ट बनाई और सरकार को दे दी। चार संस्थानों की सिफारिश थी जिसमें एक संस्थान केन्द्रीय विवि बीकानेर में खोलने का सुझाव दिया गया। बस, तब से यहां के लोग टकटकी लगाए सिफारिश पर घोषणा का इंतजार कर रहे हैं। राजनीतिक हदबंदी तोड़कर लोग एक मंच पर आए तो आस बंधी पर अब उस पर धुंधलका छाने लगा है। अपने आप में यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि व्यास समिति की चार में से दो सिफारिशे एज-इट-इज लागू कर दी गई। बीकानेर में केन्द्रीय विवि खोलने पर संशय बन गया। कहां चूक रही, किसके कारण रही और क्यों रही, यह जानने को यहां के लोग आतुर हैं। लोगों की आतुरता उनकी जागरूकता को अभिव्यक्त कर रही है। हर किसी के दिल में एक ही सवाल है, बीकानेर संभाग के साथ हर बार ऐसा क्यूं होता है। लोगों के भावों को पढ़ा जाए तो पता चलेगा कि केन्द्रीय विवि की बात अब संभाग वासियों की अस्मिता से जुड़ गई है। यदि उस पर आंच आई तो शायद संभाग में एक बड़े आंदोलन की नींव पड़ेगी, जिस पर बाद में नियंत्रण राज के लिए आसान नहीं होगा। यदि समय रहते बीकानेर की अस्मिता से जुड़े इस मुद्दे पर सकारात्मक निर्णय नहीं हुआ तो राज और काज के सामने बड़ी चुनौती खड़ी होनी तय है। इसके लिए अंदरखाने आंदोलन की भावभूमि भी बनने लगी है जिसका अंदाजा बहुत से लोगों को नहीं है।
पैरवी करने वालों को पैरोकार का इंतजार
न्याय के लिए लोगों की पैरवी करने वाले वकील हाइकोर्ट की बैंच चाहते हैं जिसमें उनका नहीं आम जनता का भला है। बीकानेर संभाग के सभी जिलों के लोगों को राहत मिलेगी। सस्ता न्याय समय पर व सहजता से मिलेगा। इस मांग को नाजायज तो नहीं कहा जा सकता। नेताओं से लेकर सभी तरह के सार्वजनिक लोगों की पैरवी करने वाले अधिवक्ता इतने लंबे असेü से कचहरी में धरना लगाए बैठे हैं पर उनकी दमदार पैरवी करने वाले सामने नहीं आ रहे। दबी जुबान में समर्थन हो रहा है पर बात आगे नहीं बढ़ रही। आम जनता का साथ है यह सभी जानते है, मांग जायज है इसे मानते हैं पर फिर भी सरकारें खामोश है। चाहे केन्द्र की सरकार हो या राज्य की, पैरवी करने वालों की पैरवी को आगे नहीं आ रही। बीकानेर जैसे शांत शहर में इतना बड़ा व लंबा आंदोलन फिर भी बेरुखी, ये पçब्लक है ये सब जानती है। इसके दूरगामी परिणाम सरकारों को भुगतने पड़ेंगे। जन प्रतिनिधियों ने यदि अब पहल नहीं की तो जनता उनसे भी सवाल करेगी। पीड़ की परीक्षा राज-काज को लाभ तो कभी नहीं दे सकती।
अब तो उतरने दो मैदान में
छात्र संघ चुनावों को लेकर एक बार फिर हलचल तेज हुई है। युवा तरुणाई के राजनीति में सितारे बुलंदी पर आने से छात्र नेताओं में ज्यादा अकुलाहट है जो स्वाभाविक भी है। यदि राजनीति के इस पहले ककहरे से शुरुआत हो तो भविष्य सुंदर रहता है। छात्र हक के लिए चुनावों की मांग भी करने लगे हैं हालांकि अब सत्र का बहुत कम समय शेष रहा है। सरकार को चार साल से रुकी छात्र संघ चुनाव प्रक्रिया पर कोई ठोस निर्णय तो करना ही चाहिए क्योंकि इसी पर प्रदेश की भावी राजनीति टिकती है। क्योंकि स्व. दुष्यंत ने कहा भी है-
इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

जरा देखो इधर क्या हो रहा है......
शिक्षा, स्वास्थ्य व संस्कृति लोक कल्याणकारी राज्य में मुनाफे के नहीं सेवा के माध्यम माने जाते हैं मगर पिछले कुछ सालों से इनको सरकारों ने दूसरे पायदान पर धकेल दिया है। इसी कारण इन तीनों क्षेत्रों में अनेक विसंगतियों ने डेरा जमा लिया है जिसका दुष्परिणाम आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है। निजीकरण ने सबसे ज्यादा शिक्षा में पांव पसारे हैं जिसके कारण सरकारी स्कूलों और शिक्षकों की दशा बदतर होती जा रही है। आश्चर्य इस बात का है कि एक की जगह अनेक काम लेने के बाद भी सबसे ज्यादा प्रताड़ना शिक्षक को झेलनी पड़ रही है। कुछ समय पहले उसे पातेय वेतन पदोन्नति के जरिये तंग किया गया और उसके बाद तबादलों का डंडा नीति-नियमों को ताक पर रखकर चलाया गया। इन दो मार से शिक्षक उबरा ही नहीं था कि उसके लिए समानीकरण की चाबुक तैयार कर ली गई है। समानीकरण शब्द का मूल ध्येय समानता का है मगर प्रारंभिक व माध्यमिक शिक्षा विभाग में इसे पद तोड़ने के काम में लिया जा रहा है। एक स्कूल से शिक्षक कम करके दूसरी जगह पूर्ति करना वह भी शिक्षक की इच्छा के खिलाफ, दो तरफा नुकसान देने वाला है।
किसी भी समझदार को कहें कि दो शिक्षक पांच व पांच शिक्षक आठ कक्षाएं प्रतिदिन पढ़ाएंगे तो वो हंसे बिना नहीं रह सकता। इस अजीबोगरीब गणित की बात तो शिक्षा के प्रणेता सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन के भी समझ में नहीं आएगी। इतने कम शिक्षक रखने के बाद हम चाहेंगे कि सरकारी स्कूलों का शैक्षिक स्तर सुधरेगा और वे निजी स्कूलों का मुकाबला कर लेंगी तो यह तो मुंगेरीलाल के सपने जैसी बात हुई। मजे की बात तो यह है कि प्राथमिक स्कूल में दो व उप्रा स्कूल में पांच शिक्षक लगाने के प्रस्ताव भी शिक्षा विभाग के अधिकारी तैयार कर रहे हैं। जिस पेड़ पर हैं उसी की शाखा को काटने जैसा उपक्रम है, पेड़ की रक्षा फिर कैसे होगी। जरूरत इस बात की है कि शिक्षक अपने साथ होने वाले इस अन्याय के खिलाफ एकजुट होकर बोलें, लोकतंत्र के तीसरे पाये की मदद लें नहीं तो परिणाम बुरे निकलेंगे। असर पूरे राज्य की साक्षरता पर पड़ेगा। शिक्षक संघ शेखावत पंचायत मुख्यालयों से प्रांत तक आंदोलन कर रहा है, प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षक संघ ने उच्च न्यायालय में गुहार लगाई है तो शिक्षक संघ राष्ट्रीय भी शंखनाद फूंके हुए हैं। जनता तो सुनने लग गई है इनकी बात मगर राज-काज कानों में रुई डालकर बैठा हुआ है। यदि इस शिक्षक वाणी को नहीं सुना गया तो राज की सेहत पर असर पड़ना तय है। आने वाले समय में पंचायत चुनाव है और गांवों में अब भी शिक्षक का लोगों पर प्रभाव है, कहीं उसने नजर पलट ली तो बाद में पछतावे के अलावा कुछ नहीं रहेगा। समानीकरण की बजाय शिक्षक के सम्मानीकरण की बात पर राज-काज को सोचना चाहिए।
पहले तो जाग जाते भाई...
स्वाइन फ्लू की मार अब तो बीकानेर पर भी भारी पड़ रही है। पांच मौतें और अनेकों में रोग की पुष्टि ने सबको हिला दिया है। जब देश में इस रोग का प्रकोप आया तो वो यहां भी पहुंचेगा इसका भान स्वास्थ्य महकमे ने नहीं किया न राज ने चिंता की। जब रोग ने घर बना लिया तब जाकर हाथ-पांव मारने शुरू किए। पहले से ही यदि जांच की व्यवस्था होती, इलाज के लिए दवाईयां उपलब्ध रहती, जागरूकता अभियान चलाया जाता तो शायद ऐसी विडंबना जीवन के सामने खड़ी नहीं होती। अब भी प्रशासन उस स्कूल में अवकाश करता है जहां रोगी मिल जाता है। अच्छा रहता कि एक सप्ताह अवकाश कर जागरूकता अभियान चलाया जाता और व्यापक पैमाने पर तैयारी कर सभी स्कूली बच्चों की जांच कर ली जाती। मगर यहां तो आग लगने के बाद कुआं खोदने की आदत स्वास्थ्य महकमे को पड़ी हुई है, लोग भुगतें तो भुगतें।
संस्कृति दूसरे पायदान पर
पिछले छह साल से साहित्य-कला-संस्कृति राज ने हासिये पर डाल रखी है। पिछली सरकार ने भी संगीत नाटक, राजस्थानी साहित्य, हिन्दी साहित्य, सिंधी साहित्य, ललित कला आदि अकादमियों में साढ़े तीन साल तक नियुक्तियां ही नहीं की जिसके कारण इनकी सभी गतिविधियां बंद हो गई। राज बदला तो पुराने सारे अध्यक्ष बदलने में देरी नहीं की गई मगर नये अध्यक्ष बनाने को लेकर बिल्कुल चिंता नहीं की गई। नए राज को एक साल हो गया मगर कोई हलचल नहीं है। रुग्ण साहित्यकारों-कलाकारों को मदद नहीं मिल रही, नए साहित्य का प्रकाशन नहीं हो रहा, नाट्य आंदोलन बंद सा हो गया। जिस राज में साहित्य-संस्कृति की ऐसी दशा हो उसे प्रथम श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता। हिन्दी, राजस्थानी व उर्दू के कवि स्व. मोहम्मद सदीक ने लिखा भी है-
जरा देखो इधर क्या हो रहा है, उजाला फिर अंधेरे ढो रहा है, हमारी भीड़ हमसे पूछती है, ढूंढे़ उसे कहां जो खो रहा है।

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही ...
रुथानीय सरकार चुनने में ऐसा उत्साह इस मरुनगरी में पहली बार देखने को मिला है। अब तक दल नगर निगम का मुखिया चुनते आए थे लेकिन जनता को यह हक पहली बार मिला है। आदमी के पास मूलभूत सुविधाएं होगी और वो सामाजिक-राजनीतिक तौर पर सुरक्षित होगा तभी विकास की बात सोचेगा। इस स्थिति में उसे केवल स्थानीय सरकार ला सकती है, ये सोचने का जज्बा उसमें पहली बार नजर आ रहा है। बेतरतीब नगरीय विकास ने उसका हर दिन-हर पल खराब किया हुआ है। निगम की योजनाओं का लाभ लेने की बात तो पीछे छूट जाती है क्योंकि उसे हर दिन अपने मोहल्ले की सफाई व सार्वजनिक प्रकाश व्यवस्था से लड़ना पड़ता है। ऐसे अनेक मुद्दे हैं जो हर आदमी के रोज के जीवन से जुड़े हैं जिनके हल होने की आस पहले के सिस्टम ने तोड़ दी थी मगर महापौर के सीधे चुनाव ने उसकी उम्मीद को फिर लौ दिखाई है। इस लौ को देख अन्य पदों के लिए तैयार होने वाले चुनावी धुरंधरों को अभी से सचेत हो जाना चाहिए क्योंकि हक को लेकर जब जनता जागती है तो फिर वो जनप्रतिनिधि को उसके का भान भी कराने से नहीं चूकती। क्वभास्करं के पçब्लक मेनीफेस्टो व जन सर्वेक्षण में हुई भागीदारी व आई जनता की बातें गुणीजनों को इस बात के लिए तो आश्वस्त करती ही है कि अब विकास यहां की पहली जरूरत है, इस पर हर जनप्रतिनिधि को खरा उतरना ही पड़ेगा। जनता के चेहरो पर आए भाव भविष्य को लेकर एक नई आशा, नई दिशा और नये ख्वाब की ताबीर का अहसास करा रहे हैं। लोकतंत्र को नमन।
खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए।