गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

जनरंजन

अतीत के गौरव से हो वर्तमान का आकलन

इंदिरा गांधी नहर की उम्र ५१ साल हो गई। थार मरूस्थल की इस जीवन रेखा ने बीकानेर, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, झुंझनूं व नागौर जिलों को वरदान दिया है। दो बूंद पानी को तरसने वाले इन इलाकों की प्यास बुझाने के साथ अन्न का उत्पादन भी किया है।१९५८ में जब इस रेगिस्तान में नहर लाने की परियोजना बनी तो लोगों को विश्वास नहीं हुआ पर इससे जुड़े अभियंताओं व कार्मिकों ने सपने को साकार किया। विषम हालात में रहकर नहर का निर्माण किया। इस गौरवशाली अतीत को नमन करते हैं तो वर्तमान की तस्वीर भी सामने आती है। अहसास होता है कि अतीत से जिस इमारत की उमीद थी वो ऐसी तो नहीं थी। आज नहर क्षेत्र में किसान का आक्रोश चरम पर है इसका कोई तो कारण होगा। नहर दिवस पर ऐसे ही ज्वलंत विषयों पर चिंतन समय की आवश्यकता है।
नहरी क्षेत्र है फिर भी अकाल, ऐसा कैसे। जाहिर है नीतियों में कहीं न कहीं कमी रही। नहर किनारे चरागाह विकसित किए जाने थे पर नहीं हुए इसी कारण ऐसे हालात बने। फसलें सूख जाती है, पानी पर स्थायी फैसला क्यों नहीं होता। केन्द्र व राज्य में एक ही दल की सरकार है पर पंजाब से 0.5 एमएएफ पानी पर फैसला नहीं हो रहा, क्यों। यदि पंजाब से यह पानी मिल जाए तो अधूरी छह लिफ्टों को पूरा पानी मिल सकता है। कंवरसेन व हनुमानगढ़ में उपजी सेम समस्या का हल भी नहीं खोजा जा सका है। कहने को दो चरण हो गए इस नहर के इसलिए भी कई समस्याएं पैदा हुई। एक नहर तो नजरिया भी एक होना चाहिए। जल वितरण को लेकर ही ज्यादा बवाल होता है, जाहिर है राजनीति जहां प्रवेश करेगी वहां यह सब तो होगा, इससे परियोजना का ध्येय तो नष्ट होगा ही। इसी कारण किसान वरदान का प्रसाद लेने के बजाय हक के लिए लड़ता ही रहता है। फव्वारा सिस्टम को लेकर हो रही राजनीति भी ठोस हल की तरफ खेती को ले जाने से रोक रही है, किसान व परियोजना अभियंताओं के बीच संवाद ही इसका हल है। पानी की वर्तमान दशा को देखते हुए इस सिस्टम को अपनाना अब समय की मांग है। इस यथार्थ को हम नहीं नकार सकते कि राजनेता ने जिस तरफ चाहा नहर को मोड़ा। जब पानी सीमित है तो सिंचाई का क्षेत्र भी सीमित होना चाहिए, पर उसे निरंतर विस्तार दिया जा रहा है। यह यथार्थ की अनदेखी है। नहर दिवस के मायने तभी हैं जब हम इसको बनाते-बनाते शहीद हुए अभियंताओं व मजदूरों की कुर्बानी का ध्येय पहचानें। स्वार्थ के पेटे स्वरूप को न बिगड़ने दें। सरकारें भी सस्ती लोकप्रियता के बजाय तकनीकी कारणों का परीक्षण कर निर्णय करे। सबसे बड़ी मानव श्रम की इस परियोजना पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाला समय कई नई चुनौतियां खड़ी कर देगा।
कोई तो आए सामने
बीकानेर में हाइकोर्ट की बैंच को लेकर वकील व आम आदमी लंगे अर्से से आंदोलनरत है। अदालतों में काम ठप है फिर भी कोई बात करने के लिए सामने नहीं आ रहा। सरकार है, सिस्टम है-कोई पहल तो करे। हर बात पक्ष में है फिर भी बीकानेर संभाग की अस्मिता की रक्षा के लिए चल रहे इस आंदोलन से कोई सरोकार नहीं दिखा रहा। राजनीतिक सीमाओं को तोड़कर यहां के नेताओं ने एक जाजम पर आने का काम किया फिर भी बात नहीं सुनी जा रही। वकीलों के साथ आम आदमी के मन में पनप रहे आक्रोश को पहचानने में अब देरी हुई तो अच्छे परिणाम नहीं आएंगे।

1 टिप्पणी: