मंगलवार, 22 सितंबर 2009

स्मृति शेष- एस.एन.थानवी

इस तरह जीया कि जीना सिखा गया

जहां रहेगा वहां रोशनी लुटाएगा

किसी चिराग का अपना मकां नहीं होता। बीकानेर की माटी ने ऐसे कई लाल दिए जिन्होंने सीमाएं लांघी और आकाश में नक्षत्र बनकर चमके। इस मरुधरा ने तो बाहर से आए हुओं को भी अपने आंचल में समेट छांव दी फिर अपनों का तो कहना ही क्या। एस एन थानवी का पैतृक गांव कोलायत तहसील था और बाद में ये परिवार फलौदी में बस गया। बीकानेर इस आला अफसर और नेक इंसान की यादों को अपने में समेटे हुए है क्योंकि उन्होंने इसे अपना घर माना। प्रशासनिक पदों पर रहे और यहां लगातार आते रहे। सरकारी कामकाज से निवृत्त होते तो कभी पंडित आचार्य राज से मिलने जाते तो कभी सर्किट हाउस में यहां के लोगों से देर रात तक गप्पे लड़ाते रहते। पान के शौकीन थानवीजी की लोग इससे ही मनुहार करते थे तो वे आने वाले का इसी से स्वागत करते थे।संभागीय आयुक्त रहते समय उन्होंने उच्च प्रशासनिक दक्षता दिखाई। गरीब के लिए उनके दफ्तर के द्वार सदा खुले रहते थे। नीतियों-नियमों में समझौता नहीं, पर हरेक की बात सुनने से गुरेज भी नहीं। जंतुआलय में जब काले हिरनों की मौत हुई तो उसकी तह तक जाकर सरकार को रिपोर्ट दी। उनकी सच्चाई पर हर किसी ने नाज किया। नहर के प्रथम व द्वितीय चरण के आंदोलनों में मध्यस्थ बन जन-धन की हानि रुकवाई तो किसानों की बात को भी सरकार के सामने रखा। आंदोलन के चरम में भी हेतराम बेनीवाल, साहिबराम पूनिया, बल्लाभ कोचर, देवीसिंह भाटी आदि से उनकी हंसी-मजाक हमेशा माहौल को तनावमुक्त रखती थी और सरकार व आंदोलनकारियों के मध्य सेतु का काम भी करती थी। पिछले शासन में सीएम के साथ नहर यात्रा में वे ही साथ रहे क्योंकि इस मरुगंगा के हर पहलू से वे वाकिफ थे। शिक्षा सचिव रहते उन्होंने जितने लोगों की मदद की उतनी शायद ही कोई कर पाए। वंचित वर्ग से लेकर दुखी लोगों की वे सुनवाई करते थे और हाथोंहाथ राहत भी देते थे। तबादलों के लिए जिनके पास कोई एप्रोच नहीं होती उनके खेवनहार वे ही रहते मगर नियमों को नहीं तोड़ते थे। राजस्थानी की मान्यता को लेकर इस पद पर रहते हुए उन्होंने बहुत काम किया। शिक्षक संगठनों से वार्ता का सिलसिला उनकी देन है जिससे आंदोलन के बजाय सुधार के सुझाव आए। अकाल राहत के प्रभारी रहते हुए उन्होंने गांव व गरीब को नजदीक से देखा और उस तक वास्तविक मदद पहुंचाने का काम किया। बीकानेर इस मामले में उनको आज भी याद करता है। उनका जीवन केवल सरकारी हद में ही नहीं बंधा था वे समाज से भी जीवंत संपर्क रखते थे। पुष्टिकर परिषद की युवा शाखा के वे अध्यक्ष रहे। समाज के आयोजनों में जाते तो हमेशा उच्च शिक्षा की बात करते या फिर कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करते। समाज के लिए उनका योगदान सकारात्मक रहा और वे इसके व्यापक सोच पर काम करते रहे। समाज के लोग आज कह रहे थे -
मैं ख्वाब-ख्वाब जिसे ढूंढ़ता फिरा बरसों,
वो अश्क अश्क मेरी आंखों में समाया था

बीकानेर का जन-जन आज अपने इस प्रिय सखा के खोने से गमगीन है। हर किसी को वे अपने लगते थे और उन पर वैसा ही हक जताते थे। समय की साख पर निशान तो बनते हैं पर अमिट रहने वाली यादें कम ही अक्श का रूप लेती है। वह शख्श अब अक्स बनकर हर आंख में नजर आएगा। शायद यही किसी के इंसान होने की पहचान है। शायर इरशाद ने कहा है-
वो इस तरह जीया कि जीना सिखा गया
मरने के बाद जिंदगी उसे ढूंढ़ती रही

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