एक बार फिर पीबीएम में हड़ताल है और मरीज परेशान हैं। बड़े डाक्टरों को ड्यूटी पर लगाया गया है क्योंकि रेजीडेंट ने हड़ताल कर रखी है। मरीज व उनके परिजनों को ऐसे हालात का सामना कई बार करना पड़ता है। पीबीएम में दर्द अब उनकी आदत बन गई जिसे सहकर भी वे इलाज कराते हैं। जो मजबूर होते हैं या आर्थिक रूप से ठीकठाक होते हैं वे निजी अस्पतालों की शरण में चले जाते हैं। पर इस बार हड़ताल का ध्येय अलग है। रेजीडेंट डाक्टर्स अपने हक के लिए लड़ रहे हैं, इसे तो एक कॉज माना जा सकता है। अच्छा कॉज हो तो रास्ते भी अच्छे होने चाहिए। रेजीडेंट का इस बार मरीजों से कोई मुकाबला नहीं है वे तो सरकार से लड़ रहे हैं। इस हालत में उनको मरीजों की सेवा का दूसरा तरीका निकालना चाहिए। कारण सरकार बने या रेजीडेंट, भुगतना मरीजों व आम जनता को ही पड़ता है। संभाग के मरीज यहां इलाज के लिए आते हैं उनको बहुत उम्मीद रहती है। इसलिए बीच का रास्ता निकलना चाहिए। दवा देने वाला सेवा का मंदिर यदि दर्द दे तो हाय निकलती है और उसके दूरगामी परिणाम मिलते हैं। जनता व मरीजों की हालत को देखते हुए सरकार को भी जल्दी निर्णय करना चाहिए। बातचीत के जरिये जायज हल समय पर निकले तो ही दर्द के लिए दवा मिलेगी नहीं तो हर जगह दवा का स्थान दर्द ले लेगा।इलाज के रास्ते और भी हैं। बीकानेर संभाग मुख्यालय है जहां पीबीएम के अलावा जिला अस्पताल भी है। इसके अतिरिक्त डिस्पेंसरीज भी है। इन विकल्पों पर राज का ध्यान जाना चाहिए। जब सैटेलाइट के रूप में जिला अस्पताल बना दिया तो वहां दवा देने का काम पूरा होना चाहिए। यहां मरीज है पर पूरा स्टाफ नहीं। जो है वो पूरी शक्ति लगाता है पर उनके हाथ असंतोष ही आता है। लोग नाराज होते हैं और गुस्सा जताते हैं। यदि यही गुस्सा राज के सामने जताकर पूरा हक लिया जाए तो उचित रहेगा। पूरा हक लेने के बाद यदि उसको मरीज तक पहुंचाने में कोई कोताही बरतता है तो फिर उसके खिलाफ आक्रोश भी जायज रहता है। हालत ये हैं कि हमारे जन प्रतिनिधियों को कई विषय बोलने के लिए मिल जाते हैं पर ऐसे महती विषय पर उनका ध्यान भी नहीं जाता। हर चीज में प्राथमिकता तो तय करनी ही पड़ेगी तभी राजनीति की दिशा सही रह सकती है। बिना प्राथमिकता के तो हम अंधी दौड़ के धावक बनेंगे जिसकी सफलता संदिग्ध ही रहती है।
बात करते ही छलकता है दर्द
भास्कर ने वार्ड की समस्याओं के लिए रू-ब-रू आरंभ किया। वार्ड जाकर देखा तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। सड़क, नाली, बिजली, पानी, जल निकासी, बरसात में परेशानी, सफाई, डिस्पेंसरी में दवा नहीं, पता नहीं कितनी समस्याओं से घिरे हैं बाहरी वार्ड। हर आदमी के पास दर्द का एक फसाना है। हालत यह है कि वे सांसद, विधायक व पार्षद के लिए हर बार वोट देते हैं मगर उनकी समस्याएं जस की तस है। एक अखबार के पहुंचते ही उनके फाले फूट पड़े, कहा पहली बार कोई सुनने तो आया। समस्या हल हो या न हो पर सुनवाई तो हुई। पता नहीं राजनीतिक दल, जन प्रतिनिधि इन पीड़ाओं को जानते हैं या नहीं, यदि नहीं तो उनको अपना ही मूल्यांकन करना चाहिए। शहर में यदि समस्याओं की यह दशा है तो पता नहीं तहसीलों और गांवों की क्या दशा होगी.....। समस्याओं से गले तक भर आई जनता यदि उठ खड़ी हुई तो क्या होगा- यह सोचना जिनका काम है उनको जाग जाना चाहिए। कबीर ने कहा भी है-
ज्यों तिल माही तेल है ज्यों चकमक में आग
तेरा सांई तुझमें बस जाग सके तो जाग
शुक्रवार, 31 जुलाई 2009
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बड़ा सही लेख है!
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चाँद, बादल और शाम
आचार्य जी
जवाब देंहटाएंआपका लेख एक पक्ष रखता है, दूसरा एक पक्ष और भी है। ये रेजीडेन्ट डाक्टर वास्तव में छात्र हैं। कोई भी मेडीकल कॉलेज छात्रों के भरोसे नहीं रहने चाहिए। रोगियों के लिए वहाँ चिकित्सक नियुक्त हैं, रेजीडेन्ट डाक्टर तो उनके देखरेख में ज्ञान अर्जित कर रहे हैं। फिर कैसे यह कहा जा रहा है कि वरिष्ठ चिकित्सकों की सेवाएं ली गयी, अरे उन्हीं की ड्यूटी है। वे सारे घर में बैठकर प्रेक्टिस करते हैं और सारा काम ये बेचारे करते हैं। इसी कारण ये बार-बार हडताल करते हैं पैसा बढाने के लिए। इनके सर से बोझ उतार दीजिए, ये मांग करने के अधिकारी ही नहीं रहेंगे। फिर शहर में अन्य सरकारी डिस्पेन्सरी और रेफरल चिकित्सालय भी हैं। क्यों नहीं सरकार उन सीनियरस से पूछ रही है कि आपके रहते रोगी परेशानी में क्यूं हैं?
अजित जी से सहमत। लेकिन सरकार खुद ही वोट लेकर सोई हुई नजर आती है तो पूछेगा कौन?...जो थोड़े बहुत हिम्म्त करते हैं उनकी सुनता ही कोई नही....
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