बुधवार, 24 जून 2009

मेरे सीने में न सही तेरे सीने में ही सही....

संतोष भाव लेकर फकीराना अंदाज में उनींदे रहकर दूसरों का भला चाहने वाले इस शहर के लोगों की नींद तब उड़ती है जब कोई उनसे छेड़खानी करता है। राज से यह शहर तो याचक बनकर मांगता है भाग्यवादी की तरह अपने आप कुछ मिल जाने की कामना करता है। संघर्ष का इतिहास अपने सीने में समेटे यहां के लोग इसीलिए जब नींद उड़ाकर खड़े होते हैं तो अच्छे-अच्छे धराशायी हो जाते हैं। एक बार फिर बीकानेरियों से राज छेड़खानी कर रहा है। रियासतों के विलिनीकरण के समय यहां के शासकों ने वादा लिया था कि बीकानेर शिक्षा की राजधानी बनेगा। उस समय इसे माना भी गया। लोकशाही आते ही एक-एककर इस शिक्षानगरी को कमजोर किया गया। संस्कृत शिक्षा, कॉलेज शिक्षा गई अब माध्यमिक शिक्षा पर बुरी नजरें गड़ाई गई है। राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान को लेकर चल रही राजनीति ने यहां के लोगों की नींद उड़ाई है। जब स्कूली शिक्षा का मुख्यालय बीकानेर है तो इसका मुख्यालय जयपुर में क्यों बने। यह बात हर नगरवासी के दिल में घर कर गई है। निदेशक ने यदि बीकानेर के बजाय जयपुर बैठने की गलती की भी तो उन्हें अच्छे परिणाम नहीं मिलेंगे, पहले का इतिहास देखकर समझ लेना चाहिए। यदि सरकार ने सीने में अस्मिता की रक्षा को लेकर सुलग रही चिंगारी को नजरअंदाज किया तो उसकी सेहत पर असर पड़ना तय है। निदेशालय को कमजोर करने की छेड़खानी फिर की जा रही है जिसे इस संभाग का कोई बाशिंदा सहन नहीं करेगा। यह बात यहां के राजनेता (चाहे किसी दल के हों) जानते हैं इसलिए जनसुर में सुर मिला "मिले सुर मेरा तुम्हारा" गाने लग गए हैं। इसे भांपना अब सरकार उसकी ब्यूरोक्रेसी का धर्म बनता है ताकि निर्णय के समय गलती न हो।
थार रेगिस्तान के इस इलाके में इंदिरा नहर जीवनदायनी बनी हुई है। सिंचाई तो दूर पीने के पानी का संकट पैदा होने की हालत बन गई है। यहां का किसान कठोर जमीन से भी अन्न उपजाता है इसलिए उसके भावों की तासीर समझनी चाहिए। पानी को लेकर उसने करवट बदली तो लेने के देने पड़ जाएंगे। राज और काज को समझ लेना चाहिए कि यहां के लोग नहीं में संतोष कर लेते हैं मगर उनके शहर की अस्मिता से छेड़खानी की जाए तो उनके गुस्से को सहन करना किसी के बस में नहीं रहता। जमीनी हकीकत को पहचान उपाय यदि समय रहते नहीं किए गए तो फ़िर हालात को संभालना मुश्किल हो जाएगा। केन्द्रीय विवि के मुद्दे पर यहां जिस तरह से लोगों ने एकजुटता दिखाई वह यहां की तासीर का नतीजा है, क्योंकि यहां मौकापरस्त लोग नहीं बसते। संवेदना के तारों से मजहब, जाति, धर्म को फांद कर अपने को जोड़े रखते हैं। ऐसी हालत में राजनीति को भी इनके सामने सरेंडर करना पड़ता है। यदि बीकानेर की अस्मिता से छेड़खानी की गई तो पूरा संभाग एक सुर में जलवे दिखाएगा, ऐसे भाव लोगों के साफ दिख रहे हैं। संघर्ष किसी का इंतजार नहीं करता, वह अविरल धारा की तरह बहता है जो इस संभाग की भी खासियत है। तभी तो दुष्यंत ने लिखा था-मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

बुधवार, 17 जून 2009

सांईं ते सब होत हैं बंदे से कुछ नाहीं

हरबार की तरह इसबार भी आंधी-तूफ़ान और बरसात आने पर नुकसान हुआ, जनजीवन पर असर पड़ा
कुछ नही बदला, बदली है तो लोगों की पीड़ा क्योंकि वह ज्यादा गहरा गई है है। उसी तरह बिजली के खम्भे गिर रहे हैं और बिजली बंद हो रही है, पीने का पानी नही मिल रहा है। लोग शोर मचा रहे हैं और अधिकारी केवल आश्वासनों की चाशनी चटा रहे हैं। सब कुछ वर्षों से चल रहा है। एक ही रोग वर्षों से चल रहा है और उसके डाक्टर भी उपचार कर रहे हैं, बचाव नहीं।
लोकशाही में विचार और सरकार के बीच समता ढूंढने लगें तो शायद अपना पूरा जीवन खपा देने के बाद भी हम छोर नहीं पा सकते। राजनीति में विचार केवल कहने बोलने की चीज है और सत्ता भोगने, इस विसंगति में यदि सरकार किसी अलौकिक शक्ति के सहारे चलने की बात कही और मानी जाए तो शायद गलत नहीं होगी। एक सरकार ने चुंगी खत्म की और भरपाई राज के खजाने से करने की बात कही। दूसरी सरकार ने बात तो यही मानी पर भरपाई को लीर-लीर कर दिया। इसके चलते प्रदेश के स्थानीय निकाय बुरी हालत में पहुंच गए। निगमों की हालत तो और भी खराब हो गई। बीकानेर संभाग के एकमात्र निगम का खेवनहार '
सांईं´ के अलावा कोई नही है। जबसे यह परिषद नगर निगम के रूप में बदली तब से यहां की आर्थिक दशा गरीब के चीर की तरह है। आधारभूत सुविधाओं का जिम्मा तो इस निकाय के पास है पर उसके लिए साधन के नाम पर केवल राम का नाम है। सभापति मेयर बनकर खुश हैं तो पार्षद कोरपरेटर बनकर इतरा रहे हैं। एक बार भी इन लोगों ने दलीय सीमाओं को तोड़कर निकाय की माली हालत सुधारने के लिए संयुक्त प्रयास नहीं किया। स्थानीय निकायों में जनता के भेजे जनप्रतिनिधियों की अपनी मजबूत सरकार होनी चाहिए मगर ये खुद ही सरकार के भरोसे हो गए हैं, उसके मोहताज हो गए हैं। कर लगाने से डरते हैं क्योंकि इससे अगली बार उनकी जीत खतरे में पड़ सकती है। सरकार के खिलाफ बोलने से डरते हैं क्योंकि नुकसान का अंदेशा रहता है। अब तो पूरी बिजली मिल रही है और ही शहर साफ हो रहा है। सड़क-नाली बननी बंद हो गई और जो बनी उनकी कीमत निगम अदा नहीं कर रहा। जब पता चल जाए कि दाता दिवालिया है तो श्रद्धालु भी अपने पांव दूसरी तरफ मोड़ लेता है। निर्माण करने वाले लोग निर्माण का आदेश लेने से भी कतराने लगे हैं। निगम के खेवनहार हैं कि अगले चुनावों को देखते हुए बिना पैसे निर्माण की पेशकश करते जा रहे हैं। अब इस हालत में पिछली सरकार की मुखिया की तरह यहां के मुखिया भी कहे कि सब कुछ भगवान भरोसे है तो शायद गलत नहीं है। निगम तो अब वाकई ऐसे ही भरोसे है। अब देखना है कि भारोसेवाला भी सरकार की तरह बनता है या भावों के भोग से पसीजता। व्यास समिति ने बीकानेर के लिए केन्द्रीय विवि की सिफारिश कर दी तो नागरिकों का हर वर्ग एकता के साथ एक झंडे के नीचे गया और नगर की शान बढ़ाई।सरकार है कि अब इसमें राजनीति का घुन लगने की प्रतीक्षा कर रही है ताकि उसको भी अपनी रंगत दिखाने का मौका मिले। बीकानेर एक बार फिर नई अंगड़ाई लेता दिख रहा है। वो राज-काज की तरह अपने को भगवान भरोसे छोड़ने के मूड में नहीं है। यदि उसके मन को भांपने में लंबरदार लोग चूके तो लोकशाही में उनकी चूक निश्चित हो जाएगी। सांई के बंदे इस बार कुछ अलग ही मूड मे हैं। 'सांई ते सब होत हैं बंदे से कुछ नाहिं, राई से पर्वत करे पर्वत राई माहिं´

गुरुवार, 11 जून 2009

अंधों के शहर में
बेचता हूँ आईना

क्या हाल पूछते हो मेरे कारोबार का
अंधों के शहर में बेचता हूँ आईना

पीबीएम अस्पताल में हुई लाइलाज बीमारी अब कैसे ठीक हो। कभी डाक्टर भड़क जाते हैं तो कभी मरीजों के परिजन अपने ज़ज्बात नही रोक पाते। पिछले एक पखवाड़े से संभाग का यह सबसे बड़ा अस्पताल हर जुबान पर चढा हुआ है। मरीज को लगी ड्रिप देखने का स्नेहिल आग्रह परिजन करते हैं तो वह सहन नहीं होता। ऐसी संवेदनहीनता गुस्सा ही बढाएगी। कहने को तो हम कह सकते हैं, थोड़ा इंतज़ार नहीं कर सकते मगर बात जंहा संवेदना व भावों की गहराई से निकली हो तो उसके मायने भी समझे जाने चाहिए। हर लफ्ज़ एक नहीं कई अर्थ रखता है, इसे न पहचानने वाला फ़िर हड़ताल जैसी गलती ही करता है। मरीज की मौत हुई फ़िर लावा फूटा। परिणाम वाही पुराना- हड़ताल। हड़तालों के कारण चिकित्सकों का भला होता होगा या फ़िर प्रभावित मरीज के परिजनों का, आम जनता को क्या मिलता है? उसे न चाहते हुए अकारण आफत झेलनी पड़ती है। उसे पता है तीन दिन तक वार्ताओं का दौर चलेगा, मान-मनुहार होगी, तब तक हमें तो भुगतना ही है। तीसरे चरण में एक नवजात की मृत्यु हुई, कारण चाहे कुछ भी रहा हो पर फ़िर अभिव्यक्ति विरोध के सुर में हुई। इस बार भले ही हड़ताल टाल दी गई हो मगर भरती मरीजों के दिल की दहशत पहले की बनिस्पत ज्यादा थी। एक पखवाड़े तक मजलूमों को अंहकार की मार सहनी पड़ी पर उसकी चीत्कार न सत्ता के कानों तक पहुँची न ब्यूरोक्रेसी तक। जनता को उसके हाल पर छोड़ दिया गया, इतना नाकारापन तो कंहीं देखने को नहीं मिलता। धन्य हैं वे चाँद राजनितिक लोग जिन्होंने जनता के दर्द को पहचाना। शीर्ष प्रतिनिधि तो मुंह में मूंग डाल कर बैठे रहे। बीमार पीबीएम को ठीक करने के लिए राज ने दवा दी पर फर्क नहीं पड़ा। जनता ने दुआ की पर उसका असर भी नही हुआ। जैसे राज भगवान के भरोसे रहता है वैसे ही बीकानेर की जनता को रहना होगा, ऐसा लगने लगा है। बिजली दो घंटे की बजाय तीन घंटे काटी जाती है पर किसी पर असर नहीं होता। किसानों को ६ के स्थान पर ३ घंटे बिजली मिलती है, उनके रहनुमाओं को इसका पता तब चलता है जब किसान ख़ुद चिल्लाता है। इन हालात के चलते अब तो हमें किसी मसीहा का इंतज़ार करना पड़ेगा। वह आएगा, सबको जगायेगा, और बताएगा कि उनके इस आलीजा शहर में कितनी रोशनियाँ डिब्बों में बंद पड़ी है, जरुरत है उन पर आए आवरण को हटाने की। वह हट गया तो शहर में आईने बेचने का कारोबार चल पड़ेगा।


गुरुवार, 4 जून 2009

केसरिया बालम आओ नीं पधारो म्हारे देस
मेहमान को भगवान मान परोटने वाली थार रेगिस्तान की इस छोटीकाशी में संतोष का साम्राज्य है। जितना मिले उसे बांटकर खाने को भगवान् की भक्ति व अल्लाह की इबादत मानते हैं यंहा के लोग। ऐसा अल्हड़ जीवन जीने वाले जब अपने हक़ के लिए खड़े होते हैं तो वे फ़िर पाँव पीछे नहीं रखना चाहते। प्रदेश में आईआईटी, आईआईएम, केन्द्रीय विवि खुलने हैं और बीकानेर संभाग ने पहली बार इनमें से एक की इच्छा जताई है। वह भी इसलिए कि उसे शैक्षिक असंतुलन का भान हुआ है और उसका मानना है कि इन तीनों में से किसी एक को यंहा खोला जाए तो उसके सफल रहने की पूरी संभावना है।
आमतौर पर एकराय न बनाने वाले बीकानेर ने पहली बार उच्च शिक्षण संस्थान के लिए एकसाथ कदमताल करने का निर्णय किया है। राजशाही के ज़माने से यंहा के लोग शिक्षा-संस्कृति व कला को समर्पित रहे हैं मगर इन तीनों ही दृष्टि से राज ने बीकानेर को कमजोर रखा है। यंहा का राजनेता, व्यापारी, उद्यमी, बुद्धिजीवी, छात्र आदि पहली बार एक जाजम पर आया है क्योंकि उसे पता है इस बार चूक कर दी तो पीढियां माफ़ नहीं करेगी। बीकानेर की अस्मिता का सवाल है यह। राज के अपने नजरिये होते हैं, यह यंहा के लोग भी जानते हैं मगर राज के नकेल डालने का तरीका भी यंहा के लोगों को बखूबी आता है। बीकानेर संभाग इस बार इस मामले में एक छत के नीचे दिखाई दे रहा है। यदि संस्थान खुलता है तो व्यापारी अपनी तरफ़ से मदद देगा और यंहा का नागरिक बाहर से आने वालों के स्वागत में पलक-पांवड़े बिछाएगा। हक़ की केवल मांग नहीं हो रही बल्कि उसे सहेजने का संकल्प भी लिया जा रहा है। शहर ही नही पूरे संभाग की भावना को यदि इसबार नज़रंदाज़ किया गया तो नतीजे कुछ भी हो सकते हैं। राजनेता (चाहे वह किसी भी दल का हो) यदि इस बार चूके तो उसे सहन नहीं करेंगे यंहा के लोग। अभी तो शहर का भाव इस कबीर वाणी की तरह है- साईं इतना दीजिये जा में कुटुम समाय, मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय। यदि इसे पहचाना नहीं गया तो, इग्नोर किया गया तो संभाग के लोग किसी भी तरफ़ करवट ले सकते हैं। राज को यंहा की जनभावना पहचान लेनी चाहिए नहीं तो आने वाला समय नए आयाम स्थापित कर सकता है।