गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

जरा देखो इधर क्या हो रहा है......
शिक्षा, स्वास्थ्य व संस्कृति लोक कल्याणकारी राज्य में मुनाफे के नहीं सेवा के माध्यम माने जाते हैं मगर पिछले कुछ सालों से इनको सरकारों ने दूसरे पायदान पर धकेल दिया है। इसी कारण इन तीनों क्षेत्रों में अनेक विसंगतियों ने डेरा जमा लिया है जिसका दुष्परिणाम आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है। निजीकरण ने सबसे ज्यादा शिक्षा में पांव पसारे हैं जिसके कारण सरकारी स्कूलों और शिक्षकों की दशा बदतर होती जा रही है। आश्चर्य इस बात का है कि एक की जगह अनेक काम लेने के बाद भी सबसे ज्यादा प्रताड़ना शिक्षक को झेलनी पड़ रही है। कुछ समय पहले उसे पातेय वेतन पदोन्नति के जरिये तंग किया गया और उसके बाद तबादलों का डंडा नीति-नियमों को ताक पर रखकर चलाया गया। इन दो मार से शिक्षक उबरा ही नहीं था कि उसके लिए समानीकरण की चाबुक तैयार कर ली गई है। समानीकरण शब्द का मूल ध्येय समानता का है मगर प्रारंभिक व माध्यमिक शिक्षा विभाग में इसे पद तोड़ने के काम में लिया जा रहा है। एक स्कूल से शिक्षक कम करके दूसरी जगह पूर्ति करना वह भी शिक्षक की इच्छा के खिलाफ, दो तरफा नुकसान देने वाला है।
किसी भी समझदार को कहें कि दो शिक्षक पांच व पांच शिक्षक आठ कक्षाएं प्रतिदिन पढ़ाएंगे तो वो हंसे बिना नहीं रह सकता। इस अजीबोगरीब गणित की बात तो शिक्षा के प्रणेता सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन के भी समझ में नहीं आएगी। इतने कम शिक्षक रखने के बाद हम चाहेंगे कि सरकारी स्कूलों का शैक्षिक स्तर सुधरेगा और वे निजी स्कूलों का मुकाबला कर लेंगी तो यह तो मुंगेरीलाल के सपने जैसी बात हुई। मजे की बात तो यह है कि प्राथमिक स्कूल में दो व उप्रा स्कूल में पांच शिक्षक लगाने के प्रस्ताव भी शिक्षा विभाग के अधिकारी तैयार कर रहे हैं। जिस पेड़ पर हैं उसी की शाखा को काटने जैसा उपक्रम है, पेड़ की रक्षा फिर कैसे होगी। जरूरत इस बात की है कि शिक्षक अपने साथ होने वाले इस अन्याय के खिलाफ एकजुट होकर बोलें, लोकतंत्र के तीसरे पाये की मदद लें नहीं तो परिणाम बुरे निकलेंगे। असर पूरे राज्य की साक्षरता पर पड़ेगा। शिक्षक संघ शेखावत पंचायत मुख्यालयों से प्रांत तक आंदोलन कर रहा है, प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षक संघ ने उच्च न्यायालय में गुहार लगाई है तो शिक्षक संघ राष्ट्रीय भी शंखनाद फूंके हुए हैं। जनता तो सुनने लग गई है इनकी बात मगर राज-काज कानों में रुई डालकर बैठा हुआ है। यदि इस शिक्षक वाणी को नहीं सुना गया तो राज की सेहत पर असर पड़ना तय है। आने वाले समय में पंचायत चुनाव है और गांवों में अब भी शिक्षक का लोगों पर प्रभाव है, कहीं उसने नजर पलट ली तो बाद में पछतावे के अलावा कुछ नहीं रहेगा। समानीकरण की बजाय शिक्षक के सम्मानीकरण की बात पर राज-काज को सोचना चाहिए।
पहले तो जाग जाते भाई...
स्वाइन फ्लू की मार अब तो बीकानेर पर भी भारी पड़ रही है। पांच मौतें और अनेकों में रोग की पुष्टि ने सबको हिला दिया है। जब देश में इस रोग का प्रकोप आया तो वो यहां भी पहुंचेगा इसका भान स्वास्थ्य महकमे ने नहीं किया न राज ने चिंता की। जब रोग ने घर बना लिया तब जाकर हाथ-पांव मारने शुरू किए। पहले से ही यदि जांच की व्यवस्था होती, इलाज के लिए दवाईयां उपलब्ध रहती, जागरूकता अभियान चलाया जाता तो शायद ऐसी विडंबना जीवन के सामने खड़ी नहीं होती। अब भी प्रशासन उस स्कूल में अवकाश करता है जहां रोगी मिल जाता है। अच्छा रहता कि एक सप्ताह अवकाश कर जागरूकता अभियान चलाया जाता और व्यापक पैमाने पर तैयारी कर सभी स्कूली बच्चों की जांच कर ली जाती। मगर यहां तो आग लगने के बाद कुआं खोदने की आदत स्वास्थ्य महकमे को पड़ी हुई है, लोग भुगतें तो भुगतें।
संस्कृति दूसरे पायदान पर
पिछले छह साल से साहित्य-कला-संस्कृति राज ने हासिये पर डाल रखी है। पिछली सरकार ने भी संगीत नाटक, राजस्थानी साहित्य, हिन्दी साहित्य, सिंधी साहित्य, ललित कला आदि अकादमियों में साढ़े तीन साल तक नियुक्तियां ही नहीं की जिसके कारण इनकी सभी गतिविधियां बंद हो गई। राज बदला तो पुराने सारे अध्यक्ष बदलने में देरी नहीं की गई मगर नये अध्यक्ष बनाने को लेकर बिल्कुल चिंता नहीं की गई। नए राज को एक साल हो गया मगर कोई हलचल नहीं है। रुग्ण साहित्यकारों-कलाकारों को मदद नहीं मिल रही, नए साहित्य का प्रकाशन नहीं हो रहा, नाट्य आंदोलन बंद सा हो गया। जिस राज में साहित्य-संस्कृति की ऐसी दशा हो उसे प्रथम श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता। हिन्दी, राजस्थानी व उर्दू के कवि स्व. मोहम्मद सदीक ने लिखा भी है-
जरा देखो इधर क्या हो रहा है, उजाला फिर अंधेरे ढो रहा है, हमारी भीड़ हमसे पूछती है, ढूंढे़ उसे कहां जो खो रहा है।

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