बुधवार, 2 जून 2010

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक...
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक गजलांश के मानिंद ही बीकानेर की आह का कोई असर सरकार पर नजर नहीं आ रहा। बीच सड़क से गुजरती ट्रेन के गुजर जाने का इंतजार करते, कॉलेज में मनमाफिक सब्जेक्ट नहीं मिलने पर यूं ही दूसरा सब्जेक्ट चुनते, सभाओं में हवाई सेवा से लेकर ड्राइपोर्ट तक की घोषणा होने पर तालियां बजाते इन शहरियों ने हर बार सरकार पर विश्वास किया मगर 'वायदों की चूसणी ही मिली। इस चूसणी से जीभ पर पड़े छालों को सालों से सहते हुए शहर सिसकियां भर रहा है मगर साहिल के तमाशायी हर डूबने वाले पर अफसोस तो करते हैं, इमदाद नहीं देते की तर्ज पर महज हमदर्दी ही हासिल हो पाई है, जख्मों पर मरहम नहीं लगा।
अपने समय में बीकानेर को शिक्षा की राजधानी बनाना तय हुआ मगर उस वादे पर किसी भी सरकार ने गौर नहीं किया। प्रदेश में आईआईटी, केन्द्रीय विवि सहित चार बड़े शिक्षण संस्थान खुलने थे। विजयशंकर व्यास समिति ने केन्द्रीय विवि को बीकानेर में खोलने की सिफारिश भी की मगर उसमें से बीकानेर को नजरअंदाज कर दिया गया। शिक्षा का समान विकास हर संभाग में हो, इस नीति वाक्य को भी नजरअंदाज किया गया। इस शहर ने खामोशी से सब सहा है और सीमितताओं में अपने को जिंदा रखा है। इस बार दलीय सीमाएं तोड़कर जन मुद्दों पर एक मंच पर आए पर सुनवाई नहीं हुई।
हवाई सेवा को देरी से मंजूरी मिली। आधे-अधूरे विवि अपनी आंखों से केवल आंसूं बहाते रहते हैं। शिक्षा निदेशालय से कामों को अन्यत्र देने का सिलसिला किसी राज में नहीं थमा। व्यापारी यहां के जागरूक हैं और विकास में भागीदार बनना चाहते हैं। उनकी चाहत पर राज मुस्कुराकर नजर तो डाले, उसका इंतजार ही हो रहा है। यहां का विश्व प्रसिद्ध ऊन उद्योग हिचकोले खाकर सांसें ले रहा है पर उसे प्राणवायु देने तक का काम नहीं किया जा रहा। इसमें कोई दो राय नहीं कि वेटेरनरी विवि की सौगात शहर को मिली पर आज की भागती रफ्तार में एक-दो काम से किसी संभाग मुख्यालय को महत्त्व नहीं मिल सकता।
पानी की तरह गहरे हैं इन्सान
इस मरूधरा में पीने का पानी गहराई पर है जिसने यहां के लोगों को कठोर परिश्रमी बनाया है पर साथ में मानवीय गहराई भी दी है। इसलिए जब तक उसकी अस्मिता पर कोई प्रहार न हो तब तक आंख भी नहीं फेरता। अब तो हदें पार लगती है। अकाल की इस विभीषिका में न चारे का पूरा प्रबंध है न पानी का। बिजली की बेवफाई तो सहन से बाहर है। रवीन्द्र रंगमंच का रुका निर्माण आरंभ हुआ तो राजस्थानी अकादमी से मायड़ भाषा की जो जोत जल रही थी उसे मद्म कर दिया गया। न साहित्य सृजन हो रहा है न साहित्य का सम्मान। साहित्यकारों को सहायता भी नहीं मिल रही। ऐसा लगता है इस शहर की कला-संस्कृति व साहित्य को तो दूसरे पायदान पर धकेल दिया गया है। निगम बनाया पर उसे आर्थिक संबल नहीं दिया, कैसे होगी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी।
शिकायत नहीं चाह है
जन जरूरतें कभी पूरी नहीं होती इसलिए मांग बने रहना ही स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी मानी जाती है। बीकानेर शहर इसी दौर से गुजर रहा है। यह शहर दिए गए सहयोग को भूलता नहीं है पर अपनी चाह बताने में पीछे रहना नहीं चाहता। हर शहरवासी चाहता है कि उसका बीकानेर भी राज्य के अन्य विकसित संभाग मुख्यालयों की तरह प्रथम पंक्ति में रहे। इस चाह को बुरा भी नहीं मानना चाहिए। माटी का मोल समझने वाले उसके लिए बोलने का मादा भी रखते हैं। बीकानेर नगर की स्थापना का दिन पास है शहर अपनी वर्षगांठ मनाने में लगा है। इस बीच यदि सरकार आए तो उसकी चाह को विस्तार मिलना भी स्वाभाविक है। बस चाह को उम्र मिल जाए तो इस मरूनगरी के भाग्य बदल सकते हैं। राम के साथ राज के जुडऩे की जरूरत है, बस।

इस तरफ आती तो हम भी देखते फसले-बहार...
बिजली और पानी, पता नहीं इनको गर्मी में ही क्या होता है। हर बार ऐसा होता है और हर बार इसकी मार सहनी पड़ती है। ऐसा भी नहीं है कि गर्मी में इन दोनों की कमी का राज या काज को पता न हो पर सिवाय सहन करने की दुहाई देने के कुछ भी जतन नहीं होता। पहले जहां शान से हर गांव-ढाणी तक बिजली पहुंचाने की बात मुख्य खबर होती थी वहीं अब कितने घंटे बिजली बंद रहेगी यह मुख्य खबर होती है। करीने से टाइम तय होता है और आजादी के इतने सालों के बाद भी घोषणा की जाती है कि दो से छह घंटे तक क्षेत्रवार बिजली बंद की जाएगी। यह तो होती है घोषणा, बिना घोषणा जो जबरदस्ती होती है वह अलग। बीकानेर तो हर गर्मी में इसका शिकार होता है। यहां के बाशिंदों की मासूमियत तो देखिये, ये नहीं कहते कि बिजली नहीं काटी जाए अपितु यह कहते हैं कि बिजली सुबह काटी जाए। दमदार आवाज में कटौती के खिलाफ आवाज बुलंद भी नहीं करते। ऐसे दयावानों की हालत को सुधारने की जेहमत भी नहीं उठाई जाती।
गांवों की हालत तो और भी खराब है। वहां तो पूरे दिन बिजली रूठे भगवान की तरह दर्शन ही नहीं देती। ग्रामीणों की आवाज भी नहीं सुनी जाती। कारखानों के चक्के जाम हो तो हों, व्यापारी का व्यापार बंद हो तो हो। बिजली तो काटी ही जाएगी। बिजली आम आदमी की तो बैरन बनी हुई है। उसे तो अपने फाल्ट ठीक कराने में भी पसीना आ जाता है। समाज का शायद ही कोई ऐसा वर्ग होगा जो बिजली की इस बदइंतजामी से बेहाल न हो। अब तो पूरा जीवन भौतिक युग में बिजली केन्द्रित हो गया है उसमें तो सब कुछ बदहाल होना ही है। व्यापारी, उद्यमी, किसान, आम आदमी, मरीज, कर्मचारी हर कोई हर गर्मी में बिजली के कारण परेशान होते हैं। कभी भी इस शाश्वत समस्या के समाधान पर ठोस प्रयास होता दिखता नहीं। केवल लाचारी व मजबूरी बताकर जनता को सहने के लिए ही मार्मिक निवेदन किया जाता है। राज तो कई आए और गए पर इस बैरन बिजली से जनता का पिंड किसी ने नहीं छुड़ाया। जनता की बेबसी पर स्व. दुष्यंत का शेर याद आता है-
रोज अखबारों में पढ़कर यह ख्याल आया हमें, इस तरफ आती तो हम भी देखते फसले-बहार, मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं, बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार।
जल बिन नहीं है कल
बिजली के बाद सबसे ज्यादा बीकानेर में हालात खराब हैं तो वो पानी के हैं। गांवों की बात तो करना ही बेमानी है जब शहर में ही पेयजल के लिए लाले पड़ते हों। बिजली व बदइंतजामी के कारण जल उत्पादन कम होता है तो जाहिर है उसकी आपूर्ति भी कम ही होती है। गांवों में तो जल संग्रहण को लेकर इतने वर्षों में भी कोई नीति नहीं बनी। डिग्गियां बना तो दी गई मगर उनकी सफाई और भराई की याद गर्मी आने पर आती है। नहरों में पानी तो चलता हैै, पर उतना नहीं चलता है, उस पर तो पंजाब से पानी न मिलने की दुहाई दे दी जाती है। नहरों के किनारे वाटर पाइंट बनाए गए पर वे जल विहीन ही रहते हैं। हालत यह है कि निजी तौर पर पानी खरीदना पड़ता है जिसके दाम भी सुरसा की तरह बढ़े हैं। 100 रुपए में मिलने वाला टैंकर गांवों में कई बार तो अब 1000 तक में लेना पड़ता है। पानी और बिजली की बदइंतजामी हर गर्मी में क्यूं होती है, क्या यह सवाल राज के मन में नहीं आता। जिनके जिम्मे यह काम है उनकी जवाबदेही तय क्यूं नहीं की जाती। यदि उनकी आवश्यकताएं हैं तो उनकी पूर्ति क्यूं नही की जाती। यदि यही हालात रहे तो जल के बिना कल गर्म हो जाएगा। जिस पर लगाम लगाना फिर मुश्किल हो जाएगा। अभी तो मौसम की शुरुआत हुई है, बात संभाली जा सकती है। ध्यान नहीं दिया तो आने वाला समय राज और काज का चैन छीन लेगा।