सोमवार, 17 अगस्त 2009
प्रतीकों के जरिये जनता तक पहुंचते हैं डॉ राजानंद भटनागर
डॉ नेमीचंद्र जैन के एक वाक्य से मैं अपनी बात आरंभ करना चाहूंगा। भोपाल में आल इंडिया स्ट्रीट प्ले वर्कशाप एंड फेस्टिवल में उन्होंने कहा था कि रंगमंच वो निकाय है जिससे गुजरे बिना कोई नाटक पूर्णता प्राप्त नहीं करता। जो मंच पर खेला जा सके वही नाटक है बाकी तो एक साहित्यिक कृति से अधिक कुछ नहीं है। नाटक तभी छपना चाहिए जबकि वह रंगमंच की कसौटी पर मंचन के जरिये परखा जा चुका हो। आधुनिक रंगमंच के उदयकाल को लेकर संशय या मतभेद हो सकते हैं मगर इस रंगमंच ने नाट्य सोच व विचार को एक नई दिशा दी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के भारत दुर्दशा व अंधेर नगरी को लोग आधुनिक रंगमंच की प्रथम कृतियां मानते हैं, है या नहीं मैं इस विवाद में नहीं जाना चाहता पर इन नाटकों से रंगमंच और नाटक को लेकर एक नई बहस आरंभ हुई। आधुनिक रंगमंच के उदय में एकमात्र दिशा थी नाटककार की अपनी दृष्टि। आधुनिक रंगमंच ने अपने विकसित रंग शिल्प से, प्रस्तुतिकरण कला से यह सिद्ध कर दिया कि नाटक लिखना लेखक की अपनी एकांत कला नहीं है वरन नाट्यलेखन वस्तुतः नाटककार से प्रस्तुतकर्ता, निर्देशक की प्रतिभा की मांग करता है- वह अभिनेता की कला की सहज अपेक्षा करता है ताकि नाटक में निर्देशक व अभिनेता को भी नाटककार की ही भांति अपनी-अपनी सृजनात्मक शक्ति की अभिव्यक्ति का अवसर व क्षेत्र मिल सके। नाट्यकृति में रंग संभावनाएं इतनी व्यापक हों कि रंगमंच के सभी वर्गों को अपनी कल्पना और प्रतिभा दिखाने का अवसर मिल सके। इसी को हम कहेंगे समाज का रंगमंच, सब एक का रंगमंच। यह भारतीय रंगमंच का शुभ चरण था कि नाटककार अपने रंगमंच में आकर उसका अभिन्न अंग बन, अपनी लेखनकला को ह्दयंगम करने लगा। इससे यह कालजयी लड़ाई भी समाप्त हो गई कि लेखक के नाटक में निर्देशक कितनी छेड़छाड़ कर सकता है। इस विषय में हुए विवादों के किस्से हर रंगकर्मी जानता है। मैं यह सब इसलिए कह रहा हूं कि डा. राजानंदजी की उस नाट्य दृष्टि से आपको परिचित करा सकूं जो उन्होंने अपने रंगकर्म के आरंभ से अंगीकार की। पारसी और यथार्थवादी रंगमंच की खंडित होती इमारत को देखते हुए डा. साब ने अपना रंगकर्म प्रयोधर्मिता से आरंभ किया। ऐसे प्रयोग जो कथानक से लेकर नाट्य शैली तक में थे। मैं नाटक चीख का उल्लेख करना चाहूंगा जिसमें समस्या न पारिवारिक थी न सामाजिक, नितांत नया कथानक था। उस समय का कथानक था। युवा वर्ग के सामने आई चुनौतियों को इसमें स्वर दिया गया। एक व्यक्ति, एक परिवार, एक समाज की कहानी नहीं थी वरन एक समस्या की कहानी थी। जिसमें समस्या के पहलुओं को जहां खोलकर बताया गया वहीं उसकी परिणिति पर भी कटाक्ष किया गया था। आदर्शवादिता से दूर नग्न यथार्थ दिखाया, जिस पर कईयों ने असहमति भी जताई। मगर यथार्थ तो यथार्थ है, उसे स्वीकारें या उससे आंखें मूंद ले यह तो देखने वाले पर निर्भर करता है। डा. साब ने आंखें नहीं मूंदी वरन कई आंखों तक उस यथार्थ को ले जाने का माध्यम बने। इस प्रयोगधर्मी नाटक का मंचन भी एक नये तरीके का था। न मकान की दीवारें थी ना पर्दे, न कमरे की सज्जा वाले सामान। बस, इशारों से मंच सज्जा हुई और पूरा जोर अभिनय पर रहा। कथ्य और अभिनय ने मिलकर इस नाटक को बीकानेर की उल्लेखनीय प्रस्तुति बनाया था। मैं इसे बीकानेर की आधुनिक रंगमंच की एक यादगार प्रस्तुति के रूप में आज भी याद रखता हूं, वक्त आने पर इसका उल्लेख भी करता हूं। कथ्य और शिल्प, नाटक के यही तो दो महत्ती पहलू होते हैं, यह बीकानेर रंगमंच में स्थापित हो गया। आडंबर या जिसे नाट्य भाषा में ग्लैमर, तामझाम कहते हैं उससे दूर होने की बीकानेर रंगमंच ने सफल कोशिश की।प्रयोगधर्मिता इसके बाद तो डा. साहब के रंगकर्म का आधार बन गया। बेहिचक प्रयोग के जरिये नाटक लिखना और उनको खेलने का जो सिलसिला आरंभ हुआ वो तीन दशक तक अनवरत चला। इनके प्रयोगधर्मी नाटकों में सबसे बड़ी खासियत थी प्रतीकों के अवलंबन की। प्रतीकों के जरिये पात्रों की संरचना और उनकी दार्शनिकता को अभिव्यक्त करने की कड़ी चुनौती राजानंदजी ने स्वीकारी जिसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे। मैं उनके नाटकों की सूची देकर बात को लंबी नहीं करना चाहूंगा बस इतना भर कहना चाहूंगा कि इनके अधिकांश नाटकों में पात्रों के नाम नहीं है, वे व्यक्ति के रूप में पहचान लेकर दर्शक के सामने आते हैं। वे एक व्यक्ति या नाम का प्रतिनिधित्व न करके एक समूह या विचार का प्रतिनिधित्व करते दिखते हैं। नाटक की यह विधा दिखने में जितनी सरल लगती है वास्तव में उससे कहीं अधिक कठिन है। प्रतीक का अपना सौन्दर्यशास्त्र है यदि उसकी पालना न की जाए तो नाट्य कृति असफल होते भी देर नहीं लगाती। प्रतीकों के जरिये ही राजनानंदजी ने अपने कथानकों को अधिकांशतः जनता तक पहुंचाने का काम किया है। यहां में नाटक चौकियां कौन तोड़ेगा का जिक्र करना चाहूँगा जिसमें भी पात्रों की पहचान संख्या से है, नामों से नहीं। पर हर एक किसी न किसी वर्ग और उसके विचार का प्रतिनिधित्व करता है। चाहे सत्ता हो या समाज, शक्ति हो या अर्थ, सबने अपनी चौकियां बना ली है और उसके लिए ही आम आदमी को हांकना चाहते हैं। अपनी चौकी को बड़ा करने के लिए हर कोई बड़ा गढ्ढा बना मिट्टी एकत्रित करने में लगा रहता है। प्रतिस्पर्धा इतनी है कि थकने के बाद भी काम रोक नहीं रहा। उससे पूछा जाता है तो वह कहता है उसके समीप वाला काम रोके तब मैं रोकूं ना। अंधी प्रतिस्पर्धा व अहंकार की प्रतीक चौकियां जीवन के हर पहलू को प्रतीकों के जरिये खोलकर दशर्क के सामने रखती है। ऐसा नहीं है कि नाटक केवल ऋणात्मक सोच का निष्पादन करता है। अंत में चौकियां तोड़ गड्ढ़े को भरने पर भी सहमति होती है क्योंकि उन पर बैठे लोगों को अहसास हो जाता है कि हम तो कठपुतली बनते जा रहे हैं। चौकियां तोड़ने तक की हालत में होने वाली नाटक की समाप्ति इस बात को बल देती है कि समूह यदि एक सोच पर आ जाए तो हर मुश्किल के रास्ते निकल सकते हैं। प्रतीकों का अवलंबन केवल कथानक में ही नहीं हुआ है, भाषा में भी उनका शानदार उपयोग हुआ है। उस नाटक की एक बानगी देखिए। चौथा चरित्र कहता है जब बाकी तीन अपने काम को रोक फ्रीज हो जाते हैं। वो दर्शकों से मुखातिब होकर अपनी बात रखता है- हो सकता है कि आप भी मेरी तरह दिमाग में शायद या संदेह लेकर जायें। मैं उस कंदील की बात कर रहा हूं जिसको हम सबने दूर लटका देखा। यह भावुकता भी हो सकती है। हम चारों की खामखयाली भी। लेकिन मुझे वह एक प्रचलित कथा याद आ रही है जिसमें कड़ाके की ठंड में, जिस्म को काटने वाले पानी के बीच, एक व्यक्ति ने महल की दीवार पर जलते दिये को देखते हुए नंगे बदन सारी रात काट दी थी। दिये ने चाहे गर्मी न दी हो, लेकिन उसकी एकाग्रता ने, उसे उस कठिन रात से बचा लिया। वक्त की ठंड से क्या हम बच सकेंगे? विकल्प कहां है? एक तरफ जड़ता है, दूसरी तरफ जीते रहने के लिए कोई कन्दील। वो चाहे पहुंच से दूर हो, संवाद के अंत में यही चौथा पात्र कहता है- मैं अब अलग हूं अलग.. आप सोचिये.. अपने को पहचानिये-- पहचानिये.. मैं भी चलूं। उनके साथ। अपने लिए। उनके लिए...। एक आशावाद के साथ चौकियां कौन तोड़ेगा का अंत होता है। संवाद की भाषा बताती है कि प्रतीकों के जरिये हालात का खाका खींचा गया वहीं एक राह की तरफ इशारा भी किया गया। नाटक के मंचन का मैं साक्षी रहा हूं इसलिए दावा कर सकता हूं कि हॉल छोड़ने वाला हर दर्शक बाहर निकलकर सोचने के लिए मजबूर था कि उसे चौकियों की सीमा में बंधकर जीना है या अपनी अस्मिता को पहचान देनी है। प्रतीकों के उपयोग का यह राजानंदजी का उत्कृष्ट नाटक माना जाना चाहिए। अपनी पुस्तक आदमी हाजिर है में डा. साब ने स्वयं लिखा है "यह सही है कि मेरी रूचि प्रयोग शैली में नाटक लिखने और प्रस्तुत करने में रही। प्रयोगशीलता का आधार भी यथार्थ होता है। इसकी नींव वास्तविकता मे होती है, सुविधा यह हो जाती है कि हम वर्तमान की जटिल समस्याओं को ना मालूम अन्तः सूत्र में बींधकर सघनता तथा तीखेपन के साथ संख्या प्रेषित कर सकते हैं।" राजानंदजी के गुंगबोंग मर गया, आदमी हाजिर है नाटकों का धरातल भी प्रयोगधर्मिता व प्रतीकों का है जिस पर ज्यादा बात करके मैं समय जाया नहीं करना चाहता। मैं उनके नाटक सदियों से सदियों तक पर अपनी बात जरूर कहना चाहूंगा। यह नाटक रोहतक में हुई अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता में पुरस्कृत भी हुआ था। इस नाटक का जिक्र मैं केवल इसलिए करना चाहूंगा कि मैं उसमें एक कलाकार के रूप में भी शामिल था। नाटक की स्क्रिप्ट का वाचन हुआ और मेरी भारी आवाज व उसकी डेप्थ के कारण इन्होंने मुझे एक रोल दे दिया। रिहर्सल भी आरंभ हो गई पर सच कह रहा हूं मैं केवल संवाद व भाषा के जरिये अपने पात्र को निभा रहा था। नाटक का रोहतक में मंचन हो गया, हजारों दर्शकों की उपस्थिति में वाहवाही भी मिली। सच यह था कि सफल अभिनय करने के बाद भी मैं उस पात्र की दार्शनिकता व उसके सभी प्रतीकों को समझ नहीं पाया था। पुस्तक प्रकाशन तक आई तो मैंने अपनी बात में भी यह लिखा जो छपा हुआ भी है। पर मेरे लिखे को देखकर डा. साब ने मुझसे उस नाटक व पात्र पर विस्तार से चर्चा की। तब उन्होंने समझाया कि हर युग में दो धाराएं समान रूप से चलती आई है और मगर उनके बीच एक सेतु भी होता है। यह सेतु दोनों युगों के जीवन, दर्शन को जोड़ने का काम करने के साथ नई धारा के लिए प्रोत्साहित भी करता है। यही तुम्हारा पात्र है। सच कहता हूं, उसके बाद ही नाटक व मैं मेरा पात्र समझ पाया। अपने आप में यह सवाल हो सकता है कि बिना पात्र समझे मैंने कैसे अच्छा अभिनय कर लिया और मंचन उत्कृष्ट कैसे हो गया। इसके लिए लेखक नहीं निर्देशक डा. राजनांद भटनागर बधाई के पात्र हैं। मंचन मे दिन कम थे इसलिए उन्होंने बतौर निर्देशक मुझे संवादों की गहराई और अभिव्यक्ति के लिए टिप्स दे दिए जिनसे नाटक तो हो लिया। बाद में उन्होंने अपनी चिरपरिचित हंसी में मुझे कहा कि मैं जानता था तुम बिना समझे अभिनय कर रहे हो, इसलिए टिप्स के सहारे में नाटक खींच ले गया। जहां नाटककार की सीमा समाप्त होती है वहां से निर्देशक का कौशल शुरू होता है, इसकी सीख मुझे मिल गई। जो हर रंगकर्मी के लिए जाननी जरूरी होती है। मैं कहना यह चाहता हूं कि उनके नाटकों की सफलता का एक कारण यह भी था कि वे अपने नाटकों के खुद ही निर्देशक होते थे। इससे कलाकारों की कई कमियों का निदान अपने आप हो जाता था।इनके निर्देशकीय पक्ष की बात हो ही गई है तो मैं एक बात और कहना चाहूंगा। मैंने रिहर्सल व मंचन दोनों समय इनके निर्देशकीय रूप को देखा है। रिहर्सल के समय वे जितने संयमित व कूल होते हैं, मंचन के समय उतने ही व्यग्र और उत्तेजित रहते हैं। इनको देखकर लगता था जैसे इस कलाकार ने अपनी प्रस्तति में अपना सर्वस्व झोंक दिया है। मंचन समाप्त होने के बाद इनके चेहरे पर वापस वही मुस्कुराहट और संतोष के भाव स्वयमेव आ जाते थे। मंचन के समय की उनकी व्यग्रता का अर्थ मैं आज तक नहीं समझ पाया, मैंने दो दर्जन से अधिक निर्देशकों के साथ अभिनय किया है पर यह कहने में मुझे संकोच नहीं की डा. साहब का अपना एक निराला अंदाज है। शब्द, संवाद या पात्र पर रिहर्सल के दौरान यदि कोई कुछ जानना चाहे तो वे टालते नहीं थे, विस्तार से बताते थे। उनका निर्देशकीय टेम्परामेंट गजब का था, उसमें गुस्सा-आक्रोश या विद्वता से भयाक्रांत करने की वृति नहीं थी। तभी मेरे जैसा जड़ कलाकार भी इनके नाटकों में काम कर गया।प्रतीक व प्रयोगशीलता ही इस नाटकाकर का गहना नहीं थे। गणगौर के जरिये लोक रूपों को इन्होंने परिमार्जित किया तो बहादुरशाह जफर व अश्वत्थामा के जरिये पौराणिक पात्रों की आधुनिक सन्दर्भों में व्याख्या भी की। रेडियो नाटक नीलकंठी व चंदा बसे आकाश के जरिये इन्होंने अलहदा नाट्य शैलियों से रू-ब-रू कराया। काव्य तो अपने आप में प्रतीकों का पर्याय होता है। उग्र साम्यवादियों की तरह नुक्कड़ नाटक से भयाक्रांत करने के बजाय उसी शैली पर इन्होंने स्वाहा-स्वाहा लिखा। उसे चौक नाटक का नाम दिया। शैली नहीं बदली तो कम से कम उसका नाम बदल जड़ प्रतीक का भंजन तो किया ही। डा. साहब के अनगिनत नाटक हैं और हर नाटक पर विस्तार से चर्चा हो सकती है मगर मैंने केवल उनके प्रयोग व प्रतीकों के माध्यम पर ही अपनी बात कहने की कोशिश की है। यहां मैं एक बात कहने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूं। वो यह कि इनके अधिकतर नाटकों का निर्देशन इन्होंने स्वयं किया जिसके कारण ही वे रिहर्सल के दौरान उसे परिमार्जित व परिष्कृत करते रहे। एक-दो नाटक ही ऐसे ही जिनको दूसरे निर्देशकों ने खेला। कलाकार की यह सीमा मुझे अखरने वाली सदैव लगी है क्योंकि मेरी मान्यता है कि अगर दूसरा निर्देशक इनके नाटक खेलता तो शायद प्रतीकों के नये रूप भी उदघाटित हो सकते थे। ऐसा क्यूं नहीं हुआ यह मैं नहीं जानता मगर इतना जरूर जानता हूं कि यह रंगमंच का दुर्भाग्य है कि ऐसा नहीं हुआ। दूसरी बात भी इसी से जुड़ी है राजानंद जी ने अनगिनत नाटक निर्देशित किए पर अपने किए, दूसरों के क्यों नहीं। यदि ऐसा होता तो शायद कई प्रचलित नाटकों के नये रूप भी उदघाटित होते। इनके रंगकर्म की ये दो सीमाएं मुझे सदा सालती रही है, आज अवसर मिला तो कह रहा हूं। अपनी बात को विराम देने से पहले मैं एक दृश्य बताना चाहूंगा। लोक सभा चुनाव 2009 का समय था। स्थान रामपुरा बस्ती की एक स्कूल जिसमें मतदान केन्द्र बना हुआ था। 7 मई का दिन। अचानक कुछ लोग आए, वोटिंग मशीन से छेड़छाड़ की। पार नहीं पड़ी तो उसे तोड़ने का प्रयास किया जाहिर है वहां तैनात कर्मचारियों से गाली-गलौच भी हो रहा था। थोड़ी देर के लिए भय और आतंक का माहौल हो गया स्कूल परिसर में। पुलिस भी आई, माहौल गर्मा गया। यह सब तेजी से घटित हो रहा था और एक शख्श चुपचाप असहाय मुद्रा में किनारे बैठे लोकतंत्र के महापर्व के इस नाटक को प्रत्यक्ष देख रहा था। जो लोगों को नाटक दिखाता आया उसके सामने यह नाटक देखने भर की मजबूरी थी। न तो वह लिख पा रहा था ना निर्देशकीय कौशल से उसे मोड़ दे पा रहा था, दर्शक बनने की मजबूरी थी। वो शख्श डा. राजानंद भटनागर थे। एक आशा है, लोकतंत्र के इस भद्दे प्रत्यक्ष देखे गए नाटक पर भी इनका नाटककार कुछ लिखेगा, अपने कलाकारों से सच को कई आंखों तक पहुंचाएगा।
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