गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

आओ मिलकर फिर हम करें रस्म अदायगी!
एक बार फिर कागजी जोशो-खरोश से जनता की समस्याओं के निराकरण के लिए प्रशासन शहरों के संग अभियान शुरू हुआ है। पहले की ही तरह दावा किया गया है कि आधारभूत समस्याओं का अधिकारी मौके पर ही समाधान करेंगे। रस्मी तरीके से मन्त्रीजी ने उद्घाटन किया, तंबू लगे, कर्मचारी बैठे और समय मिला तो कुछ देर अधिकारी भी बैठ गए। रस्म की तरह चल रहा है अभियान, राहत कितनी मिली इस सवाल का जवाब पूछना मना है। अभियान के बाद कागज जारी कर बता दिया जाएगा कि किस विभाग ने कितनी उपलब्ध हासिल की। जनता भी इस रस्म अदायगी को समझ गई है इसलिए अपना वक्त जाया नहीं करती। जिनको विरोध करना होता है वे जाते हैं और अपना काम कर चल देते हैं। जिस सरकारी महकमे को इस नाम पर जो काम करना होता है उसको कर देते हैं, कोई रोकता नहीं क्योंकि अभियान का बहाना जो है।
वही शहर है, वही लोग हैं, वही समस्याएं हैं- फिर जनता के संग जाने की जरूरत कैसे हुई। मतलब ये कि आम दिनों में इनका संग जनता को नहीं मिलता। रोजमर्रा में जनता की आम समस्याएं हल भी नहीं होती तभी तो अभियान चलाया जाता है। वही अधिकारी व कर्मचारी हैं जो ऑफिसों में रहते हैं और काम को लटकाते हैं उनसे यह उम्मीद कैसे करें कि वे अभियान के एक दिन में समस्याओं से निजात दिला देंगे। सरकार के पास तो केवल कागज जाना है जिस पर उसे इतरने का अवसर मिल जाएगा। जनता को तो हर बार की तरह ठगे हुए ही रहना पड़ेगा। इस अभियान के अब तक के शिविरों में आला अधिकारी तो न के बराबर उपस्थित रहे हैं इस हालत में यह कैसे उम्मीद करें कि जटिल समस्याओं का हल निकल रहा है। आलीशान कमरा, रूम हीटर, कर्मचारियों की हाजिरी इन सबको छोड़कर अधिकारी किसी सामुदायिक भवन या स्कूल के साधारण से हॉल में जाएं तो भी कैसे जाएं। यदि सरकारी महकमे के लंबरदार संवेदनशील रहकर हर दिन की समस्याओं का निदान मेरिट पर करते रहें तो शायद ऐसे शिविरों की रस्म अदायगी करनी ही न पड़े।
हमें तो केवल वोट देना है
पिछले सप्ताह बीकानेर में सरकार के मुखिया और विपक्ष के मुखिया आए, ठहराव दोनों का ही 24 घंटे का भी नहीं था। हर बार की तरह बीकानेर के प्रति प्रेम, अनुराग, स्नेह बोलने में जताया पर देने के नाम पर कुछ नहीं। सरकार के मुखिया ने विपक्षी दल की बात सुनने के बजाय उनको नसीहत दे डाली। केन्द्रीय विवि के मुद्दे पर इस बात का जवाब नहीं दिया कि व्यास समिति की सिफारिश बीकानेर के लिए क्यों नहीं मानी गई उलटे यहां के सांसद को कह दिया कि आप यह मुद्दा संसद में उठाइए। दूसरी तरफ विपक्ष की मुखिया ने सूरसागर के नाम पर हल्ला मचाकर वोट तो बटोरे पर राज नहीं आया तो अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ लिया। जब उनसे इस समस्या के बारे में कहा गया तो उनका जवाब था यह काम तो सरकार का है। जनता सोचने को मजबूर है कि वोट देना ही उसका काम है क्या, जो वोट लेते हैं उनकी कोई जिम्मेवारी नहीं बनती क्या। हां यह हो सकता है कि राज और विपक्ष के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं पर वोटर के लिए उनकी जिम्मेवारी तो बनती ही है।
सपना साकार तो हो
16 साल बाद एक बार फिर कलाधर्मियों के सपने को धरातल पर उतरने का अवसर मिला है। अधूरे पड़े रवीन्द्र रंगमंच को बनाने की प्रक्रिया आरम्भ हुई है। शहर की पहचान का यह मुद्दा राजनीतिज्ञों के लिए कितना गौण रहा इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसका निर्माण बन्द होने या अधूरा पड़े रहने का मलाल किसी को नहीं था। राजनीति या व्यक्ति बिना संस्कृति-साहित्य के कोई आकार ही नहीं लेता उसके बावजूद इसी को हाशिये पर रखना एक आदत सी बन गई है। राज के सारे काम राज बदलने के बाद लाइन पर आ गए, यार्ड में खड़ी है तो केवल साहित्य-कला-संस्कृति की गाड़ी। इसको हरी झण्डी दिखाने की फुरसत शायद मिल नहीं रही।
भूखे पेट भजन न होय गोपाला
यह पुरानी कहावत है। सरकार ने निगम बना दिए और महापौर का चुनाव भी सीधे वोटों से करा दिया। खरीद-फरोत का बाजार बन्द हो गया। इस हालत में जनता की अपेक्षाएं भी बढ़ गई जिनको पूरा करने के लिए धन चाहिए। निगम की डोलती आर्थिक स्थिति को सुधारने की पहल भी सरकार को करनी चाहिए। इसमें महापौर या पार्षदों का भला नहीं है, शहर का भला है। निगम को राजनीति व राज का पहला पायदान माना जाता है यदि उसके प्रति ही सरकार संवेदनशील नहीं हुई तो फिर तेवर तीखे होने स्वाभाविक है। शहर निगम की हालत जानता है इसलिए गेन्द सरकार के पाले में है उसे यह भूलना नहीं चाहिए।

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