शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

चारों तरफ खराब यहां और भी खराब...


मंगलवार को रायसर में हुए सड़क हादसे ने पूरे शहर को झकझोर दिया। इसे मानवीयता ही कहा जाएगा कि जिसने सुना तत्परता से पीबीएम अस्पताल पहुंचा। शहर संवेदना के एक तार में बंधे ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है। जिससे जो मदद हुई उसने की। जन प्रतिनिधि भी कम संवेदनशील नहीं दिखे। एक सप्ताह में हुई 20 अकाल मौतों ने हर किसी को विचलित कर दिया था, इसी कारण न पहुंचने वाले भी उस दिन अस्पताल पहुंचे। वहां पहुंचकर आम आदमी और जन प्रतिनिधियों ने जो देखा वह उनको दो स्तर पर सोचने को मजबूर कर गया। एक तरफ दुर्घटना से उपजा गम था तो दूसरी तरफ पश्चिमी राजस्थान के इस सबसे बड़े अस्पताल की दुर्दशा पर गुस्सा था। घायल को वार्ड तक ले जाने के लिए स्ट्रेचर नहीं मिल रहे थे या सीटी स्कैन के लिए उसे कैंसर वार्ड तक ले जाना पड़ रहा था। एक्सरे का बंद कमरा भी उनके गुस्से की तासीर को बढ़ा रहा था। यदि समझदारों ने रोका न होता तो एक नई दुर्घटना व्यवहार की और खड़ी हो जाती। कांग्रेस और भाजपा, दोनों के नेता बदइंतजामी से गुस्से में थे। माहौल खराब न हो और घायलों के उपचार में बाधा न पड़े, इसलिए लोगों ने गुस्से पर काबू किया।पीबीएम में कहते हैं अब दवा के साथ दुआ का असर भी कमजोर पड़ने लगा है। मशीनें खराब, एम्बुलेंस बेकार, पद खाली और लगाम कमजोर, गरीबी में आटा गीला करने जैसे हालात हैं। अस्पताल प्रशासन अपने स्तर पर लाचारी की मुद्रा में रहता है। बजट, पद से लेकर अन्य स्वीकृतियों के लिए पेपर वार उनको ही करना पड़ता है, जन प्रतिनिधि गायब रहते हैं। सांसद और विधायकों के अपने विकास कोष हैं, उनसे भी तो संसाधन जुटाए जा सकते हैं। सत्ता दल के नेता अपने शहर का हक तो ला सकते हैं। सिने अभिनेता धर्मेन्द्र ने भी यहां इमदाद की है। संसाधन पूरे हों तो दुर्घटना के तीन घंटे बाद अस्पताल आने वाले वरिष्ठ चिकित्सक की खिंचाई भी की जाए तब वह वाजिब लगती है। एक फर्क चिकित्सा अधिकारियों को भी महसूस करना होगा। वे प्रशासनिक अधिकारी मात्र नहीं हैं, उनका काम मरीज के मर्ज को स्वयमेव ठीक करने का है। आकर निरीक्षण करने व हिदायतों की झड़ी बरसाने से चिकित्सा अधिकारियों का काम नहीं चलता। अफसोस, हादसे के दिन ऐसा भी हुआ। अब बात सर से ऊपर तक चली गई है, यदि पीबीएम के हालात पर सरकार की नरम नजर नहीं पड़ी तो आने वाले दिन बुरे होंगे। दुर्घटना किसी को कहकर नहीं होती, हमारी तैयारी तो पूरी होनी चाहिए। मैंने दुखती रग पर हाथ रखा तो एक शिक्षक नेता जिनके साथी हादसे के शिकार हुए, मुझे दुष्यंत का शेर सुना कर चल पड़े-
हालाते जिस्म, सूरते जहां और भी खराब
चारों तरफ खराब यहां और भी ख़राब

ये संघर्ष रंग लाएगा एक दिन

सत्ता के विकेन्द्रीकरण की हिमायत करने वाली सरकार हाइकोर्ट बैंच के आंदोलन को लेकर जिस तरह की बेरुखी दिखा रही है उससे संभाग का बुद्धिजीवी तबका अब नजरिया बदलने लगा है। उसे इस बात से परेशानी है कि शालीन वर्ग के आंदोलन को लेकर बात क्यों नहीं की जा रही। वकील और उनके साथ जनता कोई गैर वाजिब मांग को लेकर लड़ रहे हैं तो कहें कि ये गलत है। यदि इसे सही मानते हैं तो बात को आगे तक लेकर जाएं। सरकार का मौन अब जनता को अखरने लगा है, जिस पर कारिंदे नहीं सोच रहे। वकीलों का आंदोलन समय बीतने के साथ जनता की अस्मिता का सवाल बनता जा रहा है। जब किसी की अस्मिता को हम चुनौती देंगे तो जाहिर है वह तिलमिलाएगा। ऐसे हालात बनने लग गए हैं।

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