गुरुवार, 21 जनवरी 2010

आज अपने बाजुओं को देख, पतवारें न देख...
साझा चूल्हा, साझी सीर और साझा सपना जैसी बातें पतनशील राजनीति में सोचना भी पाप है मगर नगर निगम की साधारण सभा की बुधवार को हुई बैठक ने इस सोच को गलत सिद्ध कर दिया। उपभोक्तावादी संस्कृति में जहां मानवीय मूल्य अस्मिता के लिए झूझ रहे हैं वहां राजनीतिक मूल्यों का ऐसा जानदार नजारा मिले तो आश्चर्य तो होता ही है। जनता से पहली बार सीधे महापौर चुने गए, लगा सरकार का निर्णय सही है। महापौर व पार्षदों के मध्य का ऐसा रिश्ता एक मिसाल है जिसे कोटा, जयपुर व जोधपुर के निगम को बताया जाना चाहिए। किसी काम में झगड़ा नहीं- केवल विचार मन्थन, विरोध की जगह विकास की बात, पक्ष विपक्ष की पारंपरिक राजनीतिक दूरियां नहीं, पता नहीं ऐसे कितने ही रिकार्ड आज की निगम साधारण सभा में बने। साझी राजनीति की एक नई डगर पर जाने की शहर ने कोशिश की है जो भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है। जिन लोगों ने अपने पार्षद व महापौर को चुना उनको भी पहली बार एक नए शुकुन का अहसास हुआ है, नई आशा बंधी है।
मूलभूत आवश्यकताओं के लिए जदोजहद करने की आदत से आहत लोगों को लगा है कि अब शहर की सरकार उनके द्वार तक अपने आप पहुंचेगी। इस माहौल का जितना श्रेय नए महापौर व उनके दल को दिया जाना चाहिए उससे कहीं अधिक श्रेय विपक्षी दल के पार्षदों को दिया जाना चाहिए। जिन्होंने सच्चे मन से महापौर को अपने परिवार का मुखिया मान उसमें विश्वास जताया। निगम नेतृत्व की इससे जिम्मेवारी बढ़ गई है क्योंकि पार्षद के साथ आम लोगों का विश्वास भी उनसे जुड़ा है। मामला विश्वास का है इसलिए रिश्ता नाजुक बन गया है अब यदि संवेदना के तार में कहीं चोट पहुंची तो मन टूटेगा। जो शायद कोई नहीं चाहता होगा।
निगम में नए पार्षदों ने जिस परिपक्वता को दर्शाया वो कल्पना से परे था। संभागीय मुख्यालय होने के बाद भी यह शहर अभी विकास से कोसों दूर है। दो सड़कें चौड़ी होने पर ही यहां का बाशिन्दा इतना प्रफुलिल्त हो जाता है तो सोचिए पूरा शहर वैसा हो जाएगा तो उसकी खुशी का ठिकाना भी नहीं रहेगा। बोर्ड का संकल्प स्व. दुष्यन्त की इन पंक्तियों की याद दिलाता है- एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख। अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह, यह हकीकत देख मगर खौफ के मारे न देख। वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे, कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।
अब सरकार की बारी
शहर की सरकार के मुखिया और उसके पार्षदों ने विकास के लिए कर्ज लेकर उसे चुकाने का मादा दिखा दिया अब तो बारी राज्य सरकार की है। पक्ष विपक्ष ने जताया कि वे विकास चाहते हैं, इसके लिए जो कर्ज लेंगे उसे चुकाने का मादा भी उनमें है। ऐसी सोच पहली बार सामने आई है। सरकारों की तरफ से हाशिये पर रखे जाने वाले बीकानेर ने एक नई अंगड़ाई ली है इसलिए अब राज का रवैया बदलने की चाह भी जगी है। आर्थिक रूप से कमजोर बीकानेर नगर निगम के लिए विशेष पैकेज अब बोर्ड नहीं यहां की जनता की मांग है जिसे माना ही जाना आवश्यक है। सरकार को समझना चाहिए कि यह शहर की बात है किसी दल या बोर्ड की नहीं। यदि इतनी साझी सीर के बाद भी नज़रअन्दाजी रही तो सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती है। बीकानेर के बारे में कहा भी गया है कि यहां जितना गहरा पानी है उतने ही गहरे यहां के लोग हैं इसलिए उनकी अस्मिता से कोई छेड़खानी नहीं होनी चाहिए। शहर विकास के लिए एक राह पर चला है तो सरकार को भी आगे बढ़कर हाथ थामना चाहिए तभी एक सुर निकलेगा और विकास की सरगम बजेगी। जय हो- नारा भी सार्थक होगा।

2 टिप्‍पणियां: