आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक...
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक गजलांश के मानिंद ही बीकानेर की आह का कोई असर सरकार पर नजर नहीं आ रहा। बीच सड़क से गुजरती ट्रेन के गुजर जाने का इंतजार करते, कॉलेज में मनमाफिक सब्जेक्ट नहीं मिलने पर यूं ही दूसरा सब्जेक्ट चुनते, सभाओं में हवाई सेवा से लेकर ड्राइपोर्ट तक की घोषणा होने पर तालियां बजाते इन शहरियों ने हर बार सरकार पर विश्वास किया मगर 'वायदों की चूसणी ही मिली। इस चूसणी से जीभ पर पड़े छालों को सालों से सहते हुए शहर सिसकियां भर रहा है मगर साहिल के तमाशायी हर डूबने वाले पर अफसोस तो करते हैं, इमदाद नहीं देते की तर्ज पर महज हमदर्दी ही हासिल हो पाई है, जख्मों पर मरहम नहीं लगा।
अपने समय में बीकानेर को शिक्षा की राजधानी बनाना तय हुआ मगर उस वादे पर किसी भी सरकार ने गौर नहीं किया। प्रदेश में आईआईटी, केन्द्रीय विवि सहित चार बड़े शिक्षण संस्थान खुलने थे। विजयशंकर व्यास समिति ने केन्द्रीय विवि को बीकानेर में खोलने की सिफारिश भी की मगर उसमें से बीकानेर को नजरअंदाज कर दिया गया। शिक्षा का समान विकास हर संभाग में हो, इस नीति वाक्य को भी नजरअंदाज किया गया। इस शहर ने खामोशी से सब सहा है और सीमितताओं में अपने को जिंदा रखा है। इस बार दलीय सीमाएं तोड़कर जन मुद्दों पर एक मंच पर आए पर सुनवाई नहीं हुई।
हवाई सेवा को देरी से मंजूरी मिली। आधे-अधूरे विवि अपनी आंखों से केवल आंसूं बहाते रहते हैं। शिक्षा निदेशालय से कामों को अन्यत्र देने का सिलसिला किसी राज में नहीं थमा। व्यापारी यहां के जागरूक हैं और विकास में भागीदार बनना चाहते हैं। उनकी चाहत पर राज मुस्कुराकर नजर तो डाले, उसका इंतजार ही हो रहा है। यहां का विश्व प्रसिद्ध ऊन उद्योग हिचकोले खाकर सांसें ले रहा है पर उसे प्राणवायु देने तक का काम नहीं किया जा रहा। इसमें कोई दो राय नहीं कि वेटेरनरी विवि की सौगात शहर को मिली पर आज की भागती रफ्तार में एक-दो काम से किसी संभाग मुख्यालय को महत्त्व नहीं मिल सकता।
पानी की तरह गहरे हैं इन्सान
इस मरूधरा में पीने का पानी गहराई पर है जिसने यहां के लोगों को कठोर परिश्रमी बनाया है पर साथ में मानवीय गहराई भी दी है। इसलिए जब तक उसकी अस्मिता पर कोई प्रहार न हो तब तक आंख भी नहीं फेरता। अब तो हदें पार लगती है। अकाल की इस विभीषिका में न चारे का पूरा प्रबंध है न पानी का। बिजली की बेवफाई तो सहन से बाहर है। रवीन्द्र रंगमंच का रुका निर्माण आरंभ हुआ तो राजस्थानी अकादमी से मायड़ भाषा की जो जोत जल रही थी उसे मद्म कर दिया गया। न साहित्य सृजन हो रहा है न साहित्य का सम्मान। साहित्यकारों को सहायता भी नहीं मिल रही। ऐसा लगता है इस शहर की कला-संस्कृति व साहित्य को तो दूसरे पायदान पर धकेल दिया गया है। निगम बनाया पर उसे आर्थिक संबल नहीं दिया, कैसे होगी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी।
शिकायत नहीं चाह है
जन जरूरतें कभी पूरी नहीं होती इसलिए मांग बने रहना ही स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी मानी जाती है। बीकानेर शहर इसी दौर से गुजर रहा है। यह शहर दिए गए सहयोग को भूलता नहीं है पर अपनी चाह बताने में पीछे रहना नहीं चाहता। हर शहरवासी चाहता है कि उसका बीकानेर भी राज्य के अन्य विकसित संभाग मुख्यालयों की तरह प्रथम पंक्ति में रहे। इस चाह को बुरा भी नहीं मानना चाहिए। माटी का मोल समझने वाले उसके लिए बोलने का मादा भी रखते हैं। बीकानेर नगर की स्थापना का दिन पास है शहर अपनी वर्षगांठ मनाने में लगा है। इस बीच यदि सरकार आए तो उसकी चाह को विस्तार मिलना भी स्वाभाविक है। बस चाह को उम्र मिल जाए तो इस मरूनगरी के भाग्य बदल सकते हैं। राम के साथ राज के जुडऩे की जरूरत है, बस।