शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा...
प्रदेश में शिक्षा के बाद यदि दूसरी कोई बड़ी प्रयोगशाला बनी है तो वह है इंदिरा गांधी नहर परियोजना। थार मरुस्थल की इस भाग्य रेखा ने एक तरफ जहां रेगिस्तान में हरियाली फैलाई वहीं दूसरी तरफ पानी के स्वाभाविक माफिया भी पनपाए। नहर के आने से पश्चिमी राजस्थान के लोगों का जीवन स्तर तो बदला पर साथ में कुछ बुराईयों ने भी यहां घेरा डाला। पानी के साथ बाहर के लोग भी यहां आए और जमीनों पर काबिज हो गए। पर यह सही है, नहर ने इस इलाके को खुशहाली दी, सरकार को आय दी। इतना होने के बाद भी इसी परियोजना को राजनेताओं ने अपना अखाड़ा बनाया। जो मंत्री आया उसने अपने इलाके में नहर का पानी ले जाने की योजना बना मूल रूप को ही बदल डाला जिसके कारण विश्व की यह सबसे बड़ी मानव जनित परियोजना तय समय में पूरी नहीं हो सकी।
अपने जीवन को जोखिम में डाल जिन नहर कर्मचारियों, श्रमिकों व अभियंताओं ने बस्ती से दूर बीहड़ में रहकर नहर बनाई अब उनको ही नजरअंदाज किया जा रहा है। पिछले डेढ़ दशक में नहर का ताना बाना ही तोड़ दिया गया है। नहर है, पानी चल रहा है, किसान उम्मीद में खेत बो रहा है पर उसकी परवाह न करते हुए सरकार नहर चलाने वालों के पद तोड़ती जा रही है। सिंचाई के लिए बनी नहर अब लोगों की प्यास बुझाने का बड़ा साधन बन गई है, इसके बावजूद अविवेकी तरीके से इसके तंत्र को मनोनुकूल बदला जा रहा है। यदि यही हालात रहे तो नहर राजनीति का अखाड़ा बन जाएगी और जमीन और लोगों की प्यास कहीं पीछे छूट जाएगी। इस परियोजना से संवेदना के साथ जुड़े लोगों से बात करते हैं तो वे दुष्यंत कुमार का शेर गुनगुना देते हैं-
यहां आते-आते सूख जाती है कई नदियां, मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा, कई फाके बिता कर मर गया जो उसके बारे में, वो सब कहते हैं अब-ऐसा नहीं-ऐसा हुआ होगा।
बेलिबास हूं.....
बीकानेर पंचायत समिति में मंगलवार को जलसा हुआ। अवसर था साधारण सभा की बैठक और जन प्रतिनिधियों के सम्मान का। गांव की सरकार बनने के बाद बीकानेर पंचायत समिति के तहत आने वाले सरपंच, जिला परिषद सदस्य, पंचायत समिति सदस्यों को पहली बार गर्मी के इस मौसम में बिजली-पानी-रोजगार-शिक्षा की तंगी पर अपनी बात कहने का अवसर मिला। पर हाय री किस्मत, लंबरदारों की मर्जी। सभा का पूरा समय स्वागत सत्कार में ही बीत गया। गांवों में पानी नहीं है पर उस पर बात करना दूसरे पायदान पर है। अभी तो जाजम बिछानी है, मोहरे सजाने हैं, दोनों तरफ खुद ही खेलें ऐसे हालात बनाने हैं-उसमें पानी की क्या बिसात। शायर अजीज आजाद ने कहा भी है- जिस्मों के इस हुजूम में मेरा वजूद क्या, पहचानता है कौन मुझको इस लिबास में।
कैसे भूले मायड़ भाषा?
अनिवार्य शिक्षा कानून को लागू करने की जल्दबाजी में राज्य के शिक्षा मंत्री ने मायड़ भाषा को लेकर जो बयान दिया उसने पूरे साहित्यिक जगत को तो नाराज किया ही है पर साथ में करोड़ो राजस्थानियों की भावना को भी आहत किया है। मातृभाषा के साथ फिलहाल शब्द के उनके उपयोग पर लोगों की नाराजगी है क्योंकि इससे राजस्थानियों की अस्मिता पर चोट पहुंची है। हर समय राज की भाषा बोलकर लोग अपना रूप बेमानी बनकर क्यूं बदलते हैं, यह शाश्वत सवाल बन गया है। यदि ऐसा ही होता रहा तो मंत्रियों पर जो रहा सहा विश्वास है लोगों का, वह भी उठ जाएगा।

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