गुरुवार, 10 सितंबर 2009

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन

गहरे पानी पैठ के मुहावरे को चरितार्थ करने वाले बीकानेर के लोगों में गहराई है इसलिए वे कड़े परिश्रम से अमृत निकालने का काम करते हैं। थार रेगिस्तान है और सीमाई क्षेत्र है इसके बावजूद निर्भीक जीवन यहां की खासियत है। जो निर्भीक जीता है वो संघर्ष भी करता है। बरसों लड़ाई लड़ी तब जाकर शहर को महाराजा गंगासिंह विवि मिला। बारानी क्षेत्र अधिक होने के कारण अकाल का सामना करने वाले यहां के लोग अपने हक को मांगने में संकोच करते आए हैं। शायद इसीलिए शहर का रूप वैसा नहीं बन पाया जैसा पुराने लोगों ने सोचा था। अपनी बात रखने के लोकतांत्रिक अंदाज के बाद भी यहां के लोग हक से अधिकतर महरूम रहते आए हैं। राजनीतिक दल यहां सक्रिय न हो ऐसी बात नहीं है। दोनों प्रमुख दल अपने सदस्य बनाने में लगे है। संघर्ष जहां भी चल रहा है वहां इनकी भागीदारी दूसरे पायदान पर है, लोगों को अपने लिए स्वयं लड़ना पड़ रहा है।
चार माह से बिजली की समस्या ने पूरे जीवन को प्रभावित कर रखा है। विद्यार्थी पढ़ नहीं पा रहा, किसान कुओं से पानी नहीं निकाल पा रहा, गृहणी घर का कामकाज सही तरीके से नहीं कर पा रही। बिजली को लेकर जिले में हुए अधिकतर आंदोलन-विरोध प्रदर्शन ग्रामीणों ने अपने स्तर पर किए हैं और कर रहे हैं। वकीलों की लड़ाई भी इसी तर्ज पर लड़ी जा रही है। केन्द्रीय विवि को लेकर एक अजीब-सा मौन हो गया है। नहर का द्वितीय चरण पानी की तरह ही हिलोरे ले रहा है। अकाल को सुकाल में बदलने की बात ही हुई है धरातल पर बात आनी बाकी है। प्रारंभिक शिक्षा बोर्ड भी पता नहीं किस फाइल में बंद है। बीकानेर विवि कुलपति की आस में बैठा है। रवीन्द्र रंगमंच की अधूरी इमारत सरकार का मुंह चिढ़ा रही है। पीबीएम में टोप टू बॉटम पद खाली पड़े हैं। निगम व न्यास आर्थिक अभाव में विकास से मुंह चुरा रहे हैं। ऐसा तो इस शहर ने नहीं सोचा था, उसे तो अच्छे दिनों की कल्पना थी मगर अब तो अभावों का समुद्र फैला है। राजनीति वालों को सोचना चाहिए, अपने हक के लिए बीकानेर के लोगों को खुद सड़क पर क्यों उतरना पड़ रहा है। उनको उपादेयता सिद्ध करने का अवसर है, फैसला उन पर ही है।
कौन आएगा, कौन जाएगा
तबादलों का मौसम परवान पर है। सरकार ने तबादलों पर लगा प्रतिबंध हटाकर हर सरकारी महकमे को सक्रिय कर दिया है। काम तो तब होगा न जब सीट बीकानेर में ही सुरक्षित रहे। मैदान में सफेद कपड़े पहनकर अनेक नेता उतर गए हैं जिनके पास अधिकतर तबादले की मनोकामना लेकर ही लोग आते हैं। सबसे ज्यादा परेशान हमारे शिक्षक हैं। उनको यह तकलीफ है कि पता ही नहीं कि किस तरीके से उनका तबादला हो जाएगा। वे पातेय वेतन पदोन्नति की सूची पर नजर गड़ाए हैं तो समानीकरण के लगातार बदल रहे प्रस्तावों से भी चिंतित है। शिक्षण व्यवस्था, राज्यादेश, विधायक-सासंद की नाराजगी भी तबादले का कारण बन सकती है यह उनको मालूम है। नेताओं के पीछे-पीछे भागदौड़ करनी पड़ रही है इसलिए वाजिब है कि काम में मन कैसे लगेगा।

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