शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
बीकानेर के बारे में कहा जाता है कि यहां जितनी गहराई में पानी मिलता है, उतने ही गहरे इस इलाके के लोग हैं। छोटी-मोटी समस्याओं को चुपचाप सह लेते हैं, उफ तक नहीं करते। गुहार नहीं लगाते, इमदाद की फरियाद नहीं करते। धैर्य की बानगी यह है कि सालों से शहर की छाती को चीरती हुई रेल की पटरियां गुज रही हैं और दो हिस्सों में बंटा शहर फाटक खुलने का इंतजार कर रहा है। सरकार ने सहानुभूति दिखाई। रेलबाइपास और ओवरब्रिज की 'हाँ' कर दी। अब चुपचाप बैठे सालों से कागजों में दबे बाइपास से उम्मीद लगाए हैं और "नौ दिन चले ढाई कोसं" की रफ्तार से बन रहे पुल को ताक रहे हैं। कहते हैं आदमी के धैर्य की इतनी भी परीक्षा नहीं लेनी चाहिए कि जब उसका धीरज टूटे तो बवाल आ जाए। शहर में पहुंची सरकार से गुहार है, हाईकोर्ट बैंच के लिए चला आंदोलन भी यहां के लोगों ने पूरे धैर्य से किया है तो केन्द्रीय विश्वविद्यालय के लिए भी अब तक मन में धीरज है। वेटेरनरी यूनिवर्सटी घोषित होने के बाद भी खुलने के संकेत नहीं दिख रहे तब भी सहन कर रहे हैं और शहर की छाती को चीरती हुई पटरियां इसे दो भागों में बांट रही है तब दोनों किनारों पर खड़े बीकानेरी फाटक खुलने का इंतजार कर रहे है। हवाई सेवा की बातें अब भी हवा में हैं और ड्राइपोर्ट चालू होने पर भी सवालिया निशान लग रहे हैं। सड़कों की बेनूरी और सफाईकर्मियों की कमी से बदहाल हो रही सफाई व्यवस्था से जूझना तो रोजमर्रा की बात हो ही गई है, चिकित्सकों और कर्मचारियों की कमी के चलते पीबीएम अस्पताल में घट रही सेवा की गुणवत्ता के चलते आए दिन बवाल होना भी आम बात है।
सरकार के मुखिया एक बार फिर बीकानेर में हैं और शहर उनसे अपनी जरूरते मांग रहा है। जो मांगा जा रहा है वह अनुचित या गैर जायज नहीं। न्यायिक व्यवस्था के विकेन्द्रीकरण की बात जहां खुद सुप्रीम कोर्ट कह चुकी है वहीं व्यास कमेटी इस शहर को सेंट्रल यूनिवर्सटी के योग्य ठहरा चुकी है। रेलमंत्री सी.के.जाफर शरीफ के समय से ही रेलबाइपास की जरूरत केन्द्र ने मानी और राज्य के साथ एमओयू का सिलसिला चला जो चलता गया। यह सरकार दूसरी बार बनी है पर अधूरे रवीन्द्र रंगमंच की दशा नहीं सुधरी। 16 साल से कलाकर्मियों का सपना अधूरा है। समय पर रंगमंच पूरा होता तो इस पर केवल एक करोड़ ही खर्च होता मगर अब तो यह राशि आठ गुना तक पहुंच गई। कला-साहित्य-संस्कृति हमेशा सत्ताओं के दूसरे पायदान की चीजें है यह कई बार साबित होता रहा है। पिछली सरकार ने साहित्य, संस्कृति, नाटक, ललित कला आदि की अकादमियों पर अपने कार्यकाल के अंतिम साल में ध्यान दिया। इस सरकार को भी एक साल हो गया मगर सुध नहीं ली गई। बीकानेर की राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी तो केवल एक सरकारी महकमा बन कर रह गई है। अध्यक्ष नहीं तो सब काम ठप।
जाहिर है, पग-पग पर सहनशीलता का इम्तहान हो रहा है। गनीमत यह है कि यहां का आदमी अब तक ऐसे हर इम्तिहान में पास होता आ रहा है। सरकार को चाहिए कि अब इन इम्तिहानों के नतीजे जारी करे क्योंकि अब सब्र का प्याला भरने लगा है। युवा वकीलों ने हाईकोर्ट बैंच के लिए आंदोलन स्थगित करने के मुद्दे पर अपनी नाराजगी जता कर इसका संकेत दे दिया है वहीं स्टूडेंट्स सहित शहर के हर वर्ग का प्रतिनिधि केन्द्रीय विवि के मुद्दे पर एकजुट हो गया है। विनय में यहां के लोग कहते दिखते हैं- अगर खुदा न करे सच ये ख्वाब हो जाएं, तेरी सहर हो मेरा आफताब हो जाए। यह तो सच है कि यदि सब्र का प्याला भरता ही जाए तो एक दिन छलकना उसकी मजबूरी हो जाता है, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
गुरुवार, 17 दिसंबर 2009
साल बीत रहा है। सरकार का भी एक साल बीत गया। इस शहर की उम्र भी एक साल बढ़ गई। साल बीतने की आजकल खुशी मनाई जाती है बिल्कुल उसी तरह जैसे नया साल आने की। एक साल इस शहर को कई नए रंग दिखा गया। इसे आमतौर पर चुनावी साल कहा जाता है क्योंकि तीन चुनाव हुए है इसमें। जाहिर है चुनाव हो तो बाकी काम बंद, चुनाव आचार संहिता के नाम पर ऐसा होता है। एक बार इसकी पड़ताल भी की गई पर पता नहीं चला कि आचार संहिता के नाम पर बेवजह जनहित के कई काम क्यों रोके जाते हैं। यह सवाल इस बार भी उत्तरहीन रहा है।
साल 2009 ने केन्द्रीय विवि, हाइकोर्ट की बैंच, पूरा रवीन्द्र रंगमंच, रेलवे बाइपास, रिंग रोड़ सहित अनेक आशाएं जगाई थी मगर यहां के लोग इन मामलों में केवल हाथ मल रहे हैं। केवल हालात के नाम पर खंडित हुए सपनों का दर्द व्यक्त कर रहे हैं। हर किसी के जेहन में सवाल है कि इन सबके लिए हम काबिल थे फिर भी हमें वंचित क्यूं रखा गया। सवाल तो है मगर किससे किया जाए और कौन उत्तर देगा, इसका पता नहीं है। ये सवाल अब हरेक की अçस्मता से जुड़ गए हैं इसे राज और काज समझ नहीं रहे हैं। काबिल आदमी अपनी नाकामी को अधिक दिन तक सहन नहीं कर सकता और अस्मिता के मामले में तो वह हदें पार करने से भी परहेज नहीं करता।जाता साल संकेत दे रहा है कि आने वाला साल स्थानीय मुद्दों के आंदोलन का साल हो सकता है। समय रहते इन पर ठोस बात नहीं हुई तो हालात फिर काबू में नहीं रह पाएंगे।
आशाओं ने पंख फैलाए हैं
शहर की सरकार इस बार सीधे मतदान से बनी है तो लोगों की आशाओं ने भी विस्तार लिया है। पहले की तरह महापौर पार्षदों के दबाव में नहीं रहेंगे, राजनीति के कमजोर समझौते भी नहीं करने पड़ेंगे। निगम की माली हालत खराब है, सफाई कर्मचारियों की भर्ती नहीं हो रही, बजट के अभाव में निर्माण के काम शुरू नहीं हो रहे, कच्ची बस्तियों की केन्द्रीय योजनाएं लागू नहीं हो पा रही। इन सबसे निदान की जिम्मेवारी नए बोर्ड पर है। जाहिर है राज्य सरकार से बीकानेर के लिए विशेष पैकेज मिलने पर ही आर्थिक दशा में सुधार संभव है। नये महापौर ने सकारात्मक संकेत तो दिए हैं पर उनकी जल्द परिणिति भी आवश्यक है।
जाना एक रंगकर्मी का
बीकानेर रंगमंच पर अपनी हाजिर जवाबी व मसखरे अंदाज से खास पहचान बनाने वाले कलाकार बी आर व्यास पंचतत्व मे विलीन हो गए। नाटक और सुगम संगीत की दुनिया में शहर उनका नाम आदर से लेता है क्योंकि पूरी तरह अव्यावसायिक रहकर इस कलाकार ने पूरा जीवन रंगकर्म को दिया। दमदार आवाज और आंगिक अभिनय में बेजोड़ था यह रंगकर्मी। संकल्प, नट संस्थान के अलावा शहर की हर संस्था को निस्वार्थ सहयोग देने वाले इस कलाकार का साल के अंत में जाना कला जगत को बड़ी क्षति है।भूमिका, इंसपेक्टर मातादीन चांद पर, पोस्टर, फितरती चोर, तीड़ोराव, हत्यारे सहित मंचीय नाटकों के अलावा इस कलाकार ने नुक्र्ड नाटकों में भी अभिनय किया। इस कलाकार की चाह भी रवीन्द्र रंगमंच को पूर्ण देखने की थी पर वो अधूरी ही रह गई। डॉ. प्रभा दीक्षित की पंक्तियां याद आती है-
परेद लिहाफ बदलकर भी कुछ नहीं बदला, अपने को कर बहाल नया साल आ रहा। दिल की उदासियों को भी आंचल में छिपाकर, नाचेगा नया काल नया साल आ रहा।
बुधवार, 16 दिसंबर 2009
बीकानेर एक बार फिर टकटकी लगाए केन्द्र व राज्य सरकार की तरफ देख रहा है। समान सरकारों के कारण इस राज्य में आईआईटी, आईआईएम, केन्द्रीय विवि खुलने की पहल हुई। राज्य सरकार ने विजय शंकर व्यास समिति का गठन कर इनके स्थान तय करने का जिम्मा सौंपा। समिति ने अपनी रिपोर्ट बनाई और सरकार को दे दी। चार संस्थानों की सिफारिश थी जिसमें एक संस्थान केन्द्रीय विवि बीकानेर में खोलने का सुझाव दिया गया। बस, तब से यहां के लोग टकटकी लगाए सिफारिश पर घोषणा का इंतजार कर रहे हैं। राजनीतिक हदबंदी तोड़कर लोग एक मंच पर आए तो आस बंधी पर अब उस पर धुंधलका छाने लगा है। अपने आप में यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि व्यास समिति की चार में से दो सिफारिशे एज-इट-इज लागू कर दी गई। बीकानेर में केन्द्रीय विवि खोलने पर संशय बन गया। कहां चूक रही, किसके कारण रही और क्यों रही, यह जानने को यहां के लोग आतुर हैं। लोगों की आतुरता उनकी जागरूकता को अभिव्यक्त कर रही है। हर किसी के दिल में एक ही सवाल है, बीकानेर संभाग के साथ हर बार ऐसा क्यूं होता है। लोगों के भावों को पढ़ा जाए तो पता चलेगा कि केन्द्रीय विवि की बात अब संभाग वासियों की अस्मिता से जुड़ गई है। यदि उस पर आंच आई तो शायद संभाग में एक बड़े आंदोलन की नींव पड़ेगी, जिस पर बाद में नियंत्रण राज के लिए आसान नहीं होगा। यदि समय रहते बीकानेर की अस्मिता से जुड़े इस मुद्दे पर सकारात्मक निर्णय नहीं हुआ तो राज और काज के सामने बड़ी चुनौती खड़ी होनी तय है। इसके लिए अंदरखाने आंदोलन की भावभूमि भी बनने लगी है जिसका अंदाजा बहुत से लोगों को नहीं है।
पैरवी करने वालों को पैरोकार का इंतजार
न्याय के लिए लोगों की पैरवी करने वाले वकील हाइकोर्ट की बैंच चाहते हैं जिसमें उनका नहीं आम जनता का भला है। बीकानेर संभाग के सभी जिलों के लोगों को राहत मिलेगी। सस्ता न्याय समय पर व सहजता से मिलेगा। इस मांग को नाजायज तो नहीं कहा जा सकता। नेताओं से लेकर सभी तरह के सार्वजनिक लोगों की पैरवी करने वाले अधिवक्ता इतने लंबे असेü से कचहरी में धरना लगाए बैठे हैं पर उनकी दमदार पैरवी करने वाले सामने नहीं आ रहे। दबी जुबान में समर्थन हो रहा है पर बात आगे नहीं बढ़ रही। आम जनता का साथ है यह सभी जानते है, मांग जायज है इसे मानते हैं पर फिर भी सरकारें खामोश है। चाहे केन्द्र की सरकार हो या राज्य की, पैरवी करने वालों की पैरवी को आगे नहीं आ रही। बीकानेर जैसे शांत शहर में इतना बड़ा व लंबा आंदोलन फिर भी बेरुखी, ये पçब्लक है ये सब जानती है। इसके दूरगामी परिणाम सरकारों को भुगतने पड़ेंगे। जन प्रतिनिधियों ने यदि अब पहल नहीं की तो जनता उनसे भी सवाल करेगी। पीड़ की परीक्षा राज-काज को लाभ तो कभी नहीं दे सकती।
अब तो उतरने दो मैदान में
छात्र संघ चुनावों को लेकर एक बार फिर हलचल तेज हुई है। युवा तरुणाई के राजनीति में सितारे बुलंदी पर आने से छात्र नेताओं में ज्यादा अकुलाहट है जो स्वाभाविक भी है। यदि राजनीति के इस पहले ककहरे से शुरुआत हो तो भविष्य सुंदर रहता है। छात्र हक के लिए चुनावों की मांग भी करने लगे हैं हालांकि अब सत्र का बहुत कम समय शेष रहा है। सरकार को चार साल से रुकी छात्र संघ चुनाव प्रक्रिया पर कोई ठोस निर्णय तो करना ही चाहिए क्योंकि इसी पर प्रदेश की भावी राजनीति टिकती है। क्योंकि स्व. दुष्यंत ने कहा भी है-
इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है।
गुरुवार, 3 दिसंबर 2009
शिक्षा, स्वास्थ्य व संस्कृति लोक कल्याणकारी राज्य में मुनाफे के नहीं सेवा के माध्यम माने जाते हैं मगर पिछले कुछ सालों से इनको सरकारों ने दूसरे पायदान पर धकेल दिया है। इसी कारण इन तीनों क्षेत्रों में अनेक विसंगतियों ने डेरा जमा लिया है जिसका दुष्परिणाम आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है। निजीकरण ने सबसे ज्यादा शिक्षा में पांव पसारे हैं जिसके कारण सरकारी स्कूलों और शिक्षकों की दशा बदतर होती जा रही है। आश्चर्य इस बात का है कि एक की जगह अनेक काम लेने के बाद भी सबसे ज्यादा प्रताड़ना शिक्षक को झेलनी पड़ रही है। कुछ समय पहले उसे पातेय वेतन पदोन्नति के जरिये तंग किया गया और उसके बाद तबादलों का डंडा नीति-नियमों को ताक पर रखकर चलाया गया। इन दो मार से शिक्षक उबरा ही नहीं था कि उसके लिए समानीकरण की चाबुक तैयार कर ली गई है। समानीकरण शब्द का मूल ध्येय समानता का है मगर प्रारंभिक व माध्यमिक शिक्षा विभाग में इसे पद तोड़ने के काम में लिया जा रहा है। एक स्कूल से शिक्षक कम करके दूसरी जगह पूर्ति करना वह भी शिक्षक की इच्छा के खिलाफ, दो तरफा नुकसान देने वाला है।
किसी भी समझदार को कहें कि दो शिक्षक पांच व पांच शिक्षक आठ कक्षाएं प्रतिदिन पढ़ाएंगे तो वो हंसे बिना नहीं रह सकता। इस अजीबोगरीब गणित की बात तो शिक्षा के प्रणेता सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन के भी समझ में नहीं आएगी। इतने कम शिक्षक रखने के बाद हम चाहेंगे कि सरकारी स्कूलों का शैक्षिक स्तर सुधरेगा और वे निजी स्कूलों का मुकाबला कर लेंगी तो यह तो मुंगेरीलाल के सपने जैसी बात हुई। मजे की बात तो यह है कि प्राथमिक स्कूल में दो व उप्रा स्कूल में पांच शिक्षक लगाने के प्रस्ताव भी शिक्षा विभाग के अधिकारी तैयार कर रहे हैं। जिस पेड़ पर हैं उसी की शाखा को काटने जैसा उपक्रम है, पेड़ की रक्षा फिर कैसे होगी। जरूरत इस बात की है कि शिक्षक अपने साथ होने वाले इस अन्याय के खिलाफ एकजुट होकर बोलें, लोकतंत्र के तीसरे पाये की मदद लें नहीं तो परिणाम बुरे निकलेंगे। असर पूरे राज्य की साक्षरता पर पड़ेगा। शिक्षक संघ शेखावत पंचायत मुख्यालयों से प्रांत तक आंदोलन कर रहा है, प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षक संघ ने उच्च न्यायालय में गुहार लगाई है तो शिक्षक संघ राष्ट्रीय भी शंखनाद फूंके हुए हैं। जनता तो सुनने लग गई है इनकी बात मगर राज-काज कानों में रुई डालकर बैठा हुआ है। यदि इस शिक्षक वाणी को नहीं सुना गया तो राज की सेहत पर असर पड़ना तय है। आने वाले समय में पंचायत चुनाव है और गांवों में अब भी शिक्षक का लोगों पर प्रभाव है, कहीं उसने नजर पलट ली तो बाद में पछतावे के अलावा कुछ नहीं रहेगा। समानीकरण की बजाय शिक्षक के सम्मानीकरण की बात पर राज-काज को सोचना चाहिए।
पहले तो जाग जाते भाई...
स्वाइन फ्लू की मार अब तो बीकानेर पर भी भारी पड़ रही है। पांच मौतें और अनेकों में रोग की पुष्टि ने सबको हिला दिया है। जब देश में इस रोग का प्रकोप आया तो वो यहां भी पहुंचेगा इसका भान स्वास्थ्य महकमे ने नहीं किया न राज ने चिंता की। जब रोग ने घर बना लिया तब जाकर हाथ-पांव मारने शुरू किए। पहले से ही यदि जांच की व्यवस्था होती, इलाज के लिए दवाईयां उपलब्ध रहती, जागरूकता अभियान चलाया जाता तो शायद ऐसी विडंबना जीवन के सामने खड़ी नहीं होती। अब भी प्रशासन उस स्कूल में अवकाश करता है जहां रोगी मिल जाता है। अच्छा रहता कि एक सप्ताह अवकाश कर जागरूकता अभियान चलाया जाता और व्यापक पैमाने पर तैयारी कर सभी स्कूली बच्चों की जांच कर ली जाती। मगर यहां तो आग लगने के बाद कुआं खोदने की आदत स्वास्थ्य महकमे को पड़ी हुई है, लोग भुगतें तो भुगतें।
संस्कृति दूसरे पायदान पर
पिछले छह साल से साहित्य-कला-संस्कृति राज ने हासिये पर डाल रखी है। पिछली सरकार ने भी संगीत नाटक, राजस्थानी साहित्य, हिन्दी साहित्य, सिंधी साहित्य, ललित कला आदि अकादमियों में साढ़े तीन साल तक नियुक्तियां ही नहीं की जिसके कारण इनकी सभी गतिविधियां बंद हो गई। राज बदला तो पुराने सारे अध्यक्ष बदलने में देरी नहीं की गई मगर नये अध्यक्ष बनाने को लेकर बिल्कुल चिंता नहीं की गई। नए राज को एक साल हो गया मगर कोई हलचल नहीं है। रुग्ण साहित्यकारों-कलाकारों को मदद नहीं मिल रही, नए साहित्य का प्रकाशन नहीं हो रहा, नाट्य आंदोलन बंद सा हो गया। जिस राज में साहित्य-संस्कृति की ऐसी दशा हो उसे प्रथम श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता। हिन्दी, राजस्थानी व उर्दू के कवि स्व. मोहम्मद सदीक ने लिखा भी है-
जरा देखो इधर क्या हो रहा है, उजाला फिर अंधेरे ढो रहा है, हमारी भीड़ हमसे पूछती है, ढूंढे़ उसे कहां जो खो रहा है।
बुधवार, 2 दिसंबर 2009
रुथानीय सरकार चुनने में ऐसा उत्साह इस मरुनगरी में पहली बार देखने को मिला है। अब तक दल नगर निगम का मुखिया चुनते आए थे लेकिन जनता को यह हक पहली बार मिला है। आदमी के पास मूलभूत सुविधाएं होगी और वो सामाजिक-राजनीतिक तौर पर सुरक्षित होगा तभी विकास की बात सोचेगा। इस स्थिति में उसे केवल स्थानीय सरकार ला सकती है, ये सोचने का जज्बा उसमें पहली बार नजर आ रहा है। बेतरतीब नगरीय विकास ने उसका हर दिन-हर पल खराब किया हुआ है। निगम की योजनाओं का लाभ लेने की बात तो पीछे छूट जाती है क्योंकि उसे हर दिन अपने मोहल्ले की सफाई व सार्वजनिक प्रकाश व्यवस्था से लड़ना पड़ता है। ऐसे अनेक मुद्दे हैं जो हर आदमी के रोज के जीवन से जुड़े हैं जिनके हल होने की आस पहले के सिस्टम ने तोड़ दी थी मगर महापौर के सीधे चुनाव ने उसकी उम्मीद को फिर लौ दिखाई है। इस लौ को देख अन्य पदों के लिए तैयार होने वाले चुनावी धुरंधरों को अभी से सचेत हो जाना चाहिए क्योंकि हक को लेकर जब जनता जागती है तो फिर वो जनप्रतिनिधि को उसके का भान भी कराने से नहीं चूकती। क्वभास्करं के पçब्लक मेनीफेस्टो व जन सर्वेक्षण में हुई भागीदारी व आई जनता की बातें गुणीजनों को इस बात के लिए तो आश्वस्त करती ही है कि अब विकास यहां की पहली जरूरत है, इस पर हर जनप्रतिनिधि को खरा उतरना ही पड़ेगा। जनता के चेहरो पर आए भाव भविष्य को लेकर एक नई आशा, नई दिशा और नये ख्वाब की ताबीर का अहसास करा रहे हैं। लोकतंत्र को नमन।
खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए।
शनिवार, 31 अक्टूबर 2009
आग लगने पर कुआं खोदने की कहावत बहुत पुरानी है मगर शाश्वत है। जयपुर में तेल डिपो की आग लगी तो पूरा प्रदेश हिल गया। देश की इस सबसे बड़ी आग ने हर किसी को झकझोरा। इस बार केवल हादसे की संवेदना ही लोगों के मन में नहीं थी अपितु मानवीय चिंता भी केन्द्र में थी। देश-प्रदेश के साथ बीकानेर के लोगों के मन में भी चिंता की लकीर खींच गई। यहां के लोगों को अपने हालात का जायजा लेने की बात याद आई। शहर के बीचोंबीच बने पेट्रोल पंप या आबादी के पास बने गैस गोदामों का अक्स यकायक उनके सामने खिंच गया और भय की रेखा ने झकझोर दिया। जयपुर की घटना से उपजी सहानुभूति ने एक आशंका भी जगा दी। जिनको तथ्य पता नहीं थे उन्होंने जुटाने शुरू कर दिए। सच्चाई यह है कि बीकानेरवासी भी खतरे के मुहाने पर हैं, ईश्वर ने अब तक रक्षा की है इससे तसल्ली है। आने वाले समय में खतरा कितना नुकसान कर सकता है इसका अंदाजा हर कोई लगाने में लग गया है। जाहिर है प्रशासन के दिमाग पर भी सलवटें आई है। पुलिस ने आज ही सीओ और एसएचओ को अपने इलाके के पेट्रोल पंपों व गैस गोदामों के हालात बताने का आदेश दिया वहीं प्रशासन ने भी अपने स्तर पर रिपोर्ट तैयार करने की जल्दबाजी दिखाई है। पर यह सब आज ही क्यों, पहले ऐसा क्यों नहीं। यदि पहले ऐसा किया जाता तो शायद आग लगने पर कुआं खोदने की कहावत झूठी साबित हो जाती ना।
ऐसा नहीं है कि छोटे मोटे हादसों से यह शहर अछूता रहा है। आयुध डिपो में लगी आग ने पूरे शहर को दहशत में ला दिया था और हरेक प्रभावित हुआ। उसके बाद सेना ने अपने स्तर पर गोपनीयता रखते हुए नीतिगत निर्णय भी किया। मीडिया समय-समय पर गैस गोदामों व पेट्रोल पंपों की हालत की पड़ताल करता रहा है मगर प्रशासन ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। ऐसा नहीं है कि लोगों को इस व्यवसाय से कोई एतराज है। पर प्रशासन चाहे तो सुरक्षा के आधार पर शहर व घनी आबादी के मध्य आए इन स्थानों को दूरस्थ जगह जमीन आबंटित कर सकता है। बड़ी दुघüटना के बाद ऐसा करेंगे इससे तो बेहतर है पहले ही ऐसा सोच लिया जाता। इस व्यवसाय से जुड़े लोग भी प्रस्ताव मिलता तो शायद हामी ही भरते। जिस समय इनको बनाया गया उस समय इतनी आबादी नहीं थी ये विस्तार तो बाद की देन है। शहर व आबादी का विस्तार कोई प्रशासन से छिपा नहीं होता। उनको जब जमीनों का आबंटन करने में इंट्रेस्ट दिखाया जाता है तो ऐसे रिस्की व्यवसायों के लिए जमीनों का प्रावधान क्यों नहीं किया जाता।
प्रशासन ने अपने स्तर पर कभी भी इन स्थानों की सुरक्षा व्यवस्थाओं का जायजा नहीं लिया। इन व्यवसायियों से पहल करके कोई बात नहीं की। जो खामियां रही उसकी सजा तो आम जनता को भुगतनी होगी इस पर ध्यान कौन देगा। एक बार फिर जयपुर हादसे ने सोचने को मजबूर किया है। अब भी चेतने का समय है यदि इस बार भी केवल जबानी जमाखर्च हुआ तो आने वाली पीढ़ियां और समय आज को माफ नहीं करेगा। जनता को अपने हक के लिए जागने की आवश्यकता है तो जन प्रतिनिधियों को भी अपने दायित्त्व को पूरा करने का अवसर है, इसमें चूक सही नहीं हो सकती। स्व. दुष्यंत ने कहा भी है- गजब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते, वो सब के सब परीशां हैं वहां क्या हुआ होगा।
गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009
बीकानेर संभाग इन दिनों पानी पर संघर्ष कर रहा है। घड़साना से खाजूवाला तक महापड़ाव या महापंचायत के जरिये किसान अपनी बात कह रहा है। दूसरी तरफ सरकार नहर में पानी की स्तिथि के बारे में हर दिन अपना पक्ष रख रही है। पिछली सरकार के समय पानी की लड़ाई में जानें गई थी इसका अहसास सरकार को है इसलिए मामले को पहले दिन से ही गंभीरता से लिया जा रहा है। मूल समस्या को लेकर दोनों पक्ष अब भी गंभीर नहीं है। राजस्थान को पानी पंजाब से मिलता है। पानी हमेशा पंजाब-राजस्थान व केन्द्र के बीच राजनीति का विषय रहा है। पानी के समझौते की पालना को लेकर कभी भी बिना राजनीति बात नहीं होती। किसान यदि अन्न पैदा करता है तो वो किसी एक राज्य का अधिकार नहीं होता अपितु समूचे देश का उस पर अधिकार होता है। नहर के पहले व दूसरे चरण के मध्य भी पानी को लेकर अपनी तरह की राजनीति चलती है। सरकार के पास पानी नहीं है और किसान बिना पानी जी नहीं सकता, दोनों अपनी जगह सही हैं। इस बार कुदरत ने भी साथ नहीं दिया। बरसात औसत से काफी कम हुई। किसान सही है या सरकार, इस बहस में जाना नहीं चाहता। सोचने का विषय तो यह है कि जब पानी की सीमितता है तो सिंचित क्षेत्र खोलने और जमीनें बेचने का काम एकबारगी रोका क्यों नहीं जाता। जितना पानी है उसी का सही बंटवारा तभी संभव है नहीं तो ऐसे आंदोलन स्वाभाविक है। इस मसले पर नीतिगत निर्णय आवश्यक है। एक तरफ वामपंथी पानी को लेकर रंग दिखा रहे हैं तो दूसरी तरफ भाजपा व बसपा के रास्ते छोड़कर अकेले ही लड़ रहे गोविंद मेघवाल ने भी आंदोलन का बिगुल बजाया हुआ है। उनका मांग पत्र लंबा है पर वो भी पानी के रंग में अवश्य रंगा हुआ है। पानी रंग दिखा रहा है जिस पर सरकार को हल निकालना ही होगा नहीं तो विषम हालात बन जाएंगे जिसकी सजा आम लोगों को भी भुगतनी पड़ेगी। कहा भी है- रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
वार्ड एमएलए बनने की ललक
नगर निगम के वाडो का परिसीमन हो गया जिसके साथ ही राजनीतिक दलों की चौसर बिछनी भी शुरू हो गई। कई दिग्गजों के वार्ड प्रभावित हुए उनको नए ठोर की तलाश है। लेकिन इस बार वार्ड एमएलए बनने की ललक पिछली बार से ज्यादा है लोगों में। जब से निगम में ठेकेदारी के व्यवसाय का राजनीतिकरण हुआ है तब से वार्ड एमएलए बनने की लिप्सा ज्यादा जगी है। सभी तो नहीं पर बड़ी संख्या में निर्वाचित हुए पार्षद ठेकेदार बन गए। राजनीति का ककहरा सिखाने वाला यह स्थानीय निकाय सेवा का केन्द्र बनने के स्थान पर व्यवसाय का केन्द्र बनने लगा है, यह चिंता का विषय है। एक तरफ राजनीति और दूसरी तरफ व्यवसाय, कहां जाएगा निगम।
जाना एक जनकवि का
रोटी नाम सत है.. जैसे जनगीत का रचयिता लाड़ला कवि हरीश भादानी चला गया। जिसने शब्दों को नए अर्थ दिए, भावों को नए तेवर दिए। उनके जाने का मलाल पूरे साहित्य जगत को रहा। साहित्य का ऐसा सम्मान ही समाज के संस्कारित होने प्रमाण है। साहित्य के सामाजिक सरोकार की बात जब भी उठेगी तब भादानी को अवश्य याद किया जाएगा। भादानी का रचनाकर्म एक आयामी नहीं था अपितु जीवन का ऐसा कोई रस नहीं था जिस पर उन्होंने न लिखा हो। एक सांचे में ढालकर उनके साहित्य का मूल्यांकन ही नहीं किया जा सकता। डॉ. नंदकिशोर आचार्य से उनकी हुईअंतिम बात इस बात की साक्षी है कि वे मुकम्मिल इंसान थे और शब्द उनका जीवन था। उसको विचारों के सरमायेदारों ने कभी प्रभावित नहीं किया। विचार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता शायद इसी कारण मजबूत थी क्योंकि वे इंसानियत से उसे जोड़ते थे। ऐसे जनकवि कभी-कभार ही बनते हैं। साहित्य को फिर एक जनकवि की तलाश रहेगी जो सड़क, चौपाल को अपना मंच माने और लोगों की जबान में उनकी बात कहे।
गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009
जनरंजन
इंदिरा गांधी नहर की उम्र ५१ साल हो गई। थार मरूस्थल की इस जीवन रेखा ने बीकानेर, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, झुंझनूं व नागौर जिलों को वरदान दिया है। दो बूंद पानी को तरसने वाले इन इलाकों की प्यास बुझाने के साथ अन्न का उत्पादन भी किया है।१९५८ में जब इस रेगिस्तान में नहर लाने की परियोजना बनी तो लोगों को विश्वास नहीं हुआ पर इससे जुड़े अभियंताओं व कार्मिकों ने सपने को साकार किया। विषम हालात में रहकर नहर का निर्माण किया। इस गौरवशाली अतीत को नमन करते हैं तो वर्तमान की तस्वीर भी सामने आती है। अहसास होता है कि अतीत से जिस इमारत की उमीद थी वो ऐसी तो नहीं थी। आज नहर क्षेत्र में किसान का आक्रोश चरम पर है इसका कोई तो कारण होगा। नहर दिवस पर ऐसे ही ज्वलंत विषयों पर चिंतन समय की आवश्यकता है।
नहरी क्षेत्र है फिर भी अकाल, ऐसा कैसे। जाहिर है नीतियों में कहीं न कहीं कमी रही। नहर किनारे चरागाह विकसित किए जाने थे पर नहीं हुए इसी कारण ऐसे हालात बने। फसलें सूख जाती है, पानी पर स्थायी फैसला क्यों नहीं होता। केन्द्र व राज्य में एक ही दल की सरकार है पर पंजाब से 0.5 एमएएफ पानी पर फैसला नहीं हो रहा, क्यों। यदि पंजाब से यह पानी मिल जाए तो अधूरी छह लिफ्टों को पूरा पानी मिल सकता है। कंवरसेन व हनुमानगढ़ में उपजी सेम समस्या का हल भी नहीं खोजा जा सका है। कहने को दो चरण हो गए इस नहर के इसलिए भी कई समस्याएं पैदा हुई। एक नहर तो नजरिया भी एक होना चाहिए। जल वितरण को लेकर ही ज्यादा बवाल होता है, जाहिर है राजनीति जहां प्रवेश करेगी वहां यह सब तो होगा, इससे परियोजना का ध्येय तो नष्ट होगा ही। इसी कारण किसान वरदान का प्रसाद लेने के बजाय हक के लिए लड़ता ही रहता है। फव्वारा सिस्टम को लेकर हो रही राजनीति भी ठोस हल की तरफ खेती को ले जाने से रोक रही है, किसान व परियोजना अभियंताओं के बीच संवाद ही इसका हल है। पानी की वर्तमान दशा को देखते हुए इस सिस्टम को अपनाना अब समय की मांग है। इस यथार्थ को हम नहीं नकार सकते कि राजनेता ने जिस तरफ चाहा नहर को मोड़ा। जब पानी सीमित है तो सिंचाई का क्षेत्र भी सीमित होना चाहिए, पर उसे निरंतर विस्तार दिया जा रहा है। यह यथार्थ की अनदेखी है। नहर दिवस के मायने तभी हैं जब हम इसको बनाते-बनाते शहीद हुए अभियंताओं व मजदूरों की कुर्बानी का ध्येय पहचानें। स्वार्थ के पेटे स्वरूप को न बिगड़ने दें। सरकारें भी सस्ती लोकप्रियता के बजाय तकनीकी कारणों का परीक्षण कर निर्णय करे। सबसे बड़ी मानव श्रम की इस परियोजना पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाला समय कई नई चुनौतियां खड़ी कर देगा।
कोई तो आए सामने
बीकानेर में हाइकोर्ट की बैंच को लेकर वकील व आम आदमी लंगे अर्से से आंदोलनरत है। अदालतों में काम ठप है फिर भी कोई बात करने के लिए सामने नहीं आ रहा। सरकार है, सिस्टम है-कोई पहल तो करे। हर बात पक्ष में है फिर भी बीकानेर संभाग की अस्मिता की रक्षा के लिए चल रहे इस आंदोलन से कोई सरोकार नहीं दिखा रहा। राजनीतिक सीमाओं को तोड़कर यहां के नेताओं ने एक जाजम पर आने का काम किया फिर भी बात नहीं सुनी जा रही। वकीलों के साथ आम आदमी के मन में पनप रहे आक्रोश को पहचानने में अब देरी हुई तो अच्छे परिणाम नहीं आएंगे।
मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009
शब्द ढूंढेंगे संस्कार का जरिया
शब्द से पहले खुद को संस्कारित होना पड़ता है। उसके बाद उस शब्द को संस्कारित करना होता है फिर वो अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है। लोगों के दिल तक पहुंचता है। आजीवन शब्द की साधना करने वाले शब्द शिल्पी हरीश भादानी ने इसी धारणा पर हिन्दी व राजस्थानी को कई नए शब्द गढ़कर दिए। शब्द उनकी जुबान या कलम पर आते ही अपनी पहचान, भाव व संवेदना पाता था। सीधी जुबान में आम आदमी तक गहरी बात पहुंचाने का कवि के पास जरिया केवल शब्द होते हैं और भादानी के पास यही सबसे बड़ा शस्त्र था। आज के बाद कई शब्द संस्कार पाने को भटकेंगे। शब्दों का ऐसा चितेरा कहां मिलेगा जिसके पास शब्दों व भावों को एकमऐक करने की बळतं हो।
शब्दों के इस शिल्पकार की इसी खासियत के कारण कुछ उन्हें गीतकार कहते थे तो कुछ कवि। कुछ नाटककार कहते थे तो कुछ कहानीकार। शब्दों की इसी कारीगरी के कारण वे राजनीतिक विचारक बने। अपने साहित्य में जहां उन्होंने विचार को धरातल दिया वहीं उसके कलात्मक पक्ष को कभी कमजोर नहीं होने दिया। कथ्य व शिल्प का सही मिलाप उनकी हर रचना में था। नई पीढ़ी के वे संवाहक थे इसीलिए शहर का नव साहित्य अपने बचपन में ही जवान नजर आता है। शब्द की बाजीगिरी तो कई दिखाते हैं मगर शब्द को जीने वाले बिरले ही होते हैं। विचार उनके लिए जीने का तरीका था तो शब्द उनकी सांसें। साहितियक गोष्ठियों, परिचर्चाओं व मंचीय कवि सम्मेलनों को ऊर्जा देने वाले इस इंसान की याद तो कभी नहीं मिटेगी। सड़कवासी राम के इस रचयिता को मिले सभी पुरस्कार उनके सामने बौने थे। उनको तो सड़क, चौक, चौपाल पर कविता पढ़ने में आनंद आता था। गांवों की चौपाल में घरबीती रामायण सुनाते वे समाजशास्त्री बन जाते थे तो नष्टोमोह उनको मनीषी साबित करा देती थी। जीवन जीया पर एक जैसा कभी उसे परिस्थिति के अनुसार नहीं बदला। उन्होंने एक कविता में कहा भी है अब बदलो तो गुनहगार हो हरीश, वहीं रंगत, वहीं ख्याल, वहीं राह है हरीश...। बदला तो परिवेश, हालात और उनके आसपास के लोग, भादानी कभी नहीं बदले। अंतिम सांस तक भी कुछ कहने की बळत बताती है कि शायद वे मौत को भी नया संस्कार देने की जिद रखते हैं। तभी तो देह का दान किया पंचतत्व में विलीन करने की इच्छा त्यागी। शब्द के संस्कारी का जाना एक साहितियक युग का अंत होने के समान है जिसकी भरपाई होनी मुश्किल है, यह सत्य है सिर्फ कहने की बात नहीं है।
शुक्रवार, 25 सितंबर 2009
चारों तरफ खराब यहां और भी खराब...
हालाते जिस्म, सूरते जहां और भी खराब
चारों तरफ खराब यहां और भी ख़राब
ये संघर्ष रंग लाएगा एक दिन
सत्ता के विकेन्द्रीकरण की हिमायत करने वाली सरकार हाइकोर्ट बैंच के आंदोलन को लेकर जिस तरह की बेरुखी दिखा रही है उससे संभाग का बुद्धिजीवी तबका अब नजरिया बदलने लगा है। उसे इस बात से परेशानी है कि शालीन वर्ग के आंदोलन को लेकर बात क्यों नहीं की जा रही। वकील और उनके साथ जनता कोई गैर वाजिब मांग को लेकर लड़ रहे हैं तो कहें कि ये गलत है। यदि इसे सही मानते हैं तो बात को आगे तक लेकर जाएं। सरकार का मौन अब जनता को अखरने लगा है, जिस पर कारिंदे नहीं सोच रहे। वकीलों का आंदोलन समय बीतने के साथ जनता की अस्मिता का सवाल बनता जा रहा है। जब किसी की अस्मिता को हम चुनौती देंगे तो जाहिर है वह तिलमिलाएगा। ऐसे हालात बनने लग गए हैं।
मंगलवार, 22 सितंबर 2009
स्मृति शेष- एस.एन.थानवी
मैं ख्वाब-ख्वाब जिसे ढूंढ़ता फिरा बरसों,
वो अश्क अश्क मेरी आंखों में समाया था।
बीकानेर का जन-जन आज अपने इस प्रिय सखा के खोने से गमगीन है। हर किसी को वे अपने लगते थे और उन पर वैसा ही हक जताते थे। समय की साख पर निशान तो बनते हैं पर अमिट रहने वाली यादें कम ही अक्श का रूप लेती है। वह शख्श अब अक्स बनकर हर आंख में नजर आएगा। शायद यही किसी के इंसान होने की पहचान है। शायर इरशाद ने कहा है-
वो इस तरह जीया कि जीना सिखा गया
मरने के बाद जिंदगी उसे ढूंढ़ती रही
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर....
कबीरा लोहा एक है गढ़ने में है फेर, ताहि का बख्तर बने ताहि की शमशेर
अस्पताल फ़िर हड़ताल पर
रेजीडेंट डॉक्टरों ने फ़िर अपनी मांगों को लेकर हड़ताल कर दी। परिणाम वे ही हैं जो हर बार होते हैं। ऑपरेशन कम हो गए हैं। मरीजों को देखने का काम वरिष्ठ चिकित्सक कर रहे हैं इसलिए निजी अस्पतालों की और रुख हो गया है। पहले भी कहा था, मांगे और हड़ताल सही हो सकती है मगर आम आदमी को इससे तकलीफ क्यों? उसने क्या बिगाड़ा? मामला सरकार व रेजीडेंट डॉक्टरों के बीच का है मगर सफर तो मरीज करते हैं। क्या ऐसा कोई रास्ता नही निकल सकता जिसमे मरीजों को परेशानी न हो। गाँव से आई रामली को इलाज के लिए किस तरह तरसना पड़ा उससे लोग बेखबर क्यों हैं? उसे तो डॉक्टरों की अलग-अलग रेंक का भी पता नही, उसे हड़ताल की सज़ा क्यों मिले? न सरकार अड़े, न डॉक्टर इस हद तक जाएँ, कोई तो रास्ता निकालिए।
शांतता! तबादला चालू आहे
शिक्षा विभाग में इन दिनों स्कूलों की तरफ़ किसी का ध्यान नही है। शिक्षा निदेशक से लेकर बीईईओ तक तबादलों के कागजात तैयार करने में लगे हैं। ज़ाहिर है तबादले का शिकार शिक्षक होने है इसलिए वे भी इस वार से बचने की कोशिश में हैं। शिक्षक स्कूल में अनमने रहते हैं तो उसका निरिक्षण करने वालों को तबादले का काम करने से ही फुरसत नही है। क्या संदेश जा रहा है विद्यार्थियों में, पातेय वेतन पदौन्नति, तबादले, शिक्षण व्यवस्था आदि में ही पूरा विभाग लगा है तो सरकारी स्कूलों की साख तो गिरेगी ही। फ़िर कहते हैं कि बच्चे निजी स्कूलों की तरफ़ जा रहे हैं। शिक्षा का यह हाल अब आम लोगों को अखरने लगा है, इसे राज ने नहीं पहचाना तो परिणाम गंभीर निकलने तय हैं।
गुरुवार, 10 सितंबर 2009
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन
चार माह से बिजली की समस्या ने पूरे जीवन को प्रभावित कर रखा है। विद्यार्थी पढ़ नहीं पा रहा, किसान कुओं से पानी नहीं निकाल पा रहा, गृहणी घर का कामकाज सही तरीके से नहीं कर पा रही। बिजली को लेकर जिले में हुए अधिकतर आंदोलन-विरोध प्रदर्शन ग्रामीणों ने अपने स्तर पर किए हैं और कर रहे हैं। वकीलों की लड़ाई भी इसी तर्ज पर लड़ी जा रही है। केन्द्रीय विवि को लेकर एक अजीब-सा मौन हो गया है। नहर का द्वितीय चरण पानी की तरह ही हिलोरे ले रहा है। अकाल को सुकाल में बदलने की बात ही हुई है धरातल पर बात आनी बाकी है। प्रारंभिक शिक्षा बोर्ड भी पता नहीं किस फाइल में बंद है। बीकानेर विवि कुलपति की आस में बैठा है। रवीन्द्र रंगमंच की अधूरी इमारत सरकार का मुंह चिढ़ा रही है। पीबीएम में टोप टू बॉटम पद खाली पड़े हैं। निगम व न्यास आर्थिक अभाव में विकास से मुंह चुरा रहे हैं। ऐसा तो इस शहर ने नहीं सोचा था, उसे तो अच्छे दिनों की कल्पना थी मगर अब तो अभावों का समुद्र फैला है। राजनीति वालों को सोचना चाहिए, अपने हक के लिए बीकानेर के लोगों को खुद सड़क पर क्यों उतरना पड़ रहा है। उनको उपादेयता सिद्ध करने का अवसर है, फैसला उन पर ही है।
कौन आएगा, कौन जाएगा
तबादलों का मौसम परवान पर है। सरकार ने तबादलों पर लगा प्रतिबंध हटाकर हर सरकारी महकमे को सक्रिय कर दिया है। काम तो तब होगा न जब सीट बीकानेर में ही सुरक्षित रहे। मैदान में सफेद कपड़े पहनकर अनेक नेता उतर गए हैं जिनके पास अधिकतर तबादले की मनोकामना लेकर ही लोग आते हैं। सबसे ज्यादा परेशान हमारे शिक्षक हैं। उनको यह तकलीफ है कि पता ही नहीं कि किस तरीके से उनका तबादला हो जाएगा। वे पातेय वेतन पदोन्नति की सूची पर नजर गड़ाए हैं तो समानीकरण के लगातार बदल रहे प्रस्तावों से भी चिंतित है। शिक्षण व्यवस्था, राज्यादेश, विधायक-सासंद की नाराजगी भी तबादले का कारण बन सकती है यह उनको मालूम है। नेताओं के पीछे-पीछे भागदौड़ करनी पड़ रही है इसलिए वाजिब है कि काम में मन कैसे लगेगा।
गुरुवार, 3 सितंबर 2009
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए
ये सच है कि पांवों ने बहुत कष्ट उठाए,
पर पांव किसी तरह राहों पर तो आए,
हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था,
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए।
गुरुओं ने झुका लिया है मंत्री को
समानीकरण के नाम से शिक्षकों को डराने का काम एक महीने से चल रहा था। पहले शिक्षक घबराए फिर मिमयाये और अब गुर्राए। समानीकरण के आदेशों की होली जला जहां शिक्षकों ने विभाग के निर्णय को खुली चुनौती दी है वहीं हाइकोर्ट में जाकर न्यायिक पक्ष भी सामने लाए हैं। जोधपुर में वकीलों की हड़ताल है मगर समानीकरण ने शिक्षकों के वजूद को ललकारा है इसलिए वकील के बिना ही वे माननीय न्यायाधीश के सामने पेश हो गए और नोटिस जारी करा दिए। गुरुजनों की इतनी हलचल विभाग के अधिकारियों और मंत्रीजी को हिलाने के लिए काफी थी। आनन-फानन में पहले पातेय वेतन पदोन्नति से पद भरने का निर्णय हो गया। जाहिर है समानीकरण एक बार तो टल ही गया। यहां भी वही बात है, मकसद के लिए किया गया संघर्ष बेमानी थोड़े ही गया।
गुरुवार, 27 अगस्त 2009
आइये आंखें मूंद लें ये नजारे अजीब हैं...
जन प्रतिनिधि इस मसले पर बोले हैं मगर सीमित दायरे में। अभी अकाल की घोषणा हुई है, फिर निर्णय होगा, सरकारी मुहर लगेगी और अकाल राहत कार्यों को शुरू करने का आदेश राज से काज को मिलेगा। उसके बाद ग्रास रूट पर राहत देने का काम आरंभ होगा। हर किसी को लगता है कि तब तक बहुत देर हो जाएगी। समय को जीतना ही शायद अकाल पर विजय का मूल मंत्र है, यहां तो समय से मुकाबला करने की पहल की प्रतीक्षा है। बंजर जमीन व प्यासे पशु देखकर किसान का मन विचलित हो रहा है। उसे दिलासा कैसे मिले क्योंकि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है। अभी तो हालात स्व. दुष्यंत के शेर की तरह है-
वो निगाहें सलीब है हम बहुत बदनसीब
है, आइये आंखें मूंद लें ये नजारे अजीब है
नहर एक पर निगाहें दो
इंदिरा नहर कहने को तो एक है पर उसके दो चरण है इसीलिए शायद दो निगाहें भी बन गई हैं। इस नहर को मिलने वाले पानी का 60 फीसदी पहले चरण को मिलना चाहिए और शेष 40 फीसदी दूसरे चरण को जिसमें बीकानेर आता है। नहर में पानी की कमी है और उस पर भी निगाहें न्याय नहीं कर रही। किसान बताते हैं और आंकड़े भी बोलते हैं, दूसरे चरण को पानी कम मिल रहा है। राज को सोचना चाहिए यदि इस निगाहों के फर्क को किसान ने पहचान तेवर बदल लिए तो हालात भी बदलते देर नहीं लगेगी। अकाल के इस दौर में किसान हर तरफ से थपेड़े झेल रहा है। इस पानी के मुद्दे पर यदि पलटवार कर दिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे।
मंगलवार, 25 अगस्त 2009
कौन कहता है आकाश में छेद नहीं हो सकता...
कौन कहता है आकाश में छेद नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
गुरुवार, 20 अगस्त 2009
मैं एक समस्या अनेक
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं
बलिहारी गुरू आपकी गोविंद दियो बतायइस परंपरा को जीवन का हिस्सा बनाने वाले पसोपेश में है, गुरु को अब बड़ा कैसे माने। राज और काज ने गोविंद से बड़े गुरु को अब बेचारा बना दिया है। न उसका स्थान निश्चित रहा न काम, न विश्वास कायम रहा ना दाम। एक ही जैसा काम करने के बाद भी उसे अलग-अलग दाम मिलते हैं। विद्यार्थी मित्र, शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, पंचायत राज शिक्षक- पता नहीं शिक्षक के कितने प्रकार हो गए। हर एक अलग ओहदा, अलग काम और अलग दाम। आश्चर्य तो यह है कि समाज राज के इस बुरे व्यवहार को सहन कर रहा है, शिक्षक भी मजबूर है क्योंकि उसे पेट भरना है। शिक्षक के पास अब काम भी केवल पढ़ाने का नहीं रहा। पशुओं की उसे गणना करनी पड़ती है, मतदाता सूची बनानी पड़ती है, पोषाहार पकाना पड़ता है, स्कूल निर्माण कराना पड़ता है, सरकारी आदेशों की पालना में विभिन्न अवसरों पर रैली निकालनी पड़ती है। जनसंख्या वह गिने, चुनाव वह कराए, अकाल राहत कार्यों पर नजर रखे। कोई भी काम हो तो पहले पहल शिक्षक का नाम सरकार लेती है। जितने काम हैं उतने उसके तबादले के तरीके हैं, ऐसे तरीके देश में राजस्थान के अलावा किसी भी प्रदेश में नहीं है।समानीकरण, पातेय वेतन पदोन्नति, एडहोक पदोन्नति, राज्यादेश, वाइसवरसा, राज्य की इच्छा पर, न्यून परिणाम रहने पर, शिक्षण व्यवस्था आदि तरीकों से यहां शिक्षक का तबादला किया जाता है। इसी कारण प्रदेश की शिक्षा प्रयोगशाला बनी हुई है पर ऋणात्मक पहलू है कि प्रयोग नेता कर रहे हैं, परिणाम की कल्पना की जा सकती है। इन दिनों समानीकरण का फंडा चल रहा है। सैकंडरी स्कूल में पांच कक्षाएं तो पांच ही शिक्षक, कोई बताए कि छह विषय पांच शिक्षक कैसे पढ़ाएंगे। प्रशासन कौन चलाएगा, खेल गतिविधियां कौन संचालित करेगा। समानीकरण तब किया जाता है जब कक्षाओं के अनुसार शिक्षकों के पद हों और उससे अधिक शिक्षक स्कूल में हो। प्रदेश की एक भी ऐसी स्कूल नहीं जहां नार्म्स अनुसार शिक्षक पद हों। इसके बावजूद समानीकरण करने का डंडा चलाया जा रहा है। जाहिर है स्कूलों की शिक्षण व्यवस्था चौपट होगी ही, शिक्षक प्रताड़ित होकर संघर्ष की राह दौड़ेगा। राज-काज को यह समझ नहीं आ रहा क्योंकि उसका नुकसान आम आदमी को होगा, उसके बच्चों की पढ़ाई चौपट होगी। शिक्षक लामबंद हो रहे हैं, यदि राज तक विभाग ने यह बात नहीं पहुंचाई तो उसे लेने के देने पड़ेंगे।
कई हैं गुदड़ी के लाल
सांस्कृतिक नगरी बीकानेर ने इस बार चार दशक से नाट्यकर्म कर रहे डॉ. राजानंद भटनागर का सम्मान किया। दो दिन उनके रंगकर्म पर विचार किया। जोधपुर से आए मदन मोहन माथुर ने जब उनके नाटकों का बड़ा आयाम बताया तो आम दर्शक तो दूर रंगकर्मी भी अचंभित रह गए। माथुर के पत्र वाचन से यह निष्कर्ष निकला कि बीकानेर का रंगकर्म राष्ट्रीय फलक पर अपनी बड़ी पहचान लिए हुए है। इस नगरी में कई गुदड़ी के लाल हैं। डॉ. नंदकिशोर आचार्य को दो दिन सुनना यहां के सृजनधर्मियों व रंग प्रेमियों के लिए सुखद रहा। उन्होंने प्रयोग को नए अर्थों में परिभाषित कर रंगकर्म को एक नई दृष्टि दी है जिस पर आने वाले कई नाटकों की दिशा तय होनी निश्चित है। समवेत ने एक शानदार प्रयास किया जिससे नगर की साहित्यिक गतिविधियों को नया आयाम मिला।
अब तो ध्यान धरो प्रभु
बिजली की कटौती को लेकर अब तो हर कोई आजिज है। एक से चार घंटे तक की घोषित व दो घंटे की अघोषित कटौती ने लोगों की दिनचर्या को पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर दिया है। न दिन को चैन न रात को आराम। सरकार है कि बिजली कटौती बंद करने या अवधि कम करने के बजाय बढ़ाने में लगी है। ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ। बुजुर्ग रामलालजी कहते हैं कि इतने लंबे समय तक इतने समय की बिजली कटौती तो पहले कभी नहीं हुई। लोगों ने बिजली महकमे के अभियंताओं को घेरा, जाम लगाए, प्रदर्शन किए पर पार नहीं पड़ी। हारकर चुप हो गए, अब तो प्रभु से ही अरदास कर रहे हैं। हे प्रभु, अब तो ध्यान धरो। ऐसे हालात राज और काज के लिए अच्छे तो नहीं माने जा सकते। यदि यही हालत रही तो ढेर के नीचे सुलग रही चिंगारी कोई बड़ा आंदोलन खड़ा कर देगी।
सोमवार, 17 अगस्त 2009
प्रतीकों के जरिये जनता तक पहुंचते हैं डॉ राजानंद भटनागर