गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा...
बीकानेर संभाग इन दिनों पानी पर संघर्ष कर रहा है। घड़साना से खाजूवाला तक महापड़ाव या महापंचायत के जरिये किसान अपनी बात कह रहा है। दूसरी तरफ सरकार नहर में पानी की स्तिथि के बारे में हर दिन अपना पक्ष रख रही है। पिछली सरकार के समय पानी की लड़ाई में जानें गई थी इसका अहसास सरकार को है इसलिए मामले को पहले दिन से ही गंभीरता से लिया जा रहा है। मूल समस्या को लेकर दोनों पक्ष अब भी गंभीर नहीं है। राजस्थान को पानी पंजाब से मिलता है। पानी हमेशा पंजाब-राजस्थान व केन्द्र के बीच राजनीति का विषय रहा है। पानी के समझौते की पालना को लेकर कभी भी बिना राजनीति बात नहीं होती। किसान यदि अन्न पैदा करता है तो वो किसी एक राज्य का अधिकार नहीं होता अपितु समूचे देश का उस पर अधिकार होता है। नहर के पहले व दूसरे चरण के मध्य भी पानी को लेकर अपनी तरह की राजनीति चलती है। सरकार के पास पानी नहीं है और किसान बिना पानी जी नहीं सकता, दोनों अपनी जगह सही हैं। इस बार कुदरत ने भी साथ नहीं दिया। बरसात औसत से काफी कम हुई। किसान सही है या सरकार, इस बहस में जाना नहीं चाहता। सोचने का विषय तो यह है कि जब पानी की सीमितता है तो सिंचित क्षेत्र खोलने और जमीनें बेचने का काम एकबारगी रोका क्यों नहीं जाता। जितना पानी है उसी का सही बंटवारा तभी संभव है नहीं तो ऐसे आंदोलन स्वाभाविक है। इस मसले पर नीतिगत निर्णय आवश्यक है। एक तरफ वामपंथी पानी को लेकर रंग दिखा रहे हैं तो दूसरी तरफ भाजपा व बसपा के रास्ते छोड़कर अकेले ही लड़ रहे गोविंद मेघवाल ने भी आंदोलन का बिगुल बजाया हुआ है। उनका मांग पत्र लंबा है पर वो भी पानी के रंग में अवश्य रंगा हुआ है। पानी रंग दिखा रहा है जिस पर सरकार को हल निकालना ही होगा नहीं तो विषम हालात बन जाएंगे जिसकी सजा आम लोगों को भी भुगतनी पड़ेगी। कहा भी है- रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
वार्ड एमएलए बनने की ललक
नगर निगम के वाडो का परिसीमन हो गया जिसके साथ ही राजनीतिक दलों की चौसर बिछनी भी शुरू हो गई। कई दिग्गजों के वार्ड प्रभावित हुए उनको नए ठोर की तलाश है। लेकिन इस बार वार्ड एमएलए बनने की ललक पिछली बार से ज्यादा है लोगों में। जब से निगम में ठेकेदारी के व्यवसाय का राजनीतिकरण हुआ है तब से वार्ड एमएलए बनने की लिप्सा ज्यादा जगी है। सभी तो नहीं पर बड़ी संख्या में निर्वाचित हुए पार्षद ठेकेदार बन गए। राजनीति का ककहरा सिखाने वाला यह स्थानीय निकाय सेवा का केन्द्र बनने के स्थान पर व्यवसाय का केन्द्र बनने लगा है, यह चिंता का विषय है। एक तरफ राजनीति और दूसरी तरफ व्यवसाय, कहां जाएगा निगम।
जाना एक जनकवि का
रोटी नाम सत है.. जैसे जनगीत का रचयिता लाड़ला कवि हरीश भादानी चला गया। जिसने शब्दों को नए अर्थ दिए, भावों को नए तेवर दिए। उनके जाने का मलाल पूरे साहित्य जगत को रहा। साहित्य का ऐसा सम्मान ही समाज के संस्कारित होने प्रमाण है। साहित्य के सामाजिक सरोकार की बात जब भी उठेगी तब भादानी को अवश्य याद किया जाएगा। भादानी का रचनाकर्म एक आयामी नहीं था अपितु जीवन का ऐसा कोई रस नहीं था जिस पर उन्होंने न लिखा हो। एक सांचे में ढालकर उनके साहित्य का मूल्यांकन ही नहीं किया जा सकता। डॉ. नंदकिशोर आचार्य से उनकी हुईअंतिम बात इस बात की साक्षी है कि वे मुकम्मिल इंसान थे और शब्द उनका जीवन था। उसको विचारों के सरमायेदारों ने कभी प्रभावित नहीं किया। विचार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता शायद इसी कारण मजबूत थी क्योंकि वे इंसानियत से उसे जोड़ते थे। ऐसे जनकवि कभी-कभार ही बनते हैं। साहित्य को फिर एक जनकवि की तलाश रहेगी जो सड़क, चौपाल को अपना मंच माने और लोगों की जबान में उनकी बात कहे।

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